Post – 2017-03-18

भाषा और समाज
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रामविलास जी ने भाषाशास्त्र के क्षेत्र में कुछ बहुत महत्वपूर्ण स्थापनाएं दी थीं। तुलनात्मक भाषाविज्ञान के क्षेत्र के अन्यतम विद्वानों में उनका स्थान होना चाहिए। उनका दुर्भाग्य यह कि वह हिन्दी में लिख रहे थे, हिन्दी का दुर्भाग्य है कि इसमें अपने अध्यवसायी विद्वानों की कृतियों को समझने तक की योग्यता और फुर्सत जिन्हें नहीं रही है वे अपने निकम्मेपन की क्षतिपूर्ति के लिए उनका अपमान करते रहे हैं और यदि किन्ही लोगों ने उनके समर्थन में कुछ लिखा तो उन्हें उनका भक्त कह कर अपमानित करते रहे हैं। रामविलास जी के साथ ऐसा ही हुआ।

हिंदी में निंदा का काम जितने योजनाबद्ध रूप में किया जाता है उसका दसमांश भी रचनात्मक प्रतिस्पर्धा होती तो हिंदी वांग्मय इतना सम्रद्ध होता कि हिंदी लेखकों को बात बात में अंग्रेजी लेखकों के उद्धरण देकर अपने को दूसरों से अधिक जानकार सिद्ध करने कि व्याधि से मुक्ति मिल जाती। टुच्चेपन को महिमा कि पहचान बना देना उथले लोगों की करतूत हो तो लोग उनकी औकात समझ कर उन्हें दरकिनार कर दें] परंतु टुच्चापन गम्भीर कार्यों में बाधक बने] उसकी उपेक्षा ही नहीं उसको निंदनीय कह कर विज्ञापित करने लगे तो और प्रचार साधनों पर ऐसे ही लोगों के अधिकार के कारन, ऐसे कामों और प्रयत्नों के प्रति उदासीनता का वातावरण तैयार हो तो हम किसी भाषा और समाज की नियति को समझ सकते हैं।

कुछ दिनों से एक विचित्र अभियान चल रहा है। लोग हिंदी बचाने पर जुट गए है। यह इस्लाम खतरे में का हिंदी अनुवाद है। जज्बाती नारे खुराफाती दिमाग की उपज होते हैं और खुराफाती लोग किसी चीज में निष्ठा नहीं रखते। वे अपने को आगे बढ़ाने के लिए हमारी सबसे मूल्यवान और पवित्र निधियों को सरे बाजार बेच सकते हैं। खतरा उन्हें हिंदी की बोलियों से है। इन दिनों भोजपुरी से है। ये बोलियां वे हैं जिन्होंने हिंदी को अपने सर उठा रखा है और आगे भी उठाये रहेंगी।
यह कुछ वैसी ही मुहिम है जैसे कोई सोचे कि शूद्रों को बढ़ने का या बराबरी का अधिकार मिल गया तो हिन्दू समाज खतरे में पड़ जाएगा इसलिए हिन्दुत्व की रक्षा के लिए शूद्रों को दबा कर रखना होगा। मेरी समझ उलटी है। हमारे शरीर का प्रत्येक अंग निरोग और स्वस्थ हो तभी हम स्वस्थ हो सकते हैं। सभी स्वस्थ अंग एक दूसरे के सहायक होते है] और इस तरह सभी अपने अबाधित रूप में ही हमे वह निश्चिन्तता दे पाते हैं जिसमे उनके होने के प्रति हम सचेत तक नही रहते। हमारे पास दिल है] वह लगातार बिना आराम किये रातदिन इतना विकट काम कर रहा जिसकी हम कल्पना भी नही कर सकते। पर वह हमारे सीने में है यह तब पता चलता है जब उसमे खराबी आ जाती है। यदि क्षेत्रीय भाषाओं में अपनी पहचान की ललक पैदा हुई है तो इसका कारण तलाशना होगा।

