Post – 2016-12-15

इतिहास का वर्तमान के चतुर्थ खंड की भूमिका

यह बिना किसी पूर्वयोजना के एक नई विधा में लिखी गयी पुस्तक है, जिसे बतकही कहा जा सकता है! पार्कों में, बैठकी के दूसरे अड्डों, चैक चैपाल में लोग राजनीति से ले कर समाज और परिवार की समस्याओं पर चर्चा करते हैं! यह उसी को एक स्तरीय रूप देने और अपने समय का आलोचनात्मक विमर्श बनाने की दिशा में एक प्रयोग है जो प्रयोग की सजगता के बिना इस चिन्ता के साथ आरंभ हो गया कि हमारे बौद्धिक स्तर में लगातार गिरावट क्यों आती चली गई है जब कि प्रतिभा, शिल्प और महत्वाकांक्षा की दृष्टि से हमारी आज की पीढ़ी विश्वविजय से नीचे की कोई लालसा रखती ही नहीं! इसके बाद भी किसी का कद ऐसा नहीं जो पिछली पीढ़ियों के गण्य और मान्य बौद्धिकों के समकक्ष रखा जा सके!

हमारे पास इतिहासकार नहीं है, पर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति का दावा करने वाले इतिहासकारों का मजमा है! बौद्धिक नहीं हैं, परन्तु धूम मचाने वाले बुद्धिजीवियों का जत्था है! आज से साठ सत्तर साल पहले के साहित्यकारों के कद के साहित्यकार नहीं है, पर देश विदेश में चर्चा का जुगाड़ करने वालों की संख्या में असाधारण बढ़त हुई है! हमारे विचार और संचार माध्यमों की संख्या में असाधारण बृद्धि हुई है परन्तु वे आज की बड़ी खबर को दुहराते हुए दिन काट देते हैं और हम देश और समाज का हाल जानने के लिए तरसते रह जाते हैं! उनके विचार स्थिर हैं और उनको चुनने वाले पहले से जानते हैं कि उन पर किस तरह के विचार पेश किए जाएंगे और वे नशे की लत की तरह उसी तरह के समाचारों और विचारों को सुन कर ‘‘क्या खूब कही, क्या खूब कही’’ कहते हुए अपना समय काट देते हैं! इंटरनेट पर अभिव्यक्ति के सामाजिक माध्यमों में बहुत साफ बटवारा पक्ष और विपक्ष को लेकर देखा जा सकता है! पक्ष उजागर है, विचार गायब है, वह फिकरेबाजी के स्तर पर उतर आया है।

दुखद तथ्य यह कि इतने शोरसरापे के बाद भी जनता तक न बुद्धिजीवियों की पहुंच है, न साहित्यकारों की न समाचार और विचार के सामाजिक माध्यमो की क्योंकि इनका सब कुछ पूर्वनिश्चित है। सभी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, उनके पास समाज को देने के लिए ऐसा कुछ नहीं है जिसका पूर्वानुमान बिना पढ़े या सुने ही समाज न लगा सकता हो! इससे एक बौद्धिक निर्वात पैदा होता है जिसे भरने वाली शक्तियां झुझावात पैदा कर सकती हैं, तबाही मचा सकती हैं, पर समाज और देश को आगे बढ़ाने या अपनी अधोगति से ऊपर नहीं ला सकती।

यह शून्य या निर्वात पैदा कैसे हुआ कि इससे विचार और संचार से जुड़े सभी माध्यम और उन माध्यमों में काम करने वाले इस हद तक प्रभावित क्यों हुए कि वे अपने को बहुत-कुछ समझते हुए न-कुछ में बदल गए और इसका उन्हें आभास तक नहीं! वे विदेशों में दर दर के भिखारी बने अपनी प्रतिष्ठा की तलाश कर रहे हैं जिनको वे तभी रास आएंगे जब कि वे उनके अपने उपयोग के लगें और अपने ही घर परिवार से, अपने ही समाज से वे निर्वासित हो चुके हैं। यह निर्वासन समाज ने नहीं दिया, इसका चुनाव उन्होंने स्वयं किया और इस पर गर्व करते रहे।

इस रहस्य को समझने के लिए, मैंने फेसबुक पर उसकी सामान्य प्रकृति से बाहर जा कर एक गवेषणात्मक चर्चा आरंभ की थी जिसमें असहमत लोगों को इस बात का आमंत्रण था कि वे, जहां मैं गलत लगूं, गलत सिद्ध करते हुए एक सही सोच के विकास में हमारी सहायता करें और वस्तुपरक मूल्यांकन का रास्ता जो अब तक अवरुद्ध था उसे मुक्त कर सकें।

