प्रसंगवश
आज एक संगोष्ठी में शामिल हुआ । उसमें एक वक्ता ने कई असुविधाजनक प्रश्न उठाए । आंकड़े देते हुए। आंकड़े बोलते हैं हम नहीं। मुझे समाहार करना था पर इस ओर ध्यान देता तो अपनी बात कह नहीं पाता और उस समय सीमा के भीतर गोष्ठी समाप्त न हो पाती जितने समय के लिए अनुमति थी। उस वक्ता को मैं विशेष रूप से इसलिए चर्चा में रख रहा हूं कि उनकी अधिकांश आपत्तियों का उत्तर दूसरे वक्ताओंं ने दे दिया था। प्रश्न करने वाले वक्ता का पहला वाक्य सुन कर ही आप अनुमान कर सकते थे कि वह किस विचारधारा से जुडे हुए है और इसी तरह उनका प्रतिवाद करने वाले वक्ताओं के तर्कों को सुन कर हम उनकी सोच का भी पूर्वानुमान कर सकते थे। यह कोई नई बात नहीं है। इसके प्रमाण हमारे लेखाों,वक्तव्यें और अब तो जिसे सामाजिक माध्यम कहते हैं उस पर भी देेखने काेे मिलते रहते हैं ।
इन दो धुवों के बीच ही सचाई के अनेक रूप हैं जिस पर कुछ अलग रह कर विचार किया जाय तो हम अपनी समझ में कुछ सुधार कर सकते हैं। उसकी सभी बातेंं गलत थींं और सभी बाते तथ्यों पर आधाधारित थींं। तथ्य तो तथ्य हैं, उन्हे झुठलाया तो जा नहीं सकता । प्रश्न है एक ही चीज सच होते हुए गलत क्यों हो जाती है और गलत होते हुए भी कुछ लोगों को अकाट्य क्यों प्रतीत होती है और उसी के दोनों पक्षों के बीच हम सचाई तक कैसे पहुंंच सकते हैं और उस सचाई के कितने उपेक्षित या अनदेखें पहलुओं का साक्षात्कार कैसे कर सकतेे हैं।
उसेे देश जैसे विशद विषय पर कुछ कहने में कुछ उलझन हो रही थी । बहुतों को ऐसे प्रश्न इस खतरे का संकेत प्रतीत होते हैं, कि इसकी आड़ में देश भक्ति को इस रूप में परिभाषित किया जा सकता है, और उनसे अपने जीवन व्यवहार में ऐसी अपेक्षाओं की पूर्ति की मांग की जा सकती है जिसे पूरी न करने पर उन्हें देशद्रोही या कम से कम देश के प्रति निष्ठा से रहित सिद्ध किया जा सकता है । यह निरा काल्पनिक भय नहीं है, परन्तु यह भय इतना उग्र नहीं होना चाहिए कि हम ठीक इसके विपरीत उस दूसरी आशंका काेे जन्म दे बैठे जिसमें भारत तेरे टुकड़ेे होगे इंशा अल्ला इंशा अल्ला गाने वालों को हम संकीर्ण देशभक्ति से मुक्ति दिलानेवालों की पहचान मान बैठे और उनके साथ मंच साझा करने लगें और उसमें भारत की बर्वादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी जैसे डरावने इरादे भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में शामिल हो जायंं।
कांग्रेस से लेकर वाम दलों तक की यह साझेदारी जिस देश को बर्वाद करना चाहती है, वह किसका देश है जिसे उसे बर्वाद करना है । उसका नाम भारत है और इन नारों की उदारतम व्याख्या करते हुए भी आप यह मानने को बाध्य हैं कि यह देश कांग्रेस का नहीं है, बामदलों का नहीं है यह केवल हिन्दुओं का देश है और इसे बचाने की चिन्ता केवल हिन्दुओं को हो सकती है इसलिए दूसरे सभी का कर्तव्य है कि इसको जितना बर्वाद कर सकें उतना बर्वाद करें । अब तक अपने शासन में देश के साथ यही किया है। सत्ता से बाहर होते ही उपद्रवियों, आततंकवादियों, दूसरे देशों से मिल कर इसे बर्वाद करने की योजनाएं बनाई हैं और अपराधियों को बचाया है। दूसरे सभी अपनी मांगे रखते हैं, हमे आरक्षण से ले कर संरक्षण तक सभी कुछ चाहिए परन्तु इनकी व्यवस्था और इनके सुचारु क्रियान्वयन की जिम्मेदारी इनसे इतर किसी और की है जिसे देश को भी बचाना है और सबकी मांगें पूरी हो सकेें इसका ध्यान भी रखना है और यदि नहीं रखता तो उसे और उसके देश काेे बर्वाद करना उनका कर्तव्य बनता है। क्या इसके बाद भी आप कह सकते हैं कि यह देश हिन्दुओं का और केवल हिन्दुओं का नहीं है ।
