ईश्वर की तलाश
”तुम्हारी मुश्किल यह है कि बचपन से ही सनकी रहे हो । तुम दूसरों से अलग दीखना और अलग दीखने के लिए कुछ ऐसा करना चाहते हो, जिसे केवल सिरफिरे करना चाहते हैं या मूर्ख करते रहते हैं। दूसरों से अलग दीखना या अलग कुछ कर दिखाना आत्मविश्वास की कमी को प्रकट करता है। इसके पीछे एक टुच्चापन भी होता है जिसे तुम विचित्रता के आवरण से छिपा लेते हाे ।” उसके स्वर में ऐसा आत्मविश्वास था कि एक क्षण को मैं स्वयं संभ्रमित हो गया।
मुझे उलझन में देख कर वह अधिक उत्साह में आ गया, “जो बड़े लोग होते हैं वे विचित्र नहीं होते, न विचित्र दीखने का प्रयत्न करते हैं। वे साधारण जीवन जीते है, सामान्य बने रहना चाहते हैं, और इसके बाद भी दूसरों से कुछ ऊपर उठ जाते हैं। यह बोध ही उनकी अपनी निजता के सम्मुख एक चुनौती बन कर खड़ा हो जाता है और उससे टकराते हुए वे अपने लिए भी आश्चर्यजनक ऊंचाई या कहना चाहो तो महिमा प्राप्त कर लेते हैं। महानता और विलक्षणता में फर्क है ।”
”तुम्हारा तर्क तो बहुत सही लगता है यार, लेकिन मेरे बारे में यह धारणा तुमने बनाई कैसे।”
”मुझे धारणा बनाने की आवश्यकता ही न हुई । यह तो तुम स्वयं कहते हो कि मेरे भीतर बचपन से ही एक जिद रही है कि यदि किसी काम को अशक्य मान कर कोई दूसरा नहीं करता है ताे इसे मैं करूंगा। याद कराे कहा था या नहीं।
”बात तो सही है, और यह प्रवृत्ति मुझमें आज भी है, पर यह विचित्र दीखने के लिए तो नहीं है। इसका संबंध तो उस जीवट से है जिसके चलते किसी सत्य को जानने या किसी कृत्य को करने के लिए व्यक्ति खतरा उठाने, कष्ट सहने और विरोधों का सामना करने के लिए तैयार होता है । जहां दूसरे इसके डर से दुबक कर बैठ जाते है, पीछे हट आते हैं, वहां उस पूरी भीड़ में कोई एक होता है जिसे यह कायरता प्रतीत होती है । यह ओढ़ी हुई चीज नहीं होती, भीतर से पैदा हाेती है और इस पर हमारा पूरा नियन्त्रण नहीं होता।”
”तुम्हारा मतलब है यह ईश्वर प्रदत्त होता है।”
”तुम ईश्वर को जानते हो ।”
”मैं तो उसे मानता तक नहीं, जानने की आवश्यकता क्यों पड़ेगी। यह तुम्हारे लिए कह रहा था। तुम उसे जानते भी होगे और मानते भी होगे और जो कुछ हो रहा है उसे उसकी ही लीला भी मानते होगे।”
”कभी कभी मूर्खों के मुंह से भी समझदारी की बात निकल जाती है, तुम ठीक कहते हो। मैं उसे जानता भी हूं, मानता भी हूं और उसका सम्मान भी करता हूं। अक्ल होती तो तुम भी वैसा ही करते । नहीं है तो ठोकरें खाते हो ।”
उसने जोरदार ठहाका लगाया, ”मैं तो पहले से ही जानता था कि जब हम सभी साहित्यकार और बुद्धिजीवी संप्रदायवादियों का विरोध कर रहे हैं, उसे जड़ से उखाड़ फेंकना चाहते हैं तुम भाजपाइयों के साथ क्यों खड़े हो गए।”
”’और तुम्हारी बोलती बन्द कर दी’ उसमें यह भी तो जोड़ लो । तुम समुद्रफेन की तरह हो । कहने को महासागर से जुड़े और होने काे उसकी सतह से नीचे का पता ही नहीं। तुम जानते हो समुद्र फेन जब जम जाता है तो पत्थर का भ्रम पैदा करता है, परन्तु यह पानी पर तैर सकता है और इसी के आधार पर समुद्र पर तैरने वाले पत्थरों को फेंक कर रामसेतु बनाने की उद्भावना की गई थी जब कि यह एक भूसंरचना का चमत्कार था जिसे आज भी रामसेतु के रूप में पहचाना जा सकता है।”
”और वहां राममंदिर बनाया जा सकता है।”