मेरा यह सुविचारित और लंबे ऊहापोह के बाद, जो मेरी प्रकाशित कृतियों में भी देखी जा सकती है, लिया गया निर्णय यह था कि ऐसा समाज से अधिक राजनीति को प्रधानता देने और उसे राजनीति की समझ तक सीमित न रखकर राजनीतिक भागीदारी से जोड़ने और राजनीतिक भागीदारी के कारण इसके सत्ता प्राप्ति और सत्ता को बनाए रखने की उस गजालत में उतारने के कारण हुआ जिसके लिए कम्युनिस्ट पार्टियां उत्‍तरदायी हैं क्‍योंकि, साहित्य और कला के क्षेेत्र में ही नहीं शिक्षा और विचार के क्षेत्र में उसके हस्तक्षेप के कारण ऐसा हुआ और वही गिरावट के अन्य कारणों के साथ इस बौद्धिक निर्वात के लिए भी उत्तरदायी रहा है।

उसका एकाधिकार इतना प्रबल रहा है कि उससे असहमत होने का अर्थ था आत्महत्या। जिन लोगों ने सीधे विरोध तक मोल न लिया, कुछ दबे सहमे से अपना पक्ष रखते रहे, उन्हें उनके कद और कृतित्व का उपहास करते हुए गुमनाम नहीं तो बदनाम इतना किया गया कि वे साहित्य के इतिहास से बाहर कर दिए गए।

असंख्य गलतियों के जनक विचार सत्ता पर इस तरह हावी हो जायं कि कोई विरोध में उंगली उठाए तो उंगली कट जाए, विचार के दमन के बावजूद विचार की स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के भी एकाधिकारी बने रहे!

वह बचकानी जिद जो मुझे परिभाषित करती है, जो कहती है यदि साहस की कमी के कारण कोई दूसरा यह नहीं करता कि मुझे मिटा दिया जाएगा, उसे मरने को तैयार हो कर मैं करूंगा! समझ यह कि जो बचना चाहता है उसे मिटाया जा सकता है, जो मिटने की ठान कर कोई पहल करता है, वह मिटाया नहीं जा सकता।

परन्तु मेरा उद्देश्य किसी को मिटाना नहीं था, ऐसा व्यक्ति तो मिटने की ठानने से पहले ही मिट चुका होता है। उद्देश्य अपने बौद्धिक समुदाय को इस विषय में सचेत करना था कि इस सनक में हम पराधीनता के दिनों की तुलना में भी अकिंचन हो चुके हैं। अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए हमें अपनी समझ, अपनी नजर, अपने विवेक पर भरोसा करना होगा! दूसरों के उपयोग का सामान बनने की जगह, अपने को पुनर्जीवित करना होगा उस पूंजी से ही अपने सरोकारों और समस्याओं का सामना करना होगा।

मेरा विश्वास है कि समाज की विकृतियों के लिए उसके बु़द्धजीवी दोषी है और यदि समाज मे ऐसीं विकृतियां हैं जो उन्हें भी दिखाई देती हैं तो उन्हें आत्मालोचन करना चाहिए कि समाज की मनोरचना को प्रभावित करने के समस्त औजार उनके पास होते हुए भी समाज ऐसा क्यों बन गया। यहीं से अपनी चूक को समझना और उसमें सुधार संभव होता। यह प्रयत्न न कभी किया गया न इसके महत्व को समझा गया।

एक मात्र उपाय था कि लोग आवेश में बात करने से बचें और विरोध हो या समर्थन, जिसका भी करें, तर्क, प्रमाण और औचित्य का ध्यान रखते हुए करे तो इस अधोगति से बाहर निकलने का रास्ता मिल सकता है। कम से कम हमारे बौद्धिक विमर्श का स्तर तो उठेगा। मैंने इसके लिए उस पक्ष का समर्थन करते हुए अपना हस्तक्षेप आरंभ किया, जिस पर लगातार घृणित अभियोग और आरोप लगाए जाते रहे जो मेरी समझ से गलत थे इसलिए मैंने उसके पक्ष में खड़े हो कर उस जड़ता पर प्रहार करते हुए उसे उकसाया कि वह अपनी रक्षा के लिए यदि अपने तर्क, प्रमाण और साक्ष्य प्रस्तुत कर सकता हो तो करे। यदि वह सही लगा तो मैं उसके विचारों को मान लूंगा। यह अब तक पक्षधरता के कारण जीत और हार का प्रश्न बना था, अब यह औचित्य और सत्यसाक्षात्कार और उसके सम्मान का अनुरोध बन गया।

प्रश्न यह नहीं है कि बौद्धिक वर्ग राजनीति निरपेक्ष रहेगा, या राजनीति संलिप्त अपितु यह कि वह सियासत या व्यावहारिक राजनीति का हिस्सा बनेगा और सत्ता पर अधिकार करने वालों का अनुचर बनेगा या उनका मार्गदर्शक! उसकी राजनीति राजनीतिक समझ से पैदा होगी या किसी दल या संगठन की आकांक्षा से। हमारा हस्तक्षेप इसीलिए जरूरी हुआ!

