दो
हम पहले कह आए हैं कि भाषा श्रुत ध्वनियों का उच्चारण है। जो सुन नहीं पाते, वे बोल नहीं पाते। इसका आरंभ अपने परिवेश की ध्वनियों से हुआ। जिस वस्तु या क्रिया से कोई ध्वनि उत्पन्न होती वही उसकी संज्ञा हो गई । यह कोई नई बात नहीं है । इसे हमारे यहां भी बहुत पहले यास्क से भी पहले उपमन्यु ने सुझाया था । आज लगभग सभी विद्वान मानते हैं कि इस तरह हमारी भाषाओं के बहुत से शब्द अनुनादी हैं । जिस वस्तु से जैसी ध्वनि निकली वहीं उसकी संज्ञा हो गई।
सवाल वहां पैदा हुआ जब उनका सामना वस्तुजगत और भावजगत की ऐसी सत्ताओं से हुआ जिनसे स्वतः कोई ध्वनि पैदा होती ही नहीं। फिर उनके सामने एक और कठिनाई कि इस तरह तो हमें केवल कुछ संज्ञाएं और क्रियायें ही मिल सकती थीं। भाषा का इतना जटिल ढांचा तो तैयार हो ही नहीं सकता था। इसलिए उन्होंने मान लिया हमारी भाषा के केवल कुछ शब्द ही अनुनादी हैं, शेष भाषा की उत्पत्ति रहस्यमय है।
इसी को सुलभाने के लिए चोम्स्की नाम के एक बहुत प्रकांड भाषाविद ने सत्तर के दशक में जेनरेटिव ग्रामर का सुझाव दिया था। उनका विचार था कि हमारी चेतना में निसर्गजात रूप में एक भाषा-व्यवस्था होती है जिसके कारण कुछ ही सालों के भीतर एक शिशु अपनी पूरी भाषा सीख जाता है, जो इतनी जटिल है कि वयस्क को सालों पसीना बहाने पर ही किसी भाषा पर अधिकार हो पाता है। पश्चिम में ऐसी नयी बातें धड़ल्ले से चल जाती हैं जिनको आगे बढ़ाते हुए वे ढेर सारा कचरा पैदा कर देते हैं जिसे हम ज्ञान कहते हैं और जिसका आयात भी करते हैं।
चोम्स्की के प्रयत्न से केवल इतना ही सिद्ध होता है कि भाषा कैसे पैदा हुई यह सवाल भाषावैज्ञानिकों को आज भी परेशान करता है, पर उनके पास वह आधारभूत संपदा नहीं है जो हमारे पास है और जिससे हम अपनी भाषाओं के विकास को समझने के बाद दूसरी भिन्न भाषाओं की उत्पत्ति और विकास को समझने के सूत्र दे सकते हैं।
हम जहां अपने पुराने चिन्तकों और पश्चिम के चिन्तकों से अलग राय रखते हैं और यह मानते हैं कि कुछ शब्दों और क्रियाओं का ही नहीं समूची भाषा का विकास प्रकृति में उपलब्ध ध्वनियों से हुआ है. भाषाविज्ञान में यह मामूली सा तिनका ही मेरा अपना योगदान माना जा सकता है।
अब हमें यह समझना होगा कि जिन वस्तुओं से स्वतः कोई ध्वनि नहीं निकलती उसको उनकी संज्ञा कैसे मिली, और हमारे मनोभाव और संकल्पनाओं के लिए संज्ञा कैसे मिली।
भाषा की भूमिका का जिक्र करते हुए मैंने यह कहा था कि यह अव्यक्त को व्यक्त करने का काम करती है। इसमें यह भी जोड़ लें कि यह अनुपस्थित को उपस्थित कराने, अघटित को अपने माध्यम से घटित कराने की क्षमता रखती है और इस तरह यह एक समानान्तर सृष्टि है। भाषा की यह सृष्टि एक प्रक्रिया है और आज भी जारी है और इसका एक लंबा इतिहास है।
वाचिक संकेतों को रैखिक संकेतों में बदलने की सूझ और लिपि का विकास एक दूसरी सृष्टि है।
