Post – 2017-03-15

प्राच्यविमुखता का इतिहास – 51

हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि भारतीयों को उच्च पदों पर नियुक्त किए बिना कंपनी या राज का शासन चलने में कोई समस्या थी। यदि होती तो वे इसके लिए प्रयत्न करते। उन्होंने छोटे पदों पर हिन्दुस्तानियों को रखा पर ऊपर के सभी पद अपने हाथ में रखे। अंग्रेजी इतनी सिखाते रहे जितनी से उनका काम सध सके, परन्तु अंग्रेजी को उच्चशिक्षा का माध्यम बनाना नहीं चाहते थे। वे भारत को मध्यकालीन सोच से बाहर आने देना नहीं चाहते थे। हम प्राच्यविदों की प्राचीन भारत की प्रशंसा , या मिल द्वारा मध्यकाल की तारीफ के पीछे उसी राजनीति को काम करते देखते हैं।

अंग्रेजी शिक्षा और प्रशासन में निर्णायक या निगरानी के पदों पर हिन्दुस्तानियों की नियुक्ति की वकालत सबसे पहले चाल्र्सग्रान्ट ने की थी । उसका इरादा भारत के ईसाई करण का था। चाल्र्स ग्रांट ने भारतीयों के अंग्रेजी सीखने से पैदा होने वाली आशकाओं का निराकरण करने के लिए जो तर्क दिए थे उन्हीं से उनके मन में घर कर चुके अंदेशों का पता चलता है । ग्रांट का खयाल था कि अंग्रेजी सीखने वाले ईसाइयत अपना लेंगे और यदि उनको कुछ उच्च पदों पर नियुक्त किया जाय तो इससे ईसाई बनने की ललक पैदा होगी। अंग्रेजी सीखे और ईसाइयत अपनाए ये हिन्दुस्तानी भरोसे के ताबेदार होंगे।

Need we ask whether it would make them better servants and agents, make them more useful and valuable in all the relations of life? Would not such a person be a real accession to European masters; and must it not be supposed, that men professing Christianity, whose interests would be promoted by employing such converts, would not reject them, upon a principle which even Paganism could not justify, that is, because they had honestly followed their convictions?

ग्रांट की सोच यह थी कि संख्या में कम होते हुए भी मुसलमानों ने फारसी को राजभाषा बना कर और उससे अपनी धौंस जमा कर निश्चिन्तता से शासन किया और हिन्दुओं ने उनके सामने कोई चुनौती पेश न की।

To introduce the language of the conquerors, seems to be an obvious mean of assimilating the conqueredpeople to them. The Mahomedans, from the beginning of their power, employed the Persian language in the affair of the government and in the public departments. This practice aided them in maintaining their superiority and enabled them, instead of depending blindly on the native agents, to look into the conduct of public business

मैं एक तरह से इन बातों को दुहराते हुए याद दिला रहा हूं कि कंपनी के कारण इग्लैंड मालामाल हो रहा था। चोर उचक्कों को भी चोरी से अधिक लाभकर कंपनी में नौकरी पाना था, जिसके बाद उनकी कई पीढ़ियों के दुख दूर हो जाते थे। यह कहने की जरूरत नहीं कि ब्रिटिश पार्लमेंट पूरी तरह कंपनी के साथ थी पर दूसरे यूरोपीय देशों की तुलना में वे अपने को अधिक सभ्य और उदार भी सिद्ध कर लेते थे, इसलिए कुछ मामलों में पार्लमेंट के सदस्यों का दृष्टिकोण अधिक उदार था। इसे चार्टर एक्ट 1833 में देखा जा सकता है जिसमें अन्य बातों के अतिरिक्त निम्न व्यवस्था थीः
The section 87 of the Charter Act of 1833, declared that merit was to be the basis for employment in Government Services and the religion, birth place, and race of the candidates were not to be considered in employment.
· This policy was not seen in any other previous acts.k~ So the Charter act of 1833 was the first act which provisioned to freely admit the natives of India to share an administration in the country.

परन्तु ये विधान घड़ियाल के आंसू थे। पार्लमेंट अपने को सभ्य देषों की गणना में अधिक सभ्य दिखाना चाहती थी। उसके हित कंपनी से जुडे़ हुए थे इसलिए उसने 1793 के चार्टर की उस व्यवस्था को खारिज नहीं किया जिससे यह कागज में आ सकता था जमीन पर उतर नहीं सकतामर्ष था। इसे ऐडवान्स्ड हिस्ट्री आफ इंडिया के शब्दों में पढ़ेंः
The Charter Act of 1833 legalised the appointment of Indians even to the highest ffoice of State but the provisions in the Act 1793, still unrepealed, laid down that ‘none but covenanted servants of the Company, could hold any ffoice with a salary of more than £800 a year.

