Post – 2017-01-01

कल सही

विचार निर्ममता से किया जाय और व्‍यवहार सदाशयता से तो ही वह हितकर होता है । घबराए हुए लोग जल्‍द निराश हाेे जाते हैं और इन दोनों में से किसी का पालन नहीं कर पाते। निर्मम का अर्थ प्राय: कठेार कर लिया जाता है, अर्थ है ममत्‍व या आसक्ति से मुक्‍त, वस्‍तुपरक विचार, जिसमें स्‍नेह या राग नहीं होता इसलिए इसने कठोरता का भाव ले लिया जो अंग्रेजी के स्‍टर्न (स्‍टर्न डिसिप्लिनेरियन) में पाया जाता है । निर्मम चिन्‍तन उस विचार का संक्षेप है जिसमें अयंं निज: परो वा इति, भाव से विचार तुच्‍छ विचार वालों की सोच माना गया है विचार की सार्वदेशिकता और सार्वकालिकता को कसौटी माना गया है क्‍योंकि हम मानवता का ही अंग हैं और उसके साथ जुड कर ही अपनी महिमा प्राप्‍त करते हैं । विचार की अपनी युनिवर्सिलिटी की चिन्‍ता। अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम् ।

कांट उन दार्शनिकों में से एक है जिसको भारतीय चिन्‍ताधारा के प्रति सम्‍मान था और उसने नैतिकता की परख की जो कसौटियां तय की उनमें एक है सार्वभौमिकता की कसौटी । कोई काम नैतिक है या अनैतिक उसे सार्वभौम करके पता करो कि वह अनन्‍त काल तक चल सकता है या नहीं। जुआ खेलना,चोरी करना, हिंसा और हत्‍या को यदि सभी लोग करने लगें तो क्‍या होगा। जुआ खेलने, चौेरी करने पर या हिंसा और हत्‍या पर यदि सभ्‍ाी लोग उतारू हो जायं तो दांव पर लगाने को, चोरी करने को कुछ बचेगा ही नहीं। सभी हिंसा और हत्‍या करने लगें तो अन्‍त में मनुष्‍यता का ही नाश हो जाएगा, हिंसा या हत्‍या करने को कोई बचेगा ही नहीं ।

जिन कामों को सार्वदेशिक और सार्वकालिक नहीं बनाया जा सकता वे अनैतिक हैं और जिन्‍हें सार्वदेशिक और सार्वकालिक बनाया जा सकता वे नैतिक हैं। झूठ अनैतिक है क्‍योंकि सभी झूठ बालने लगें तो बोलने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। भाषा होते हुए भी हम गूंगों की जमात में बदल जाएंगे, परन्‍तु सच सभी सर्वत्र और सदा बोलते रहें तो यह चलता रहेगा। सभी आलसी और आरामतलब हो जायं तो कुछ पैदा ही न होगा, पर सभी अध्‍यवसायी हों, अपना काम करें, उत्‍पादन करेंं तो यह सर्वत्र और सदा जारी रह सकता है।

दर्शन तो अधिक पढ़ा न था पर बीए में दर्शन शास्‍त्र ले रखा था और तभी कांट के इन सिद्धान्‍तों का परिचय मिला, मेरे लिए उनकेे ये सिद्धान्‍त निर्देशक सिद्धांत बन गए। इनमें ही एक था, किसी का शोषण्‍ा करना और किसी के द्वारा शोषित होना दोनों अनैतिक हैं। इसके कारण मेरे बहुतों से संबंध्‍ा टूटे। मार्क्‍सवाद के प्रति मेरा आकर्षण यदि उसके एक दशक बाद हुआ तोे कांट के इस सिद्धान्‍त के कारण ही और आज भी कांट मुझे मार्क्‍स से बड़े दार्शनिक लगते हैं।

मेरे मार्क्‍सवादी मित्र कह सकते हैं कि मेरा नजरिया ही भाववादी है इसलिए भाववादी चिन्‍तक कांट मुझे पसन्‍द आता है जब कि मैंने अपनी व्‍याख्‍याओं में पाया कि मार्क्‍स से ले कर दूसरे मार्क्‍सवादी और उनमें भी भारतीय कम्‍युनिस्‍ट नितान्‍त भाववादी रहे हैं और आज भी हैं और यह भाववादिता इतनी प्रबल है कि मार्क्‍सवाद को आधुनिकतम सामी मजहब माना जा सकता है और यह सिद्ध किया जा सकता है कि सामी मजहबों से उसकी सहभागिता का एक कारण यह भी है । यह केवल मेरी समझ नहीं है, हाब्‍सबाम भी इसी नतीजे पर या इसके करीब पहुंचे थे पर दर्शन मजहब कब और क्‍यों बनता है इसकी समझ उनमें नहीं मिलती।