ऋग्वेद में कहा गया है कि विष्वामित्र ने जमदग्नि से ससर्परी वाक या घसीट लेखन, भंगुर उपादान पर लिखने की कला सीखी। इसका गुण यह बताया गया कि यह पंख से लिखी जाती है या पक्ष्या है। पेन का मतलब पंख ही होता है और पहले लिखने के लिए पंख के उस सिरे का उपयोग किया जाता था जो चमड़ी में धंसा होता है। दूसरी विषेषता यह कि इसकी आवाज या सन्देश बहुत दूर तक पहुंचता है। वहां तक जहां तक कितना भी चीख कर बोलें आवाज न जाएगी। और तीसरी विषेषता यह कि बोला हुआ शब्द तो बोलने के साथ ही समाप्त हो जाता है, पर यह अमर रहती है।
संभव है विश्वामित्र ने अपनी ओर से इसमें सुधार कर इसे अधिक ग्राह्य बनाया हो जिसके कारण कहा जाता है कि उन्होंने विश्वामित्री सृष्टि कर दी। ब्रह्मा ने जो कुछ बनाया है उसके समानान्तर उससे कुछ घटकर सब कुछ बना दिया और यह है संकेत प्रणाली में असाधारण विकास का श्रेय देने जैसा हुआ।
अब हम अपने विषय पर आएं। प्रकाश में तो ध्वनि होती नहीं, इसके लिए भा, भास, या भाष ध्वनि कहां से मिल गयी ?
मैंने 1970 में अपना पहला शोधकार्य किया था और उसे सौ सवा सौ पन्ने के बाद पूरा नहीं कर सका। यह भारत के स्थाननामोें का भाषावैज्ञानिक अध्ययन था। पूरा इसलिए नहीं कर सका कि सभी नामों का अंत पानी से होता था। मिसाल के लिए पालन, पालम, पलवल, पालघाट, पलानी अर्थात् पिलानी । अंन्तिम घटक पल/प्ल/ पाल आदि। मुझे लगा मैं पीलिया का शिकार हो गया हूं। यह कैसे संभव है कि सभी शब्दों के आदिम ध्वनि का अर्थ पानी हो? मैंने इसका कुछ अंश नागरी प्रचारिणी में प्रकाशित कराया, पर इस काम को न आगे बढा सका, न प्रकाशित कराया। यह आंकड़ों का जंगल था जिसमें किसी सामान्य व्यक्ति की रुचि हो भी न सकती थी।
इसके बाद १९७३ में क आर्यद्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता प्रकाशित कराया जिसका एक अध्याय भाषा की उत्पत्ति पर ही था।
उसमें यह दिखाया था कि एक अनुनादी ध्वनि या शब्द सैकड़ों शब्दों का जनन करता है और उससे संज्ञा, क्रिया, क्रियाविषेषण, प्रत्यय, उपसर्ग सभी सिमट आते हैं और कैसे यह प्रक्रिया संस्कृत और द्रविड़ में लगभग एक तरह चली है। पर रोचक बात यह कि मैं 2004 में फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जिन वस्तुओं से स्वतः कोई ध्वनि पैदा नहीं होती उनके लिए संज्ञा पानी से मिली है। प्रक्रिया वही, जिसका आरंभ 1968 में हुआ था।
अजीब बात है। रसो वै सः । जल से ही समग्र सृष्टि और उस सृष्टि को शब्दरूप देने वाली वाणी की भी उत्पत्ति जल से। और लीजिए केवल चार साल पहले मुझे लगा, यह बात तो ऋग्वेद के भाषाचिन्तक बहुत पहले कह आए थे, मैं इतने दिनों से इस पोथे को उलटता पलटता रहा हूं कि कई प्रतियां घिस कर फट गई, और इस ऋचा को समझा ही नहीं जिसमें महाशक्तिशाली वाणी, वागम्भृणी, कहती है कि इस द्यौस् पितर अर्थात् समस्त ब्रह्मांड को मैंने जना है, मेरी योनि या मेरी उत्पत्ति स्थान समुद्र के गर्भ में, पानी में है: अहं सुवे पितरं अस्य मूर्धनि, मम योनिः अप्सु अन्तः समुद्रे । वाणी की उत्पत्ति जल की विविध ध्वनियों से।
