Post – 2016-12-14

बता तेरी रजा क्‍या है
”अन्‍याय का विरोध्‍ा करने वाले, तब तक उसका विरोध करते हैं जब तक वह समाप्‍त नहीं होता। कुछ लोगों को वह दिखाई देता है, कुछ को नहीं। अन्‍याय का विरोध करने वालों का कोई अलग पेशा नहीं बना है कि जब भी अन्‍याय होगा, वे सामने आएंगे, उसका विरोध करेंगे और दूसरे लोग अपना काम करेंगे पर अन्‍याय सहते रहेंगे । यह मोटी समझ है जो तुममे नहीं है इसलिए तुमको यह बुरा लगता है कि बुद्धिजीवी सोचने विचारने का अपना काम छोड़ कर अन्‍याय का विरोध करने का ‘फालतू काम क्‍यों करने लगे। बुद्धिजीवी का काम समाज को सही दिशा में ले जाना है। उसका लेखन भी इसी के लिए समर्पित होता है, उसका सामान्‍य आचार भी उसी को समर्पित होना चाहिए। इन दोनों में फांक नही होनी चाहिए।”
असहमत होने का कोई कारण न था। मैंने कहा, ”तुम ठीक कहते हो, बस एक छोटी सी चूक है । पहली बात तो यह कि तुम चिन्‍तन और लेखन को काम नहीं मानते हो, लोगों की चेतना को आन्‍दोलित करने, उनको सोचने और कुछ करने को प्रेरित करने को महत्‍व नहीं देते। लेखक भीड़ का हिस्‍सा बन कर अपना काम ठीक से पूरा कर सकता है। अपने लेखन द्वारा विरोध करके या अपनी उपस्थिति द्वारा विरोध प्रकट करके । मैं समझता हूं कि वह अपनी योग्‍यता और विशेषज्ञता के क्षेत्र में रह कर वह अपना काम अधिक प्रभावशाली ढंग से कर सकता है।
”एक दूसरा प्रश्‍न जिससे तुम बचते हो, वह है, बुद्धिजीवी अपने पिछले कृत्यों के परिणामों की जिम्‍मेदारी लेने से बच नहीें सकता। वह समाज किसने बनाया था और कैसे बनाया था जिसमें समस्‍त मर्यादायें टूट गई और आज भी वह उन मर्यादाओं को तोड़ने वालों के साथ क्‍यों खड़ा दिखाई देता है, इसका जवाब उसे देना चाहिए।
”मैंने कहा, मैं प्रकृति से आन्‍दोलनकारी हूं और विशेषज्ञता की दृष्टि से इतिहासकार । ऐसी खुशफहमी का शिकार इतिहासकार जो यह मानता है कि इतिहास और इतिहासकार की भूमिका को उससे पहले किसी ने समझा नहीं या समझा तो उसे अपने इतिहासलेखन में उतारा नहीं। इसलिए मैं व्‍यक्तियों पर नहीं, किसी ऐतिहासिक क्षण में उपलब्‍ध विकल्‍पों की बात करता हूं और व्‍यक्ति का तभी समर्थन करता हूं जब वह उनमें सर्वोत्‍तम विकल्‍प के साथ खड़ा दिखाई देता है। यदि कोई व्‍यक्ति अनर्थकारी विकल्‍पों के लिए अवसर की तलाश कर रहा हो तो मैं उसे बुद्धिजीवी नहीं मान सकता।”
वह अपने को संभाल नहीं पाया, ”तुम बकवास कर रहे हो । तुम उस आदमी के वकील हो जिसके कारण पूरा देश आज ऐसी स्थिति में पहुंच चुका है जिसमें लोग अपना पैसा जिन बैंकों के हवाले करके सुरक्षित अनुभव कर रहे थे, उनसे अपना पैसा नहीं निकाल पा रहे हैं। यदि उन्‍होंने उन बैंको पर भरोसा न करके वह पैसा अपने पास रखा होता तो जमाखोर करार दे दिए जाते और पकड़ में आते तो उनके विरुद्ध कार्रवाई भी की जा सकती थी। हमारा पैसा है, हम उसे जिस रूप में सुरक्षित समझें रखें, इसमें सरकार बीच में कहां से आ जाती है । और देखो, रिजर्वबैंक के पिछले गवर्नर ने जो भाजपा सरकार के दौर में ही काम कर रहे थे, उन्‍होंने भी प्रश्‍न उठा दिया कि इसकी जरूरत तो युद्ध आदि की दशा में ही होता है, इसकी जरूरत क्‍या आन पड़ी। छोड़ो राजन की बात जिन्‍हें हो सकता है ऐसे प्रस्‍तावों से असहमति के कारण ही हटाया गया हो, परन्‍तु यह तो एक तटस्‍थ और अधिकारी व्‍यक्ति का बयान है । इसके परिणाम अनिष्‍टकर होने वाले हैं, इसे भी तुम मानने से इन्‍कार करते हो, जब कि हम लोग इसको पहले दिन से ही समझते और कहते आए हैं और तुम उसे नकार कर हमारी आलोचना और इस राष्‍ट्रीय आपदा का समर्थन करते रहे हो और अपने को बुद्धिजीवी भी मानते हो।”