यह पहली बार मैंने रेखांकित किया कि दर्शन का काम विवेचना करना है, चेतना और विचार के स्‍तर पर समाज को बदलना है, चेतना और ज्ञान के स्‍तरों और रुझान की भिन्‍नता के कारण और शिक्षा और प्रचार साधनों की सीमाओं के कारण विचारों को, प्रबुद्ध स्‍तर से अशिक्षित समाज तक, पहुंचने में बहुत अधिक समय लगता है, फिर भी वह जो काम करता है वह किसी अन्‍य तरीके से संभव नहीं है।

कुछ इससे मिलती जुलती बात कलामाध्‍यमों और उनके द्वारा समाज को संवेदनात्‍मक स्‍तर पर बदलने के विषय में कहा जा सकता है। परन्‍तु जब दर्शन या विचार को अमल में लाने के लिए अभियान चलाया जाता है तो वह मजहब बन जाता है और उसमें मजहब की सारी विकृतियां – अन्‍धविश्‍वास, आस्‍था, पूजाभाव सभी विकार आ जाते हैं । ठीक इसी तरह कलाकार या साहित्‍यकार जब अपने माध्‍यम पर विश्‍वास खोकर हड़बड़ी में परिवर्तन के लिए दूसरे हथकंडे अपनाने लगता है, तो वह राजनीतिज्ञों का औजार बन जाता है, और उनकी अनेकानेक विकृतियां उसमें आ जाती हैं । यही कारण है कि मैं अपने नितांत प्रिय रचनाकारों द्वारा साहित्‍येतर हथकंडों काे अपनाने का आरंभ से विरोध करता आया हूूं और यह आशा करता रहा हूं कि वे मेरे हस्‍तक्षेप की प्रकृत‍ि को समझते हुए अपने तरीके पर पुनर्विचार करेंगे।

जो भी हो विचार के समय यह ध्‍यान रहना चाहिए कि इसका व्‍यापक या सार्विक प्रभाव क्‍या पड़ेगा।

सामाजिक प्रश्‍नों पर हमारा विचार आरंभ में ही तब दूषित हो जाता हैै जब हम इस चिन्‍ता में पड़ जाते हैं कि यह विचार अमुक को कैसा लगेगा, या अपने भीतर लंबे समय से जमे राग या द्वेष के कारण हम कुछ तथ्‍यों को छोड़ते और कुछ को अनुपात से अधिक बढाते हुए, अपने मन्‍तव्‍य पर पहुंचना चाहते हैं और जिनके मन में वह भाव नहीं है उनमें भी यह भाव पैदा करना चाहते है। कहें हमारे मनोभाव तथ्‍य, विचार और औचित्‍य को भी मनोभाव पैदा करने के उद्देेश्‍य से प्रेरित हाेेते हैैं, न कि विवेक या नई अन्‍तर्दृष्टि पैदा करने के आशय से।

परन्‍तु मेरी आज की त्रासदी यह है कि मैंने आरंभिक भूमिका उस कारण या कारणों की वस्‍तुपरक व्‍याख्‍या करने के लिए बनाई थी कि इस्‍लाम और ईसाइयत के प्रति इतनी सहिष्‍णुता बरतने वाला हमारा बौद्धिक वर्ग हिन्‍दू संवेदनाओं के प्रति इतना विद्वेषी क्‍यों हो गया कि वह इस अनुसंधान में अपना अधिकतम समय बर्वाद करता है कि हिन्‍दुओं में और कौन सी कमियां तलाशी जा सकती हैं या हिन्‍दुओं की भावनाओं को कितना आहत किया जा सकता है। उसकी यह घृणा ही है जो किसी भी संगठन के साथ हिन्‍दू शब्‍द जुड़ने के साथ उसे मिटाने और अपनी और देश की तबाही के विकल्‍प के बाद भी मिटाने को तत्‍पर हो जाता है जब कि उसका अकेला राजनीतिक आचरण सर्वजन हिताय सर्वजन लाभाय हो ।
इसके लिए जिन संवेदनशील या कहें अतिसंवेदी कोनों की पड़ताल करनी थी वह तो आज संभव नहीं लगता।
सावधान रहें भूमिका यदि पहले ही लिखने चले तो किताब धरी रह जाएगी ।