यह एक खंडनवादी या पोलेमिकल सोच लग सकती है, जिसमें अपर पक्ष के दोषों को ही गिनाया जाता है उसके गुण और योगदान की अनदेखी कर दी जाती है। यदि हमारा लक्ष्य यही होता तो हमें इस व्यायाम की आवश्यकता न थी। हमारा लक्ष्य सचाई का सम्मान करना, उभयपक्ष के गुणदोष का विवेचन करते हुए सत्य की प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्नशील होना और इसमें अपने विरोधियों को भी सहभागी बनाना था इसलिए अपनी कथित पक्षधरता के बाद भी मैंने अपनी ओर से अपर पक्ष की, अपनी समझ में आने वाली, सर्वोत्तम आपत्तियों को स्थान देते हुए अपनी बात रखने और प्रतिवाद को आमन्त्रित करते हुए अपना विवेचन किया और शैली बतकही की अपनाई थी इसलिए इस प्रयोजन से अपनी मान्यता के विरोधी चरित्र की सृष्टि करनी पड़ी।

मेरे विचारों का प्रतिवाद नहीं हुआ या प्रभावशाली रूप में नहीं हुआ यह मेरे लिए सुखद बात नहीं है! दुखद यह है कि न तो दूसरों ने अपनी मान्यताओं में कोई लोच दिखाई, न समझ से काम लेते हुए तार्किक प्रतिवाद किया और न आंखें बचाते हुए जुमलेबाजी करने की अधोगति से ऊपर उठ सके। अपने प्रयास की विफलता किसी को सन्तोष नहीं दे सकता, मुझे तो कदापि नहीं!

इन लेखों में जिनके लिए मैंने पोस्ट का प्रयोग किया है कुछ भी सही नहीं है, परन्तु कुछ भी ऐसा नहीं है कि जो प्रमाण, साक्ष्य या औचित्य से शून्य हो, इसलिए वह तब तक अकाट्य है जब तक उसका खंडन करने वाले विचार, तथ्य या साक्ष्य नहीं आ जाते। यह उनका काम है जो मुझसे असहमत होते हुए भी चुप्पी साधे रहते हैं या सलीके से अपना विरोध प्रकट नहीं कर पाते!

शैली बतकही की है तो विषय का कोई प्रतिबन्ध नहीं ! कोई सुनियोजित पूर्वयोजना नहीं ! बात से बात निकलती है, अधूरी रह गई तो अगले दिन उस पर चर्चा होगी। इसलिए कुछ लेख यदि अधिक गंभीर और गहनविमर्श से जुड़े प्रतीत होंगे तो कुछ निहायत अनुभववादी और पहली नजर में सतही, परन्तु यदि उनके प्रेरक तथ्य को समझने का प्रयत्न करें तो पाएंगे वे किसी अधिक गंभीर समस्या के साक्षात्कार से जुड़े हैं और उसके विविध आयामों और संभावनाओं की पड़ताल कर रहे हैं! एक उजड़े हुए पार्क को अकेले दम पर सरसब्ज बनाने के अभियान के क्रम में हुए अनुभवों का विवरण सच कहें तो संचार की उस समस्या से जुड़े हैं जिनको अपनी मेज पर बैठे हम हवाई ढंग से समझना चाहते हैं और इसलिए अपने ही समाज के भीतर अपनी पहुंच बना नहीं पाते। यह प्रयत्न सही है या गलत, उचित या अनुचित यह हमारे लिए विचारणीय नहीं है। विचारणीय केवल यह है कि अपनी बात पूरे सरोकार से उस व्यक्ति के मन में भी उतारी जा सकती है या नहीं जो पहले से ही उससे बिलग होने के लिए कृतसंकल्प है।

कोई विषय किन्हीं पक्षों से पूरी तरह विचारणीय हाने के बाद भी समाप्त नहीं होता जो बतकही में हुआ करता है। कभी कोई प्रश्न दुबारा उठ सकता है, इसलिए निर्णायक बात यह नहीं कि उसमें कितनी बार किन प्रश्नों को उठाया गया है अपितु यह कि उसमें अपनी मेधा और अन्तदृर्ष्टि के अनुरूप पहल की गई है या नहीं!

किसी विशेष अपेक्षा से इसे पढ़ने वालों को इसमें आए विवेचन संभ्रमित कर सकते हैं। इस पक्ष को समझ लेने के बाद उनकी सोच बदल सकती है! और बदल सकती है मेरे उन मित्रों की प्रतिक्रिया, प्रस्तुति और सोच जिससे हम आलोचना-प्रत्यालोचना करते हुए अपनी सोच और विवेचन का स्तर सुधारते हुए उस शून्य को नई पहल में बदल सकें! अस्तु !