एक
सबसे पहले हम भाषा शब्द का ही समझें । ‘भाषा’ के मूल में ‘भास्’ (भा, भाः, भास)है। अर्थ है प्रकाश । यह भास, आभास, सुभाष, विभास, में मिलेगा तो ‘भा’ भानु, आभा, विभा आदि में। ‘भाना’ – वह मुझे भा गया, या भाता नहीं, में प्रकाश के लिए जो शब्द था वह पसन्द और सुन्दरता के लिए प्रयोग में आने लगा। अब आप ‘भांति’ का अर्थ समझ सकते हैं- सदृश, देखने में वैसा’। भाल का अर्थ सुन्दर, चमकदार।
(भाल के पर्याय ‘ललाट’ में स्वर के हेर-फेर से ‘लाल’ लला बन कर विराजमान है उसमें लाल का अर्थ चमकीला है न कि लाल रंग। )
भाषा अव्यक्त भावों, विचारों और आवेगों को व्यक्त करती है, अंधकार से प्रकाश में लाती है, दिखाती है। ‘व्यक्त’ का अर्थ होता है – ‘वि-अक्त’, अक्त/अक्तु ऋग्वेद में अंधकार, अवलेप, और रात के लिए प्रयोग में आता है परन्तु कुछ स्थलों पर प्रकाश के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। कैसे वही शब्द प्रकाश के लिए भी प्रयोग में आया और अंधकार के लिए इसे हम आगे कभी समझेंगे।
भाल में भी जब स्वर का हेर फेर(स्वर विपर्यय) हो जाता है तो भला – अच्छा, सुंदर। और बंगला के भाल बासा का तो मौसम पुरे मधुमास रहेगा.
कुछ लोग कोश सामने रख कर कहेंगे कि प्रकाश अर्थ में मूल धातु भास है और वाणी वाले अर्थ में भाष । अधिक योग्य होंगे तो कोई धातु पेश कर देंगे। लीजिए, मुझे भी मिल गये धातुपाठ से दो सूत्र – ‘भाष् व्यक्तायां वाचि’, और ‘भासृ दीप्तौ’, अब तो मामला ही सलट गया। पर इसे यदि मैं भी मान लूं तो मेरे पास करने को कुछ बचेगा ही नहीं, एक किताब से उठाया और दूसरी किताब में भर दिया। हेरा फेरी की आदत नहीं, डाका डालने, तोड़फोड़ करने में झिझकता नहीं.
इसलिए मैंने पहले ही बता दिया था मैं भाषा के आदिम चरण की बात करने जा रहा हूं, जहां तक बाद के वैयाकरणों की पहुंच ही नहीं है।
तुलनात्मक भाषाविज्ञान को जिस तरह तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया उससे कुछ शिकायतें मुझे भी हैं, परन्तु इस क्रम में भी हमें उससे अपनी भाषाओं के विषय में कुछ अच्छी जानकारियां मिली हैं। इनके भी दो तरह के पाठ बनते हैं, एक वह है जिसे सोच कर यह पहले बाद का चक्कर चला, दूसरा वह जिससे आरंभ करने पर उलझने सुलझ जाती है।
इन खोजों में इनमें से एक यह है कि मूर्धन्य ध्वनियां प्राचीन चरण पर संस्कृत में नहीं थीं भाषा में बाद में ली गईं। तमिल वर्णमाला में महाप्राण और सघोष ध्वनियां नहीं हैं। शब्द के मध्य में अघोष ध्वनियों का सघोष उच्चारण अवश्य होता है। इसी तर्क से द्रविड़ में ट, ण, ध्वनिया हैं, पर शब्द में बीच में आने पर ट का उच्चारण ड अर्थात् सघोष रूप में हो सकता है । अतएव तमिल में टवर्ग की ठ और ढ, ड़ और ढ़ ध्वनियां नहीं हैं। ड़ के निकट ळ ध्वनि और ढ़ के लिए तमिल की वह मे सम्भवतः वह विषेष ध्वनि है जिसे हम तमिल शब्द के अन्त में पाते हैं और जिसका सही उच्चारण मुझे इतना कठिन लगता है कि आज तक सम्भव हो ही न पाया। इसके लिए अज्ञेय जी ने ष़ चिन्ह का प्रयोग चलाया था ।
खैर तमिल में एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो ण से आरंभ होता हो, जब कि जैन प्राकृत में नमो की जगह णमो चलता है, राजस्थान में न प्रायः ण बन जाता है – राणा, राणी, घणों । कहें दन्त्य ध्वनियों को मूर्धन्य बना दिया जाता है। तमिल में ‘न’ को ‘ण’ बनाने की प्रवृत्ति नहीं है । कहें तमिल की तुलना में ण ध्वनि हरयाणवी और राजस्थानी की अधिक अपनी हैं. हम कह सकते हैं मूर्धन्य ध्वनियाँ किसी ऐसी बोली की अपनी लगती है जो सम्भवतः पाषाणी शिल्प में अधिक दक्ष था । वह जिसने किसी युग में मेगालिथों का निर्माण किया था और बाद में सिल बट्टे चकिया जाँत और घीया पत्थर के प्याले आदि बनाने का काम करता था इसलिए लगभग पुरे देश के गांव गांव से इसका सम्पर्क था और उसी के कारण विविध अनुपातों में मूर्धन्य ध्वनियों में से कुछ इधर कुछ उधर । यह मात्र एक सुझाव है, इस विषय में हमारा कोई दावा नहीं।
रामविलास जी का मानना है कि किसी भी बोली में किसी वर्ग की सभी ध्वनियां नहीं थीं, यह पंचाक्षरी व्यवस्था बाद की है। यह तर्क ध्यान देने योग्य लगता है। परन्तु यदि हम मानें कि यह किसी विशेष बोली की ध्वनियां थीं तो यह मानना होगा कि इस समुदाय के लोग अपने कौशल के कारण विभिन्न अंचलों में बसे लोगों के लिए उपयोगी रहे होंगे और इनके ही प्रभाव से ये ध्वनियां द्रविड़/ तमिल में भी पहुंचीं परन्तु अधिक प्रभावशाली उनमें भी नहीं हैं.