”देखो, मैं उस कष्‍ट को जानता हूं जिससे लोग गुजर रहे हैं। मेरे बाएं बाजू जो हापुड़ लिंक रोड है, उस पर एक दर्जन ठेले वाले सब्‍जी, फल आदि के रेढे लिए खड़े रहते थे और लोग उधर से गुजरते हुए रुक कर उनसे साग, फल आदि खरीदते थे। नोटबन्‍दी के बाद से वे नहीं दिखाई देते। ऐसे दसियों हजार रेढ़े वालों की यही गति हुई होगी। चार दिन पहले मुझे इस बात से राहत अनुभव हुई थी कि स्‍टेटबैक के सामने बीस तीस लोगों की लाइन लगी थी और पंजाब नेशनल बैंक के सामने दस बारह पर आज यह संख्‍या बढ़ कर अस्‍सी और सौ तक पहुंच गई यह मैंने गिन कर देखा। मैंने पांच दिन पहले एक चेक जमा किया, जानना चाहा कि वह आनर हुआ या नहीं, पता चला सात आठ दिन बाद पता चलेगा। बैंकों के सामान्‍य काम काज पर भी जिसका रोकड़े से संबंध नहीं है, कैशलेस लेनदेन से है, वह भी सलीके से नहीं चल रहा है। दूर देहात में जहां दूसरी समस्‍याओं के अतिरिक्‍त बिजली तक नहीं पहुंच पाती उसमें कैशलेस लेनदेन का खयाल शेखचिल्ली की याद दिलाता है। शहरों मे एटीएम काम न करें, पर खरीद बिक्री में क्रेडिट और डेबिट कार्डो का उपयोग बढ़ा है, परन्‍तु उसके खतरे भी हैं और उनकी एक सीमा है। मैं इन सभी सचाइयों को जानता हूं और यह भी अनुभव करता हूं कि मैं जिसका काम लिखना है वह लिखते समय भी जो लिखना चाहता है वह लिखने से रह जाता है, वह दूसरे क्षेत्र की समस्‍याओं से उत्‍पन्‍न असुविधाओं को समझ तो सकता है पर उनका समाधान नहीं दे सकता।”
‘यह तुम कह रहे हो जो यह मांग करता है कि समाज में जो कुछ हुआ उसकी जिम्‍मेदारी बुद्धिजीवी को अपने ऊपर लेना चाहिए । कमाल है । अपने लिए हमेशा एक चोर दरवाजा तलाश लेते हो यार ।”
”तुम मुझे समझने में चूक करते हो । मैं परिणाम से किसी निर्णय या कार्य के औचित्‍य का मूल्‍यांकन नहीं करताा। मैं देखता हूं कि जिस समय किसी ने कोई निर्णय लिया उस समय उसने अपनी सर्वोत्‍तम मेधा का उपयोग करने का समय था तो किया या नहीं। मैं नीयत आैर निर्णय करने वाले की योग्‍यता के आधार पर मूल्‍यांकन करना चाहता हूं और कामना करता हूं कि यदि नीयत ठीक थी तो उसके परिणाम भी स्‍वस्तिकर निकलें और लोगों के कष्‍ट का निवारण हो और जिस लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने के लिए उसने वह आयोजन किया गया था वह सफल हो।
”तुम इसके विपरीत न केवल परिणाम से किसी निर्णय का मूल्‍यांकन करते हो, अपितु यह चाहते हो कि नीयत भले अच्‍छी रही हो, यह विफल हो, लोगों का कष्‍ट और बढ़े और बढ़ते बढ़ते उस विस्‍फोट बिन्‍दु तक पहुंच जाये कि यह पूरा आयोजन ही विफल हो जाय और पुरानी स्थिति लौट आए जो तुम्‍हारी परिभाषा के अनुसार तुम्‍हारे अच्‍छे दिनो की वापसी है। तुम देश और समाज केे अनिष्‍ट की कामना करते हुए अपनी इच्‍छापूर्ति चाहते हो और उसके लिए अनुकूल पड़ने वाले तिनके चुन कर अपने को समझदार और सही सिद्ध करना चाहते हो ।
