Post – 2017-03-16

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भाषा और समाज

हमारी समाज रचना और स्वयं अपने इतिहास को समझने में हमारी भाषाएं कितनी सहायक हो सकती हैं इसकी ओर आपने ध्यान न दिया होगा। ध्यान न देने का एक कारण यह भी हो सकता है कि आप सोचते हैं हमारे पास समग्र भाषा संपदा होती है। उसका कौन सा घटक किस काल का है यह तय करने का हमारे पास कोई साधन नहीं है। हम तो यह तक नहीं कह सकते कि जिन बोलियों के इतिहास की दीर्घता की बात हम कर रहे हैं वे आज से हजार दो हजार साल पहले कैसी रही होंगी। बोलियां बदलती रहती है, शब्दों के अर्थ बदलते रहते हैं, ऐसी दशा में कोई भी ऐसा दावा, जिसका लिखित प्रमाण न हो अविश्वसनीय है।

आप ने मैकाले का वह भारत भर्त्सना कथन तो पढ़ा ही होगा जो उसकी अपनी सोच थी। वह बंगाल को ही भारत मान रहा था। बंगाली भी बंगाल को ही भारत मानते है। खैर दूसरे अंग्रेज भी मैकाले की जबान बोलते रहे।

मुझे मैकाले की इस पीड़ा से शिकायत नहीं है कि यहां की जलवायु में लोहा तक गल जाता है, कोई चीज बहुत जल्द सड़ने लगती है, पर इस तर्क से भारत में न पुरातत्व की आशा की जा सकती है न उसका लाभ उठाया जाता है। खुदाई से पहले जो मलबे का पहाड़ समझा जाता था उसकी खुदाई की सही समझ के बाद मलबे से इतिहास निकलने लगता है, जिसे सन संवत में बांधने की समस्यायें भले हों, उनका स्तरभेद समझने में कोई चूक नहीं होती। इसलिए अतीत को जानने का हमारा सबसे भरोसेमन्द अनुशासन, पुरातत्व, तिथि को नहीं मानता, स्तरभेद को मानता है।

तिथि में धन-ऋण दोनों लगाकर बात करता है, जिसे अपने पूर्वाग्रह से लोग धनाधन और ऋणाऋण बना देते हैं, परन्तु स्तर भेद को ले कर उसके मन में कोई दुविधा नहीं होती। रंचमात्र की भी नहीं। भाषासंपदा पुरातत्व की पार्थिव संपदा जैसी ही है। जो इसके विश्लेषण का सही तरीका नहीं निकाल पाएगा, उसके लिए इसकी संपदा युगों के मलबे की ढेर प्रतीत होगी।

मैं अकेला मूर्ख हूं जो यह मानता है कि भाषा विवेचन, या पुराभाषाविज्ञान पार्थिव पुरासंपदा के विवेचन से अधिक महत्वपूर्ण है। इसमें अनिश्चितताएं पार्थिव पुरातत्व से भी कम हैं। पुरासंपदा बेजबान है और भाषाविज्ञान के पास जबान ही जबान है. इसकी इतनी भिन्न व्याख्यायें की जा सकती हैं कि पाणिनि की महिमा को स्वीकार करते हुए मुझ जैसा अदना व्यक्ति सबको नकारता और सबको सर झुकाता यह निवेदन कर सकता है की पाणिनि को भी संस्कृत की निर्माण प्रक्रिया का पता न था। इस हिमाकत पर मुझे मुझे सर फिरा तो माना जा सकता है, मेरे तर्कों की उपेक्षा नहीं की जा सकती.

बात तिथिक्रम ये आरंभ हुई थी इसलिए आज लगे हाथ तिथि के झोंझ को छेड़ते हैं। झोंझ केवल लाल चींटों के उस खतोने या नीड के लिए प्रयोग में आता है जो चारों ओर से पत्तियों को चिपका कर बना होता है, और जिसे किसी ने छू दिया तो उसकी खैर नहीं।

हम आग के लिए तमिल में परिरक्षित ‘ती’ और उसी में प्रयुक्त ‘ती’ अर्थात पानी, मीठापानी को लें जिसे चाय के लिए अंग्रेजों ने चुन लिया। ती का अर्थ था, पानी। फिर जैसे रस के साथ हुआ, इसके साथ भी हुआ। यह मीठे पानी के लिए प्रयोग में आने लगा। इसे ही अंग्रेजों ने चाय के लिए अपना लिया जिसे हम उनके प्रभाव में या तो टी बोलते हैं या चाय ।

यह ती जिसका अर्थ आग भी है और मीठा पानी भी वह तमिल में वैदिक और संस्कृत की अपेक्षा अधिक सुरक्षित है। परन्तु यह ऐसी भाषा नहीं है जिससे सभी परिवारों की भाषाएं पैदा हुई हों, अपितु ऐसी स्थिति जिसमें एक रहस्यमय लेन देन के कारण यह पता ही नहीं चलता कि कौन सा शब्द किस परिवार या भाषा का है और यह गहनता हमें चकित करती है।

जैसे रस सरस या मीठा के लिए प्रयोग में आता है, उसी तरह ‘ती’ भी मीठे पानी के लिए प्रयोग में आने लगा। यह तेलुगु में तिय्यन – मीठा या स्वादिष्ट का जनक है और भोजपुरी के तिउना/तेवना या वह स्वादिष्ट पदार्थ जिसके सहारे रूखे सूखे भोजन को गले के नीचे उतारा जा सके। अंग्रेजी में कैचअप जिस आशय में प्रयोग में आता है और हमारी अपनी भाषा में जिसको चटनी कहा जाता रहा है।

हम मान सकते थे कि ती- आग सं. दी का तमिल ध्वनिसीमा में ग्रहण है। संस्कृत में ‘दी’ प्रकाश ज्ञान आदि के आशय में प्रयुक्त तो होता है, पर आग के अर्थ में मात्र व्यंजित होता है, दीपक, दीपन, देवन और परिदेवन या पश्चात्ताप के आशय में । ‘ती’ पहली नजर में दिखाई ही नहीं देता। पर तभी पता चलता है दिवस के साथ तिथि भी है। दाहकता के आशय में तेज भी है। जलन अनुभव करने के लिए तिलमिलाना भी है। कहने को कह सकते हैं कि आग के लिए संस्कृत में अग्नि है इसलिए यह मूलतः द्रविड़ शब्द हो सकता है, पर तभी तमिल नेरुप्पु – आग की याद आ जाती है जिससे यह उसका भी मूल शब्द नहीं रह जाता।