भाषा और समाज
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मैं केवल एक बार को सुनीतिकुमार जी से मिला था। 1970 में उन दिनों स्थाननामों पर काम कर रहा था। मुझे उनसे कुछ स्पष्टीकरण चाहिए था। नियत समय पर पहुंचा। चर्चा आरंभ करने के लिए उनकी एक पुरानी मान्यता का हवाला दिया जिसमें उन्होंने भारत से कृषिविद्या का ज्ञान लेकर चीन पहुंचे आस्त्रिक जनों का और उनके साथ ही नदी के लिए गंगा शब्द गांग, ह्वांग, आदि चीनी नदियों के नामों का उल्लेख किया था। उनका मानना था कि गंगा का अर्थ नदी है, जो नदी विशेष के लिए स्थिर हो गया।
उन्होंने कहा, वह मान्यता गलत थी, इसलिए उसे छोड़ दिया।
मैंने कहा, गलत तो थी, परन्तु उसे छोड़ दिया यह और गलत किया। सुनीतिबाबू चकित, उनका मनोरंजन भी हुआ। उनको जिज्ञासा करनी ही थी कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं। मैंने बताया गंगा का अर्थ नदी नहीं है, कं, गं का अर्थ पानी है और इसलिए जलतटीय स्थलों में कं/कन् का प्रचुर प्रयोग मिलता है। गं को गगरा, गगरी, गंगाल में भी देख सकते हैं जिसका अर्थ जलपात्र है न कि नदी पात्र। कं/कम् को कंज और कमल में देख सकते हैं जिसका अर्थ जलज है।
इसके बाद मेरी उनसे घंटे डेढ़ घंटे तक बात हुई और उन्होंने कहा, तुमको मेरे पास आने के लिए अपाइंटमेंट लेने की जरूरत नहीं है, जब चाहो सीधे मेरे पास आ सकते हो। मैं उनसे दुबारा नहीं मिला क्योंकि स्थाननामों पर काम कर रहे कुछ लोगों का नाम उन्होंने सुझा कर उनसे संपर्क करने को कहा, पर वे लोग पुराने ख्यात स्थाननामों की पहचान कर रहे थे जिनका अर्थ और इतिहास सबको पता था, मैं ऐसे स्थाननामों का अर्थ पता लगाने का प्रयास कर रहा था जो बेतुके लगते है।
मैंने यह उल्लेख इसलिए किया कि भाषा पर काम करते हुए व्युत्पत्ति को ले कर बड़ी मनोरंजक गलतियां होती हैं क्योंकि हम आवेश में कुछ कड़ियों का ध्यान नहीं रख पाते । पतंजलि ने तो एक शब्द तक के सम्यक ज्ञान को एक महान उपलब्धि बताया और बताया भी उस शब्दश्रृंखला के कारण ही जिसमें एक शब्द के अनगिनत रूप् होते जाते हैं और उनके पीछे एक इतिहास और संस्कृति होती है। सच कहें तो एक भिन्न उपस्तरीय भाषा की भूमिका होती है जिसकी ओर उनका ध्यान नहीं जा सकता था, क्योंकि वह विद्वानों की उस ब्राह्मणवादी परंपरा की उपज थे जिसमें यह मान्य था कि सृष्टि से पहले वेद विद्यमान थे, फिर संस्कृत भाषा आदि और नैसर्गिक भाषा हुई ही। दूसरे उसी के अपभ्रंश हैं।
अपभ्रंश का कारण उनके सामने स्पष्ट न था। वेद की आप्तता को नकार नहीं सकते थे, और यह तक नहीं देख सकते थे कि उसी वेद में भाषा की उत्पत्ति का मार्मिक विवेचन है, इसलिए इस मनोबाधा के कारण वेद को भी समझ नहीं सकते थे। यह सीमा स्वामी दयानन्द की भी थी। वेद को उन्होंने हिन्दुओं, क्षमा करें, आर्यों की ‘किताब’ मान लिया था और इसलिए इसकी आप्तता की रक्षा के लिए वह थोड़ी खीेंचतान तो कर सकते थे, पर वेदवाक्य को पुनर्विचार के योग्य नहीं मान सकते थे।
अतः भाषा पर विचार करते समय अतिशय विनम्रता की जरूरत है और इसके बाद भी अपने आंकड़ों की पवित्रता और उन पर विश्वास और उनको मुखर होने का अवसर देना ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है। आंकड़ों में चूक हो सकती है, उनकी सही पहचान में चूक हो सकती है, इसे अचूक बनाने में आपकी, आप जितना भी कम क्यों न जानते हों, एक भूमिका हो सकती है। इसका एक उदाहरण राज्याध्यक्ष जी का यह सुझाव था कि दिक दिक्कत से व्युत्पन्न हो सकता है, इसलिए इसे खींचतान कर सही करने से अच्छा है इस आंकड़े को संदिग्ध मान कर इसे छोड़ दिया जाय। जोशी जी ने सुझाया कि टी तमिल के ती से नहीं, चीनी के ते से व्युत्पन्न है। मुझे डिक्शनरी देखने पर लगा उनका मन्तव्य सही है। पाठ में तदनुरूप सुधार कर दिया।
परन्तु इन सुधारों के बाद भी जो बचा रह गया वह सर्वशुद्ध है क्या? यह सही है, क्योंकि इसकी कुछ गलतियों की ओर अभी तक किसी का ध्यान न गया हो सकता है, और तब तक शुद्ध भी है जब तक इसकी कोई दूसरी कमी या इस पद्धति की कमी को निर्णायक रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाता।
मेरा अनुरोध है कि आप को जहां भी कोई कमी दिखाई दे, उपकारी भाव से उसे बिना झिझक प्रस्तुत करें, विचार करने के बाद मैं उचित सुधार पाठ में कर लूंगा, प्रत्येक प्रश्न का उत्तर न दे पाऊंगा । अब इसके बाद भाषा और समाज की तीसरी टुकड़ी और इसका विमर्श कल।