अब हम भास पर आएं। हिन्दी में जिसके लिए दलदल प्रचलित है उसके लिए भोजपुरी में भास का प्रयोग होता है। यह दलदल में पांव के धंसने की ध्वनि का अनुनाद है। इसके दो ध्वनिभेद हैं भसना और धंसना। भासना में पांव के ऊपर निकलने का आशय है धंसना में गड़ जाने या नीचे चले जाने का भाव। धसने से संस्कृत ध्वंस निकला है न कि ध्वस से धंसना ।
जल से जिन उपादानों का किसी भी रूप में संबन्ध है, सब जल के वाचक हैं। इस भास से एक दूसरा भोजपुरी शब्द निकला भसेड़ जिसे हिन्दी में कमल ककड़ी कहा जाता है।
जल से प्रकाश का संबंध इस नाते जुड़ता है कि जल आदि दर्पण है। इस पर सभी रंग, रूप, लाल, नीली, पीला, हरा, काला सभी दिखाई देते हैं, और प्रकाश भी फूटता है। इसकी कोई न कोई संज्ञा सभी रंगों की द्योतक है। यही वह तर्क है जिसमें अक्तु का अंधकार, आवृत या रात तक अर्थ हो सकता है और ज्योति या प्रकाश भी।
इसलिए भास आग का भी आशय ग्रहण कर ले तो आपको आपत्ति न होनी चाहिए। भाड़, भड़सांय में तो आप इसे लक्ष्य कर ही सकते हैं, भोजपुरी में जलन की अनुभूति के लिए भभाना शब्द प्रचलित है। और मिथ्या प्रदर्शन के लिए भभ्भड़ का प्रयोग करते हैं, उसमें भी इसकी भूमिका है, भोजपुरी लाल भभुक, प्रखर ज्वाला के रंग के लिए प्रयोग में आता है। इस श्रृखलना से जुड़ा है भउरा, भउरी, भभूति जिसे नासमझी में संस्कृतीकरण से विभूति बना दिया गया और खींच तान कर किया जाता है। भभूति पूरे शरीर पर मछरों से राहत पाने और बिना नहाए धोये बदबू और कीटाणुमुक्त रहने के लिए अपनाया गया तरीका था। बाद में टीका भी लगने लगा। अब इसका संदेश सभी कामनाओं वासनाओं को भस्म करके उससे मुक्त होने का दावा। लीजिए आग के प्रसंग में भस्म और भस्मी तो छूट ही गया था।और छूट गया भूजना या भूनना जिस भूजने की आप्तता यह है भाजी, भाजा में फिर हिन्दी में भी न की जगह ज की वापसी होती है।,। इस भूजने का संस्कार करके भर्जन कर दिया गया। यह है आपकी संस्कृत की दादागिरी।
आप देखें, संस्कृत से भी बहुत पुराने रूप हमारी बोलियों में हैं। सच कहें तो बोलियां भाषाएं हैं और संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी समेत हमारी आधुनिक बोलियां कंस्ट्रक्ट या निर्मितियां है, गढ़ी हुई भाषाएं जो हमें वह स्वतन्त्रता नहीं देतीं जो बोलियां देती हैं। इनमे वह गहनता नहीं है जो बोलियों में है। इसलिए जब आधुनिक भाषाओं और बोलियों के बीच मुद्दे खड़े किए जायं तो यह ध्यान रहे कि हिन्दी जैसी भाषा अपनी बोली की पोती पड़पोती तो हो सकती है उनकी जननी नहीं और आधुनिक भाषाओँ को अपनी बोलियों के सामने अदब से पेश आना चाहिए। इनके समर्थकों को भी। हिन्दी संख्या बल पर राजकाज की भाषा बन गई पर अपनी बोलियों से नाता तोड़ कर और संस्कृत से नाता अधिक जोड़ कर अधिक खोखली और बेजान हुई है। यदि बोलियों पर संकट आएगा तो हिन्दी जार्गन में बदलती चली जाएगी। बोलियों को हिन्दी के दबाव से बचाना, हिन्दी को अंग्रेजी के दबाव से बचाना हमारी साझी जिम्मेदारी है।