दिया कुछ ऐसे लगा अपना घर लुटा बैठा।
लोगों ने देखा सवाली को कुछ मिला ही नहीं।

इस ऐक्ट में भारतीय विधि व्यवस्था को सुुधार कर आधुनिक बनाने का भी प्रावधान था जिसके लिए मैकाले भारत पधारे थे और गवर्नर जनरल की परामर्शदात्री समिति के चार सदस्यों में एक बने थेः

· First Indian Law Commission: The first law commission was set up by the Charter act of 1833 and Lord Macaulay was its most important member and Chairman.k~ The objectives of the law commission was to inquire into the Jurisdiction, powers and rules of the courts of justice police establishments, existing forms of judicial procedure, nature and operation of all kinds of laws.k~ It was directed that the law Commission shall submit its report to the Governor General-in-council and this report was to be placed in the British parliament.
हम पहले कह आए हैं कि मैकाले ने इसका निर्वाह करते हुए भारतीय दंड संहिता तैयार भी कर दी, उसे मुद्रित भी करा दिया परन्तु हाउस आफ कामन्स के सम्मुख विचारार्थ ही नहीं रखा गया। कारण उसमें सभी विधान इंग्लैंड के अपने दंडविधान जैसे ही थे। बाद में 1861 में संषोधन करके इसे अपनाया गया।
यह सब इस आषंका से प्रेरित था कि इससे भारतीयों का प्रषासन में हस्तक्षेप बढ़ता जाएगा तो वे आगे चल कर संकट भी पैदा करेंगें।

अठारह सौ तैंतीस के चार्टर ऐक्ट के अनुसार भेदभाव रहित चयन प्रक्रिया को अपनाया नहीं गया इसलिए इसे फिर 1861 में दुहराया और एक सीमा तक लागूू किया गया।

सुरेन्द्र नाथ बनर्जी इस सुविधा का लाभ उठा कर ही पहली बार आइसीएस बने थे पर उनके साथ क्या हुआ इसे विकीपीडिया में दर्ज विवरण में देखें। विकीपीडिया को मैंने उद्धरण के लिए इस विवषता में चुना है कि मजूमदार और अन्य द्वारा लिखित ऐडवांस्ड हिस्ट्री आफ इंडिया में यह बहुत बिखरा हुआ है पर है यहीः

He cleared the competitive examination in 1869, but was barred owing to a dispute over his exact age.k~ After clearing the matter in the courts, Banerjee cleared the exam again in 1871 and was posted as assistant magistrate in Sylhet.
anerjee was soon dismissed for making a serious judicial error.k~ He went to England to appeal his discharge, but was unsuccessful because, he felt, of racial discrimination.k~ He would return to India bitter and disillusioned with the British.[1] During his stay in England ;1874–1875), he studied the works of Edmund Burke and other liberal philosophers.k~ These works guided him in his protests against the British.k~ He was known as the Indian Burke.
Upon his return to India in June, 1875, Banerjee became an English professor at the Metropolitan Institution, the Free Church Institution[2] and at the Ripon College, founded by him in 1882.k~ He began delivering public speeches on nationalist and liberal political subjects, as well as Indian history.k~ He founded the Indian National Association with Anandamohan Bose, one of the earliest Indian political organçations of its kind, on 26 July 1876.k~ He used the organçation to tackle the issue of the age-limit for Indian students appearing for ICS examinations.k~ He condemned the racial discrimination perpetrated by British ffoicials in India through speeches all over the country, which made him very popular.

ब्रिटिश हुक्मरानों को यह विश्वास सा था कि बंगालियों की प्रगति से पूरे देश में असन्तोष होगा इसलिए वे इसे क्षेत्रीय समस्या समझते थे। अपने भारत दौरे पर सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी का जितना भव्य स्वागत हुआ, जितने उत्साह से उन्हें सुना गया, उससे पैदा हुई थी वह चिन्ता जिससे एक ओर तो भारतीयों के भीतर आ रहे उफान के मीटरबाक्स के रूप में बहुत कुशलता से लार्ड डफरिन के अनुमोदन से कांग्रेस की नींव डाली गई जिसमें विद्रोही तेवर अपनाने वाले भारतीयों को प्रमुखता से रखा गया था और इसलिए सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को भी होना ही था। यह अंग्रेजों की दहशत का पैमाना तो था ही, इससे घबरा कर उन्होंने अपनी आपदा को टालने के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच टकराव को बढ़ाने की मुहिम तेज कर दी, इसके लिए इस्तेमाल में हाजिर थे सर सैयद अहमद।

यही कारण था कि वह दुहरी सीखी सिखाई नीति पर चल रहे थे जिसका एक पहलू बंगाली बनाम हिन्दुस्तानी था और दूसरा हिन्दू बनाम मुसलमान। परन्तु स्थिति ऐसी थी कि मैं जो इस पूरे विकास और विघटन को परिणामों को देखने के बाद अपना आकलन कर रहा हूं, यदि सर सैयद के स्थान पर होता तो ठीक वही करता जो उन्होंने किया। तत्काल अपनी कौम के लिए अवसर खरीदने के लिए वह यह भुगतान कर रहे थे। कौन तय करेगा कि सर्वशुद्ध निर्णय क्या होना चाहिए था ?