कारण यह है कि दबे और पिछड़े लोगों को हिंदी भी संस्कृत जैसी लगती है। उन्हें पाठशालाओं से डर लगता है। आंचलिक बोलियों के क्षेत्र के शिशु को स्कूल जाने से डर लगता है – किसी की छड़ी के कारण नही, उस भाषा के कारण जो उनके ऊपर बिना किसी पूर्वसूचना के लाद दी जाती है। एक से दूसरी में स्थानांतरण बिना किसी मध्यवर्ती चरण या प्रिपरेटरी कोर्स के! यह झटका उन कारणों में से एक हो सकता है जिनको हिंदी के प्रति उस भावनात्मक लगाव की कमी में अनुभव किया जाता है। प्रश्न उठेगा कि क्या दूसरी राज्य भाषाओं की अपनी बोलियां नहीं रही हैं और क्या उनमे वह लगाव नही है जिसकी हम हिंदी क्षेत्र के बारे में शिकायत करते हैं।

मैं इस पर चलते राह कुछ कहूँ तो उस पर भरोसा न करें, परन्तु अपनी जानकारी में मुझे किसी राज्यभाषा क्षेत्र में इतनी सशक्त और साहित्य&समृद्ध भाषा] उपभाषा या बोली का पता नहीं है जितनी हिंदी क्षेत्र में पाई जाती हैं। यदि हिंदी का शिक्षाशात्रीय उपयोग वैज्ञानिक तरीके से हुआ होता तो हिन्दी के प्रति वह अनुराग पैदा किया जा सका होता जिसके लिए हिंदी प्रदेश की एकता और भाषा के प्रति अनुराग पैदा करने के प्रयास में रामविलास जी ने अपना खून पानी किया।

अनुराग या भावात्मक एकजुटता का एक भौतिक आधार होता है। मोहभंग का भी एक कारण कार्य सम्बन्ध होता है। हिंदी देशभाषा तक न बन पाई, जलसेबाजों ने इसे विश्व भाषा बना दिया] हिंदी विश्व सम्मेलन करके वे जश्न मनाने लगे। विश्व में जिन भी दुर्भाग्यपूर्ण कारणों से हिंदी की एक बोली का प्रसार हुआ था वह भोजपुरीभाषी गिरमिटियों के कारण था । ऐसे में भोजपुरीभाषियों को अपने जश्न का अवसर क्यों न याद आता? भोजपुरी की हिंदी से होड़ तो तभी आरम्भ हो गई जब हिंदी के मजमेबाजों को भोजपुरी की व्यापकता का अपहरण करना आरम्भ कर दिया ।

भाषा राजदरबार में पहुंच कर अपना सत्व खो देती है। भाषा को जनता बनाती, सत्ता लादती और सर्जक समृद्ध करता है। यह समझ लुप्त हो गई है। राज्य भाषा को भ्रष्ट करता है। किसी अनुसूची में आकर महत्व पाने की लालसा किसी भाषा के लिए अनिष्टकर है। पर इससे हिंदी को इतना खतरा पैदा हो जाय कि वह आर्तनाद करने लगे यह अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है।

संख्याधिक्य के कारण हिंदी को लाभ मिल चुका है। मनोबल की कमी के कारण वह राजभाषा न बन पाई। हिंदी राजभाषा है। मैं अपने पूरे सेवाकाल में हिंदी में काम करता रहा। इसके दम पर मैं अंग्रेजी भाषा में काम करने वालों पर भारी पड़ता रहा! आप राजभाषा के जंग में न उतरें। वह जीता जा चुका है । समस्या जीतने की नही, जीते हुए भूभाग को बसाने और उसमे व्यवस्था कायम करने की है।

अपने से सवाल करें, आप कितना काम हिन्दी में करते हैं? जहां द्विभाषी फॉर्म उपलब्ध है उनको किस भाषा में भरते हैं? अपने हस्ताक्षर किस भाषा में करते हैं?