इसे हिन्दुओं ने अपना देश नहीं बनाया है, आप ने इसे हिन्दुओं का देश बनाया है और यदि आप इसमें अजनवी की तरह रहते हैं तो आपकाे उन मर्यादाओं का सम्मान करने के लिए बाध्य किया जा सकता है जिनकी चिन्ता आपको नहीं है या जिनसे मुक्ति की कामना करते हुए आप भारत की बर्वादी तक पहुंचते हैं। खुदा वो दिन न दिखाए कि सोगवार हो तू ।
एक दूसरी चिन्ता नजीब के लापता होने, उसकी मां की और उससे सहानुभूति रखने वालों की वेदना का था। उसे लगा कि पुलिस उसे तलाशने में इसलिए असफल रही है कि वह मुसलमान था और संभव हैैै इस बीच उसकी हत्या की जा चुकी हो। यह सच नहीं हो सकता इसका दावा ऐसा कोई व्यक्ति नहीं कर सकता जो यह मानता है कि पुलिस का सांप्रदायीकरण हुआ है और यह व्याधि जानकारों के अनुसार बीस पचीस साल पुरानी है। परन्तु इसे सच मान लेना या इस पर एक संभावना के रूप में बलाघात से तथ्य बनाना शायद उचित न हो। इतनेे ही इकहरेपन से दूसरा प्रमाण की कमी के आधार पर यह संदेह जताने का अधिकार रखता है कि संभावना तो यह भी हाे सकती है कि वह डर के मारे आई एस के प्रभाव में आकर पश्चिमी एशिया में पहुंच गया हो। प्रमाण के अभाव का दोहन दोनों सि्थतियों में निष्ठुरता का प्रमाण है।
एक दुखद तथ्य है कि मनुष्य की वेदना को हम या शायद दूसरे समाज भी मनुष्य की पीड़ा के रूप में न देख कर धर्म, आर्थिक स्तर, जाति, रंगभेद, शिक्षा और यहां तक कि पेशे तक से जोड़ कर देखने के आदी हैं। कितने बच्चे और युवतियां राेज गायब होते हैं और इसकी सूचना मिलने पर भी हमें यह विक्षुब्ध नहीं कर पाता क्योंकि यह पीड़ा उस इतर से संबंधित है जो उस परिधि से बाहर है जिसकी हम चिन्ता करते हैं। पीड़ा का यह मजहब अपने को धर्मनिरपेक्ष मानने वालों को हिन्दू पीड़ा पीड़ा नहीं प्रतीत होती और मुस्लिम पीड़ा कुछ अधिक व्यग्र करने वाली पीड़ा होती है, दलितों की पीड़ा उतनी वेधक नहीं होती जितनी सवर्णो की, गरीबों की पीड़ा सह्य होती है, उन्हें इसकी आदत होती है, परन्तु संपन्न जनों की पीड़ा अधिक उद्वेलित करती है । गोरे देशों के नागरिकों की पीड़ा रंगीन देशों और समाजों की पीड़ा से अधिक विक्षोभकर होती है, इसलिए जब खालिस्तानी बसों से हिन्दुओं को उतार कर उसी तरह कत्ल करते थे जैसे आइएस कुछ साल से करने लगी जिसके शिकार गोरे भी हुए तब उतना भयानक कुकृत्य नहीं था क्योंकि मरने वाले हिन्दू थे या रंगीन त्वचा के लोग थे। अमेरिका ने दूसरे महायुद्ध के बाद से लगातार एशियाई और अफ्रीकी देशों के असंख्य लोगों का बर्बरता पूर्वक मारा है, परत मानव त्रासदी का हिस्सा और दुनिया का जघन्यतम अपराध वह तब बना जब वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की तबाही सामने आई । मनुष्य की पीड़ा का यह बटवारा एक दुर्भाग्यपूर्ण सचाई है और जब तक यह है दुनिया का कोई देश और उन देशों का कोई समुदाय अपने को सभ्य नहीं मान सकता ।
आंकड़े बोलते हैं, हम नहीं, पर हम कुछ आंकड़ो को ही बोलने की छूट देते हैं, तो वेे आंकड़े हो या जीवन के तथ्य और अनुभव, वे जितना झूठ बोल सकते हैं उसकी तुलना आंख में आंकड़ों की धूल झोंकने से की जा सकती है। तथ्यों की प्रस्तुति में संतुलन हमारे मानसिक संतुलन का द्याेतक है और इस संतुलन को सचेत रूप में नष्ट किया गया है। संचार विचार के प्रसार के लिए नहीं अपितु उत्तेजना के प्रसार के लिए, यह आज की सतही सोच का दुखद पहलू है ।