”मैं रिजर्वबैंक के भूतपूर्व और एनडीए काल के गवर्नर की योग्‍यता, निर्णय और आशंका पर टिप्‍पणी करने की योग्‍यता नहीं रखता, परन्‍तु उनके ही दो विचारों के सन्‍दर्भ में उनकेे कथन की अन्‍त:संगति और औचित्‍य का मूल्‍यांकन करना चाहूंगा। पहला यह कि वह कहते हैं कि ऐसा युद्ध की स्थिति में ही किया जा सकता था, पर वह युद्ध काे सामरिक और सशस्‍त्र युद्ध तक सीमित रखना चाहते हैं जब कि एक अर्थशास्‍त्री होने के नाते उन्‍हें लोकतन्‍त्र को पैसों का खेल बना कर पूरे देश के लिए अनिष्‍टकर बना कर लोकतन्‍त्र की हत्‍या करने वालों के विरुद्ध युद्ध को भी अधिक अपरिहार्य युद्ध मानना चाहिए था। और दूसरा उनका यह सुझाव कि इसकी सूचना पहले ही दे दी जानी चाहिए थी जिसका प्रकारान्‍तर से अर्थ है कालेेधन का पहाड़ खड़ा करने वालों को उसे सफेद करने का कुछ समय मिलना चाहिए था। जहां समय नहीं दिया गया वहां भी जिन्‍होंने बैंकों और यहां तक कि रिजर्वबैंक तक में सेंध लगा कर वह सारा धन अपने झोले में भर लिया जो यदि अपने सहज भाव से जनता तक पहुंचता तो न उतनी लंबी कतारें लगतीं न नकदी का वह संकट आता। ”
”पांच सौ और हजार के नोट बंद करके दो हजार के नोट जारी करने की नासमझी के बाद भी। जहालत की हद है यार । वे नोट जिनके हाथ में आए वे भी उनका इस्‍तेमाल नहीं कर सकते थे यह तुम्‍हें दिखाई नहीं देता और ऊपर से तुर्रा यह कि यह नोट भी कुछ समय बाद खत्‍म हो जाएगा और सबसे बड़ा नोट पांच सौ का ही रह जाएगा। है कोई जवाब इस समझदारी का ।”
”समझदारी तो थी और इसे समझने की योग्‍यता भी तुममे है, पर समझ से काम न लोगे क्‍योंकि तुम उच्‍चाटन के शिकार हो। मैं स्‍वयं नहीं जानता कि सरकार ने क्‍या सोच कर यह किया, पर उसका वकील होने के नाते यह बताना चाहूंगा कि जिस परिमाण में हजार और पांच सौ के नोटों की वापसी होेनी थी, उसके सममूल्‍य नोट जारी करने के लिए उच्‍चतर और भिन्‍न मूल्‍यक्रम के नोट की जरूरत थी अन्‍यथा यह मांग पूरी नहीं की जा सकती थी।
”उसकी अगली सोच यह थी कि देर या सवेर सबसे उच्‍च मूल्‍यक्रम के नोट जमाखोरों काे ही रास आते हैं और ये लौट कर वहीं पहुंचेगे।
”इन नोटों का रंग ऐसा रखा गया था जो उड़ता है यह सौ के नोट और दो हजार के नोटों कों घिस कर मीडिया में भी दिखाया गया था और बताया गया था कि पांच साल के बाद यह रंग उड़ कर वह नोट कोरा कागज रह जाएगा। इसलिए इससे पहले ही जमाखोरों को इसे बैंक में जमा कराना होगा और यह धनराशि जो निष्क्रिय पड़ी रहती थी वह चलन में भी आ जाएगी और इस पर उन्‍हें कर और दंड भी देना होगा ।
उसी योजना का अंग था कि केवल छोटी राशि के ही नोट चलन में रहें तो जमाखोरी पर कुछ अंकुश लग सकता है और यह लक्ष्‍य पांच सौ से ऊपर के नोटों की बन्‍दी से और दस बीस पचास के नोटों को बढ़ावा दे कर पूरा किया जा सकता है। यदि इस दृष्टि से देखो तो समझ में आएगा कि यह बहुत दूर की सोच कर लंबी तैयारी के बाद उठाया गया कदम था, परन्‍तु इस बात का अनुमान तक नहीं किया गया था कि बाड़ ही खेत खाने लग जाएगा। बैकर ही कालाबाजारियों से मिल कर जनता के लिए संकट पैदा कर देंगे।”
वह हंसने लगा, ”तुम अब भी नहीं मानोगे कि यह फैसला गलत था।”
”परिणाम से फैसलों की गुणवत्‍ता की जांच नहीं होती। कानून बनाने वाले अपराधियों से सदा पीछे रहे हैं और उनका पीछा करते रहे हैं, अन्‍यथा अपराध कभी का समाप्‍त हो गया होता। इस अभियान ने एक महामंथन का काम किया जिसमें अपराधियों के अदृश्‍य कोने स्‍वत: उजागर हो गए हैं और यदि यह प्रयोग सफल हुआ तो यह उस विराट स्‍वच्‍छता अभियान का सबसे उज्‍जवल पक्ष होगा जिसका अनुमान करना भी इससे पहले कठिन था।”
”उस स्‍वच्‍छता अभियान में कहीं मेरा भी सफाया न कर देना यार । तुमसे बहस करना ही बेकार है ।” वह उठ कर चलने को हुआ ।
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