समस्या हिंदी को राजभाषा बनाने की नहीं अंग्रेजी के वर्चस्व को कम करने की है। आंदोलन उसके लिए किया जाना चाहिए। हिंदी में अपना ऐसा काम करते हुए किया जाना चाहिए जिसमे विकल्प खुले हैं। रामविलास जी की चिंता का मैं आदर करता हूँ पर सभी मामलों में उनसे पूरी तरह सहमत नहीं हो पाता।

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हम अपने विषय पर आएं। रामविलास जी की जिन स्थापनाओं की बात कर रहा था उनमें एक है भारोपीय की आदि जन्मभूमि वह अंचल रहा है जिसमें घोष महाप्राण ध्वनियां बहुत प्रबल रही हैं। आज भी उस क्षेत्र से बाहर किसी भी दिशा में जायं] महाप्राणता क्षीण पड़ती जाती है। यह क्षीणता भारतीय भाषाओं में भी लक्ष्य की जा सकती है। दूसरी बात यह कि हम जिस वर्णमाला का प्रयोग करते हैं] वह कई भाषाओं की ध्वनिमाला के संयोग से बनी है। आरंभ में किसी भाषा में सभी ध्वनियां नहीं पाई जाती थीं। इसके अतिरिक्त जिन भाषाओं में कोई ध्वनि पाई जाती थी जरूरी नहीं की किसी वर्ग की पांचों ध्वनियां उसमें पाई जाती रही हों ।

हम पाते हैं आज भी इस देश में एक भाषा ऐसी है जिसमें वर्गीय अक्षरों की प्रथम और अन्तिम ध्वनि नही पाई जाती है। दूसरी भाषाओं के संपर्क के कारण संस्कृत शब्दों में आने वाली शेष ध्वनियों को लेकर काफी भ्रामक स्थिति देखने में आती है। यह भ्रामकता आर्यभाषाओं में भी कुछ ध्वनियों को ले कर देखने में आती है। बंगाली ण, य, व, स, ष का ही नहीं अ, ऐ, औ जैसी ध्वनि का भी उच्चारण नहीं कर पाता । इससे मिलती-जुलती स्थिति अनेक ध्वनियों को लेकर दूसरी आर्यभाषाओं और उसकी बोलियों में भी है।

रामविलास जी सोचते थे कि इन ध्वनियों के केन्द्र अलग थे और हमारी ध्वनिमाला का निर्माण उन केन्द्रों के निकट आने से हुआ है। यहां पर मेरी उनसे कुछ असहमति है, क्योंकि मुझे प्रारभिक अवस्था में ही सभी क्षेत्रों में ठीक अपने पड़ोस में दूसरी भाषाएं बोलने वालों के जत्थों का अस्तित्व आहारसंग्रह के चरण से ही दिखाई देता है और सामाजिक निर्माण की प्रक्रिया में इनके मेल जोल से आंचलिक भाषाओं का निर्माण हुआ । प्रश्न इनके अनुपात या कौशल या प्रभाव का था जिसमें अग्रणी बोली में दूसरो का मिश्रण होता गया।

हमने ‘ती’ ध्वनि के ‘दी’, ‘धी’ में बदलते और यूरोपीय संदर्भ में ‘दी’, ‘जी’, ‘थी ‘ में बदलते देखा वह मूलतः किस भाषा का शब्द था जिसे दूसरों ने अपनाया यह तय करना भी आसान नहीं है। जिस तरह अघोष अल्पप्राण और अनुनासिक ध्वनियों वाला समुदाय है जिसमें घोष और महाप्राण ध्वनियां नहीं मिलतीं, उसी तरह संभवतः घोषमहाप्राण प्रेमी समुदाय में अघोष अल्पप्राण ध्वनियां न रही हों, इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। कहे ध्वनिमाला का निर्माण सामाजिक निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा है और यह इस बात का प्रमाण है कि रेस या नस्ल जैसी किसी चीज की भारत में कल्पना भी नहीं की जा सकती। शूद्र और ब्राह्मण में इस मामले में कोई फर्क नहीं किया जा सकता।