Post – 2017-01-02

उसका जादू भी बेअसर न रहा

मैं गप्प लड़ाता हूं इसलिए मेरा अधिकारी व्यक्ति होना जरूरी नहीं है।

अधिकारी लोग अपनी किताब लिखने की तैयारी कर रहे होते हैं, उसमें कोई खोट न रह जाय इसलिए शोध करते, नोट तैयार करते, अपनी ही किताब का नया ड्राफ्ट तैयार कर रहे होते हैं और उसी बीच गप्प लड़ाने वाले अपनी कच्ची पक्की जानकारी का कानाफूसी संचार करते हुए समाज को बदल रहे होते है और जब तक अधिकारी विद्वान का लोगों की पक्की जानकारी के अनुसार पक्का ज्ञान हम तक पहुंचता है, तब तक दुनिया बदल चुकी होती है और पक्की जानकारी वाली किताबों में उस सबसे शक्तिशाली माध्यम की भूमिका का जिक्र तक नहीं होता जिसने दुनिया बदली।

अब अधिकारी विद्वान को अपने को सच्चा अधिकारी सिद्ध करने के लिए एक दूसरी किताब, बदली हुई दुनिया को बयान करने वालों की महिमा गाते हुए नहीं, दुनिया बदलने वालों की कानाफूसी पर लिखनी चाहिए, परन्तु उसका कोई अभिलेख तो होता नहीं, इसलिए वह कभी दुनिया बदलने की प्रक्रिया, उसकी कारक शक्तियों और उनके ज्ञान के स्रोत और सूचना की आप्तता या अनाप्‍तता की जांच कर ही नहीं सकता। इतिहास लिखने वाला महाज्ञानी, इतिहास बदलने वाले, हम कमअक्‍लों से कई किलोमीटर पीछे रहता है और फिर भ्‍ाी यह भरम पाले रहता है कि सबसे आगे वही है, और लिखने से अधिक समय अपनी कुर्सी सबसे आगे लगाने की चिन्‍ता में लगा रहता है।

अकारण नहीं है कि बहुत कम जानता हुआ भी मैं ऐसी गंभीर समस्याओं में टांग टूटने का खतरा उठाते हुए भी टांग अड़ाने से बाज नहीं आता क्योंकि दुनिया को बदलने का काम अधकचरे दिमाग के लोग ही करते रहे हैं और उनका सिरमौर बनने की लालसा में मुझे बार बार यह जोखिम मोल लेना पड़ता है।

पर इसके साथ यह विश्‍वास भी रहता है कि जानकारों को मेरी बेवकूफी न सही (अपने बारे में खराब बात नहीं बोलनी चाहिए क्योंकि लोग उस पर विश्‍वास कर लेते है, जब कि आप समझते हैं लोग इसे आपकी विनम्रता का प्रमाण समझ कर आपके बारे मे अच्छी राय बनायेंगे और यदि अब तक कोई बुरी राय बना चुके होंगे तो उसे खारिज कर देंगे) इसलिए मेरी जानकारी की कमी का पता चल जाएगा, और यदि उनकी समझ में यह आ गया कि दुनिया बदलने का काम हम जैसे लोग ही करते हैं, तो दुनिया को हमारे हाथों बर्वाद होने से बचाने के लिए वे हमसे सही जानकारी साझा करेंगे और उनसे तू तड़ाक करते हुए हमें यह भी पता चल जाएगा कि बन्दा बात तो सही कह रहा है, इसलिए अपना दिमाग दुरुस्त करने का मौका भी मिलेगा, मैं अपनी करने से बाज नहीं आता। जो अपनी करनी नहीं करते उनको लानत तक नहीं भेजता। अपना काम ही क्या कम है कि उनकी निन्दा करने पर समय बर्वाद करूं ।