”उसकी आवश्यकता नहीं । वहां पहले से रामेश्वरम् मन्दिर है, भले वह राम का न हो कर शिव का ही हो। तुम कभी उन चीजों की गहराई को आज की सूचनाओं और ज्ञान के आलोक में देखने का प्रयत्न करो तो तुम्हारी जड़ता कम हो जाएगी। पहले मैं ईश्वर को, उस ईश्वर को जिसे मैं मानता हूं और जिसके लिए पुरानी परिभाषाओं का लाभ उठाता हूं, यह समझे बिना कि जिन लोगों ने ईश्वर को इस रूप में परिभाषित किया था उनके मन में भी ठीक यही विचार रहे होंगे या नहीं।
”ईश्वर अज्ञेय है, और जहां हमारे ज्ञान की सीमा समाप्त होती है उससे आगे का समग्र क्षेत्र दो कारणों से अज्ञेय है । एक तो इसलिए कि वह इतना जटिल, इतना बहुलतापूर्ण, इतने असंख्य कारणों से प्रभावित होने के कारण अनुमान और ज्ञान दोनों की सीमाएं पार कर जाता है, कि उसका एक नाम ईश्वर है। यह एक कामचलाऊ प्रबन्ध है, कुछ उसी तरह का जैसे हम बीजगणित में अज्ञात संख्या को अ या क नाम दे लेते हैं। अ या क नहीं कहा ईश्वर कह दिया। यह भौतिक और ज्ञेय होते हुए भी अपनी जटिलता के कारण अज्ञेय जैसा प्रतीत होता है । और दूसरा है कि ज्ञेय परन्तु अज्ञात का इतना विराट परिमंडल हमारे ज्ञान सीमा के बाहर है जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती और उसके एक क्षुद्र अंश का पता चलता है तो पहले की पूरी दुनिया बदल जाती है और जिज्ञासा के असंख्य कपाट खुल जाते हैं। उस अज्ञात को ईश्वर और उसके अंश ज्ञान को ईश्वर का साक्षात्कार कहो तो तुम्हारा सतीत्व भी बचा रहेगा और सत भी बचा रहेगा।
”जब प्रतिभा के सन्दर्भ में हम ईश्वरप्रदत्त का प्रयोग करें, तो इस अर्थ में कर सकते हैं कि असंख्य अज्ञात और अपने नियंत्रण से बाहर के किंचित ज्ञात परन्तु उससे अधिक अज्ञात दबावों, अभावों, सुविधाओं और स्थितियों के बीच हममें कुछ योग्यताएं, आन्तरिक श्ाक्तियां और निर्योग्यताएं पैदा होती हैं जिनका कुछ संबंध गुणसूत्रों से, कुछ माता पिता के स्वास्थ्य से, और कुछ भू्णकालीन अवस्था में मां के पोषण और अनुभवों से जुड़े होते हैं जिनका भौतिक आधार होते हुए भी अपनी जटिलता के कारण वह अज्ञेय लगता है और उससे बाद में हमारे जन्म के बाद की आर्थिक, सामाजिक परिस्थितियां और निजी अनुभव होते हैं जिसमे हमारी चेतना, मेधा और प्रतिभा या किसी विशेष रुझान का जन्म होता है जिसका दबाव ऐसा होता है कि उसे तुष्ट करने के लिए हम दूसरे प्रलोभनों की चिन्ता ही नहीं करते अपितु कष्ट और यातना तक सहने के लिए तैयार हो जाते हैं।
”सच कहो, क्या तुमने किसी भी विषय को नारों से आगे बढ़ कर उसकी गहराई में समझने की कोशिश की है । ईश्वर को दूध की मक्खी की तरह फेंकने की जगह रहस्य की उन परतों को समझने की कोशिश की है जहां ईश्वर का निवास है। नहीं की है इसलिए तुमको उन नेताओं को तब तक ईश्वर मानना होता है, जब तक उनकी धाक बनी रहती है । वह लेनिन हों, स्तालिन हो, ली हो या माओ हों। जो ईवर को नहीं जानता उसे मनुष्यों का दैवीकरण करना होता है जिनकी सीमाएं उजागर होने के बाद वे ही लोग जो उनका कीर्तन करते थे, उनकी भर्त्सना करते पाए जाते हैं।
ईश्वर मनुष्य की जरूरत है इसलिए मिटाए भी नहीं मिटता क्योंकि हमारा अज्ञात और ज्ञेय अपार है और उसका रंचमात्र आलोक हमारा कायाकल्प कर देता है।”
वह हत्प्रभ नहीं हुआ, ”आज तो तुम बच गए, कल खबर लूंगा ।”