Post – 2017-03-17

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अब हम एक ओर तो ऐसे शब्दों और भावों के लिए इस ‘ती’ ध्वनि से साधर्म्य के आधार पर निकले शब्द भंडार पर दृष्टि डालें जिनसे कोई ध्वनि पैदा नहीं होती – तिज, तिग्म, तेज (प्रखर), तेज (पैना), तेज (अधिकता – धूप/रौशनी/भाव आदि ), तेजन, उत्तेजन, तेगा, तीखा/तीक्ष्ण, तिक्त/तीता, तिमिंगल, तिमिर आदि .
दूसरी ओर ती का घोषीकरण और महाप्रानीकरण – थी-, दी-, धी- होते पाते है, और अर्थ प्रकाश और ज्ञान की दिशा में विकसित होता है फिर भी जलने का भाव देवन में बना रहता है. युरप की दिशा में घोषमहाप्राण का उच्चारण नही हो पाता इसलिए अघोषमहाप्राण बन कर थिंक, थॉट, थियो-, में दिखाई देता है. भारतीय भूभाग में थी- का पता नहीं चलता, भोजपुरी में दिकदिकाह हल्के बुखार के लिए प्रयोग में आता है और गर्म करने के लिए धिकाना (धिकावल) का प्रयोग होता है. कहें आग वाला भाव जारी रहता है.
हम दी से व्युत्पन्न दीपक, दीपन, उद्दीपन, देव, दिव, पानी के आशय को अंग्रेजी dew, आदि में देखते हैं. इनकी संख्या विशाल है और आप उनसे परिचित हैं.
धी, धीति, ध्यान से आप परिचित हैं ही. पर अब बताएं कि संस्कृत तिज निशाने तीक्ष्णीकरणे , तिज निशातने और ध्यै चिन्तायाम्, धृ´् धारणे ; धि धारणे के रूप में धातु की कल्पना कर लेती है तो भरोसे की यह धातु है या हमारी अनुनादी श्रृंखला जो बोलियों से लेकर संस्कृत तक की ही नहीं यूरोप की भाषाओं में फैले शब्दभंडार की जड़ों की तलाश करने में सक्षम है ?