जिस बात को मैं कहने की हिम्मत जुटाने के लिए कल भूमिका बना रहा था वह यह कि सामी मजहबों में वह क्या है कि… क्षमा करें । मैं सभी सामी मजहबों को एक टोकरे में नहीं रख सकता। यहूदियों के बारे में मैं इतना कम जानता हूं कि कुछ मित्रों की टिप्पणियों से मेरा ज्ञान बढ़ा और समझ बदली और अब मैं जानकारों को भी यह बता सकता हूं कि उन्‍हें गर्भाधान से ले कर सत्‍यसन्‍धान की उम्र तक किस तरह का खान पान और व्‍यायाम रखना चाहिए। ऐसे मौकों पर अपने शास्‍त्र याद आ जाते हैं जिनमें बहुत पहले बताया गया था कि यदि तुम अमुक गुणों वाली सन्‍तान चाहते हो तो कितने समय से क्‍या खाते हुए ठीक मौके पर क्‍या खाओगे जिससे उन गुणों की सन्‍तान पैदा हो और उन कथाओं पर भी जिनमें मां के गर्भ में ही भ्रूण को दुर्भभेदन सिखा दिया जाता है, परन्‍तु मैं इसकी याद दिला कर आपकाे खिन्‍न नहीं करना चाहता। जबान है तो चलेगी भी और चले जितनी भी मुंह के अन्‍दर और दांतो के आतंक को झेलते जहां से चलना आरंभ की थी वहीं चलते चलते रह भी जाएगी।

बतकही का तो मजा ही यह है कि आप बात छेड़ दीजिए और अगला आपकी आलोचना करते हुए आपकी समझ दुरुस्त कर देगा। न स्कूल की हाजिरी न फीस, बैठे बिठाए ज्ञानी बन गए।

सो मैं सामी मजहब शब्द की जगह केवल ईसाइयत और इस्लाम को एक श्रेणी में और यहूदी मत को इन दोनों से अलग रखना चाहता हूं फिर भी यह याद रखना चाहता हूं कि इन तीनों में यह समानता है कि ये सभी पशुचारी जमातों के मजहब हैं और इसलिए इनकी दुनिया अपनी जमात या अपने कबीले तक सीमित रहने को बाध्य थी। इनमें इससे आगे कुछ भी समान नहीं रहता, समान मानसिकता तो रह ही नहीं सकती !

ईसाइयत और इस्लाम दोनों ने यहूदियों के पुराण से ले कर उनका अन्‍धविश्‍वास तक ले लिया, परन्तु कृतघ्नता यह कि वे उसी थाली में छेद करते रहे जिसमें वे खा रहे थे और अपने कुकर्मों को बेचारे यहूदियों के मत्थे मढ़ रहे थे।

यह मैं पहले ही कह आया हूं कि ईसा यहूदी थे । उन्होंने यहूदी मत में कुछ नए मूल्य जोड़े जिनके कारण इसकी पहचान बदल गई और एक नया मजहब पैदा हो गया जिसे ईसा का मत या क्रिस्ट का मत कहा गया। मैं अपमान का खतरा उठा कर भी यह सवाल करना चाहता हूं कि इनमें से कौन सा नाम उस व्यक्ति का था जिसे उस मत का जनक माना गया, जिसे ईसा का मत या ईसाइयत और क्रिस्ट का मत या क्रिश्चियैनिटी कहा जाता है और यह भी जानना चाहता हूं कि ये दोनो नाम ईश और कृष्‍ण के इतने निकट क्यों हैं कि एक जमाने में वेबर जैसे विद्वान भी यह खतरा मोल ले कर कृष्‍ण को क्रिश्चियैनिटी के प्रभाव में गढ़ा चरित्र सिद्ध करते रहे।

इन सवालों को मैं पीछे उठा चुका हूं और यह भी निवेदन कर चुका हूं कि ईसा के इस नये विचार को मानने वाले उनके शिष्‍य यदि ईसाई या क्रिश्चियन नहीं कहे जाएंगे तो उन्हें यहूदी कैसे कहा जा सकता है! कई बार मैं सोचता हूं कि यहूदियों में दुनिया के इतने असाधारण और अधिसंख्य मेधावी सभी क्षेत्रों में पैदा किए परन्तु मुझ जैसा बेगैरत एक भी क्यों न पैदा किया कि कवह अपना सम्मान तक दाव पर लगा कर कह पाता, हरामजादो, खैर इतना कठोर शब्द तो न वह कहता न इसका अनुकूल प्रभाव पड़ता, फिर भी यह तो समझाना ही चाहिए था कि यदि ईसा के शिष्‍यों ने टके के लोभ में ईसा से विश्‍वासघात किया तो वे उनके नए मत के अनुयायी ईसाई हुए या यहूदी। यदि ईसाई हुए तो वे अपने ही कमीनेपन का दंड हमें कैसे दे सकते हैं?

