उत्तरकांड
मैंने पहले यह कई बहानों से कहा है कि मैं न तो सही सोच पाता हूं, न सही लिख पाता हूं, पर इसमें यह जोड़ना जरूरी है कि सही जैसी कोई चीज होती ही नहीं। जिसे हम सही मानते हैं, वह सापेक्ष्य रूप में सही या गलत होती है, और जो सबसे गलत होता है वह गलत कभी हो ही नहीं सकता, जैसे तानाशाह; जैसे मनोविक्षिप्त; जैसे भावाविष्ट । सही, गलत, सामान्यता, शुद्धता आदि संकल्पनाएं हैं जिनकी पूर्णता ही इनका निषेध करती हैं। जैसे सामान्य या नार्मल होने की चेष्टा में व्यक्ति यंत्रमानव बन कर रह जाय, अर्थात् सबसे अधिक असामान्य। हम अपनी ओर से इन आदर्शों की दिशा में बढ़ने का प्रयत्न करते हैं और तभी तक सुरक्षित हैं जब तक इनकी पूर्णता पर नहीं पहुंच जाते। मेरा प्रत्येक लेखन, पिछले लेखन के अधूरेपन को भरने की पूरी कोशिश भर होता है जिसका अन्त अधूरेपन में ही होता है। यह कथन कल की दो प्रतिक्रियाओं के सन्दर्भ में जरूरी लगा।
मैं एक दूसरे शब्द की ओर आपका ध्यान दिलाऊं। ऊहापोह । इसमें ऊहा का अर्थ आपमें से अधिसंख्य को पता होगा, अर्थात् हवाई खयाल या ऐसी कल्पना जिसका पुष्ट आधार न हो। पोह का अर्थ कम को पता होगा। इसका अर्थ है पिरोना, क्रमबद्ध करना। इस क्रम में ही विचार का जन्म होता है, तर्क वितर्क और निष्कर्ष का थीसिस-एन्टीथीसिस-सिन्थिसिस का द्वन्द्वात्मक अग्रसरण । इसलिए आपकी आपत्तियां भी सार्थकता रखती है, सहमतियां भी।
हम प्राच्यविमुखता पर विचार कर रहे हैं न कि अंग्रेजों या ऐग्लिकन चर्च की महिमा पर। परन्तु यदि किसी को इस बात में सन्देह हो कि जिस चरण पर हमारा उनसे संपर्क हुआ उस पर वे हमसे सभी दृष्टियों से आगे थे, तो उसे कुछ तटस्थ हो कर सोचना चाहिए। उनके प्रचारकों में भी अपने धर्म प्रचार के लिए जैसी निष्ठा थी, उन्होंने जिन चुनौती भरी स्थितियों में उन जनों का अध्ययन किया जिनमें प्रचार कार्य करना था, वह दो-ढाई हजार साल पहले बौद्धों में और उससे भी पहले आर्या व्रता विसृजन्तः अधिक्षमि के संकल्प वाले वैदिक जनों में तो था, जिसके प्रमाण है एशिया में, बौद्ध मत का प्रसार और उससे पहले आर्य या तथाकथित भारोपीय भाषा का विस्तार, परन्तु उसके बाद से यह गायब है।
इसके बाद भी यह आत्मतोष बना रहे कि हम किसी से कम नहीं हैं, और अपने ही इतिहास के सुदूर चरणों को इन मामलों में अपने आज की तुलना में आगे और जीवट और कर्मठता में आज तक के अग्रणी से अग्रणी समाजों के समकक्ष या यत्किंचित आगे, पा कर घबराहट अनुभव करें कि इससे तो हममें पिछड़ापन आ जाएगा तो इसका कोई इलाज नहीं है। हम आज अपने अतीत से भी पीछे है और आज के अग्रणी समाजों से भी पीछे है, इस आत्मबोध के बाद ही वह विश्वास पैदा हो सकता है कि हममें वह निसर्गजात शक्ति है कि ठान लें तो आज भी अनन्य बन सकते हैं, परन्तु वह कार्यनिष्ठा, समर्पणभाव, और महत्वाकांक्षा कहने से पैदा न होगी, अपने को बदलने से ही पैदा होगी।