जो भी हो, इनके संपर्क में आने से पहले जिन शब्दों में दन्त्य ध्वनि (त, थ, द, ध, न, लृ, ल ) होती थी उनमें इनके प्रभाव से मूर्धन्य ध्वनि (ट, ठ, ड, ढ, ण, ऋ, र) का प्रयोग होने लगा, ऋग्वेद में पहला ही अक्षर (ऋ ) मूर्धन्य हुआ, विकास कुछ उल्टा होता है। जहां पहले र प्रयोग में आता था, वहां कई मामलों में ल का प्रयोग होने लगा। ‘रघु’ बदल कर ‘लघु’ हो गया, ‘अरं’ बदल कर ‘अलं’ और ‘अरंककरण’ बदल कर ‘अलंकरण’ हो गया। ‘अरं/अलं’ – अधिक होना, पूरा होना। आदमी फूल और लता पहन और लपेट का स्वयं पुषित लता या फूल से लदा तरु बन जाना चाहता था, पहले लता और पुष्प से काम चलाता रहा और बाद में धातुओं को पुष्पाकार बना कर कभी न मुरझााने वाले फूल और मालाएं पहनने और लपेटने लगा।
पर जहां पहले दन्त्य ध्वनियां थीं वहां इस विचित्र सामाजिक संपर्क में उनको कुछ स्थितियों मूर्धन्य बनाया जाने लगा। कहीं चल गया, और कहीं न चल पाया। ऋग्वेद में इसी प्रभाव में सोम कुछ स्थितियों में षोम हुआ, अग्नीषोमा।
इसी प्रभाव में भास का एक अवान्तर रूप भाष बना। पर मुसीबत यह कि इसका उच्चारण कभी कही शुद्ध होता रहा तो इसका इस समय हमें ध्यान नहीं। इसे भासा या भाखा के रूप में ही पढ़ा जाता रहा। इस मूर्धन्य सकार वाले रूप को उच्चरित वाणी के लिए लिखित साहित्य में प्रयोग किया जाने लगा. ष का उच्चारण ख के रूप में किया जाता था इसलिए भाखना और भाषना या भाषण देना. इसका रूढ़ अर्थ हुआ,’जो अज्ञात है, उसको मुखरित करना’, जो ओझा सोखा के प्रेतबाधित से उसका रहस्य उगलवाने के लिए प्रयोग में आता है।
भास का भाष वाला रूप कुछ उसी तरह बना जैसे कोश थैला, पेटी जिसमें मूल्यवान वस्तुएं रखी जाती थी, कोई ऐस थैला जिसमें बहुत सा माल अट सके, फिर भंडार, चाहे वह वस्तुओं का भंडार हो या शब्दों का – राजकोश या शब्दकोश । पर ‘कोष’ वाला प्रयोग ही खजाने के लिए स्थिर किया गया, ‘कोश’ का शब्दभंडार के लिए।
यह अंतर मूल संकल्पना, ध्वनि और अर्थ की भिन्नता के कारण नहीं है, दो ध्वनियों वाले जनों के एक ही समाज में रचने खपने और काम करने के कारण है। दोनों के प्रचलन और विलय के कारण दोनों का साथ चलन हुआ और फिर अर्थभेद । यह उससे भिन्न है जिसमें कई शब्दों का उच्चारण एक होता, या घिस कर एक हो जाता है जैसे ‘सोना’ <स्वर्ण, ‘सोना’ <शोभन और ‘सोना’ <शयन ।