आप जानना चाहते होंगे कि आनुपातिक दृष्टि से असंख्य और अनन्य दार्शनिकों, चिन्तकों और व्यवसायियों के होते हुए भी यहूदियों में से कोई यह काम क्यों न कर सका?

उत्‍तर यह है कि सामी मतों में अकेले यहूदी दुनियादार रहे हैं, समझदार रहे हैं, और समझदारी को सफलता का पैमाना और यश और कीर्ति को परम उपलब्धि मानने के कारण किसी को अपनी अवज्ञा, उपेक्षा और अपमान का खतरा उठा कर सच को सच कहते हुए जो भोगना पड़ रहा था उसे चुनौती देने का साहस नहीं हुआ। अपमान सहने को तैयार हो कर सच कहने का साहस बहुत कम लोगों को होता है। अपनी तारीफ करने की आदत नहीं, पर अपने बारे में भी सच कहने वाला तो कोई होना चाहिए, कोई किराये पर भी नहीं मिलता, इसलिए खुद कहना पड़ता है कि काश मुझ जैसा एक भी यहूदी पैदा हुआ होता तो उन्हें इतने लंबे समय तक इतनी जिल्लत की जिन्दगी नहीं जीनी पड़ी होती!

मुझे आश्‍चर्य इस बात पर होता है कि ईसाइयों और मुसलमानों ने यहूदियों से उनका पुराण लिया, स्वर्ग के काल्पनिक लोक में घटिया किस्म के सुख विलास की कल्पना में दुनिया को और स्वयं अपनी जिन्दगी को भी बर्वाद कर डाला और सपने वे जिन्हें लफंगे और घटिया किस्म के लोग इस दुनिया में ही पूरा कर लेते हैं,उसे पाने के लिए जान देते रहे, परन्तु उन यहूदियों से जीने का सऊर नहीं सीख सके। बल्कि उसी के कारण और उस मामलों में अपने पिछड़ जाने के कारण वे यहूदियों से घृणा करते रहे और यह भूल गए कि जिस सफलता के बल पर वे अपनी गोरी चमड़ी और यूरोप पर गर्व करते हैं उसके जनक यहूदी हैं। उनकी ही सफलता ने अैर उनके साहचर्य में दूसरों की सीख ने यूरोप को इतना आगे पहुंचाया।

भूमिका की भी भूमिका होती है क्या? मैं तो अपनी बात आज भी कायदे से नहीं रख सका, पर इस बात की ओर ध्यान जाता है कि क्या हिन्दुओं से भी इसी तरह की घृणा दूसरे समाजों में पाली जाती रही ? कारण सभी क्षेत्रों में वे ही अग्रणी थे और इसे दूसरे देशों के लोग भी स्‍वीकार करते थे। हाल यह कि अमीर खुसरो जो हिन्‍दुओं से घृणा करता था वह भी इस सचाई को मानता था। हिन्‍दुओं को अपनी दुर्गति के दिनों में भी रात को सोने से पहले और जागने के बाद पहला और अन्तिम सपना यही दिखाई देता था कि हम जगद्गुरु रहे हैं, हम जगद्गुरु है और आश्‍चर्य यह कि आज भी वे सपने संजायें हैं कि युद्ध और विनाश के ज्वालामुखी पर बारूद के अंबार लगाने वाले पश्चिम को और पूरी मानवता को विनाश से बचाने का काम भारतीय ही कर सकते हैं। कुछ तो ऐसा है लोग कहते हैं, उसका जादू भी बेअसर न रहा !