Post – 2016-12-13

हम भी मुंह में जबान रखते हैं

”तुम स्‍वयं मानते हो, हर एक आदमी काे अपनी नजर मिली है, अपना दिमाग मिला है, उसे उसी से काम लेना है, फिर हर एक आदमी अपनी बात अपने ढंग से कहेगा, कोई सूक्तियां दुहराता हुआ, कोई मुहावरों की याद दिलाता हुआ और किसी को लगा कि इसने तो मेरे दिल की बात कह दी तो उसके विचारों को साझा करता हुआ, फिर तुम्‍हें इस पर आपत्ति क्‍यों है। तुम जिस तरह से चाहो या सुझाओ उसी तरह क्‍यों कहेगा कोई, यह तो तुम स्‍वयं मानते हो, एक तरह की गुलामी है।”
”दूसरे के विचार हों, या किसी युग की सूक्ति हो, या कोई मुहावरा, ये सभी लीकें हैं। तुम्‍हारे विचार जो अपनी परिस्थितियों में पैदा होते हैं या होने चाहिए, वे ठीक वे ही नहींं हो सकते जो किसी अन्‍य कथन में, कविता या मुहावरे में व्‍यक्‍त किया गया है, परन्‍तु अधिकांश मामलों में कुछ निकटता देख कर हम आलस्‍यवश उस लीक में ढल जाते हैं । आगे का रास्‍ता आसान हो जाता है। लीक से परिचित लोगों के लिए उसके संचार में सुगमता आ जाती है। हम कहें, यह उस आलस्‍य का परिणाम होता है जिसमें तुम निष्क्रिय हो कर एक लीक में ढल या बहाव में बह जाते हो और उसे अपने पर आरोपित करके उस जैसा आचरण करने लगते हो जो तुम्‍हें, यदि तुम सतर्क होते तो, अपनी परिस्थितियों में नहीं करना चाहिए था। इस सूक्ष्‍म अन्‍तर को समझना और अपनी बात को अपने ढंग से कहना, अपनी सीमा में रह कर कहना, तुम्‍हें वह बनाता है जो तुम होने का दावा करते है, सर्जक या चिन्‍तक या तत्‍वद्रष्‍टा। ये सभी दूसरों का नारा, दूसरों के विचार और दूसरों क कार्यभार ले कर अपना काम नहीं करते। वे अपनी लिखी इबारतों तक को नहीं दुहराते, प्रत्‍येक रचना पहले से अलग होती है, प्रत्‍येक विचार एक नई शुरुआत होता है, प्रत्‍येक विवेचन एक नए धुंधलकेे को चीरता और आलोक में बदलता दिखाई देता है, फिर यह कैसे हो सकता है कि इतने सारे लोग अपने को सर्जक भी मानते हो, और दो साल से एक ही बात को दुहरा रहे हों, अपना काम छोड़ कर दूसरों का काम कर रहे हों और अपना आपा खो कर भी उसकी कीमत वसूल कर रहे हों।”

”रुको, रुको । कीमत वसूल कर रहे हैं, यह आरोप तुम्‍हारा गलत है। कीमत कौन देने वाला है उन्‍हें। उन्‍होंने अपने सिद्धान्‍त के लिए गंवाया तो बहुत कुछ है, अपना पुरस्‍कार और सम्‍मान तक, परन्‍तु वसूल कुछ नहीं किया है। यदि नमक अदा किया है और कर रहे हैं, कहते तो मैं तुम्‍हारे साथ सहमत हो जाता, या कम से कम चुप लगा जाता। कीमत वसूल करने का अभियोग तो मैं तुम पर भी नहीं लगा सकता पर यह अभियोग तो लगा ही सकता हूं कि तुम कीमत वसूल करने की जुगत बैठा रहे हो, वर्ना भाजपा का और उसमें भी मोदी का समर्थन तो नहीं करते । पहले अपने गिरेबान में झांक कर देखो । और सुनो, तुम अपने लिखे को दुहराने वाले को सर्जक, चिन्‍तक, क्रान्‍तदर्शी नहीं मानते और तुमने स्‍वयं अपनी कई बातों को दुहराया है और कहा है, इसे आगे भी दुहरा सकता हूं।”

”तुमने ठीक कहा, मैं सर्जक नहीं हूं । 1970 से पहले था। तुमकाे अभी कुछ ही दिन पहले अपनी उस कविता की और प्रतिज्ञा की याद दिलाई थी जिसमें मैंने कहा था, ‘मैं आज खड़ा होता हूं अपने ही विरुद्ध एक महासमर में । मैं नहीं जानता सर्जक या आन्‍दोलनकारी में कौन किससे छोटा या बड़ा है, परन्‍तु मैं जिस औपनिवेशिक मानसिकता के विरुद्ध संघर्ष कर रहा हूं, दासता से मुक्ति के जिस अभियान से जुडा हूं, उसमें एक ही बात को कितने रूपों में दुहराता आया हूं इसे देखो तो चकित रह जाओगे, यदि चकित होने की संवेद्यता अभी तक बची रह गई हो तो । मेरे भाषा विज्ञान, स्‍थान नामों का अध्‍ययन, उपन्‍यास, उपनिषद की कहानियां और पंचतन्‍त्र की कहानियां, इतिहास और संस्‍कृति के लेखन में इस एक ही बात को इतने रूपों में दुहराया गया है कि इसे चाहो तो लेखन कहो, चाहो तो एक महारास, या जैसा मैं कहता हूं, एक लेखक की भूमिका, विशेषकर एक इतिहासकार की भूमिका, जो या तो एक शिक्षक की होती है या एक चिकित्‍सक की, उसे मनोचिकित्‍सक से ले कर काय चिकित्‍सक तक कही भी रखो। ये सभी हर बार कुछ नया नहीं करते हैं। शिक्षक जब तक अपने छात्रों की समझ में न आ जाय उसी पाठ को अलग-अलग तरीकों से समझाता और अपने को दुहराता रहता है। चिकित्‍सक न रोगनिदान में मौलिक होना चाहता है, न उपचार में हर बार कुछ नया प्रयोग करता है । वह एक ही ओषधि को तब तक दुहराता, उसकी खूराक बदलता, उसके पूरक घटक बदलता उसी को जारी रखता है जब तक उसका लाभ दिखाई देता है। उसका लक्ष्‍य रोगी का उपचार और आरोग्‍य है न कि अपने चिकित्‍सा ज्ञान का आतंक कायम करते हुए उसकी दशा को और भी खराब कर देना, जो चिकित्‍सा व्‍यवसायी करते हैं।”

”तुम बहाने बहुत अच्‍छे बना लेते हो यार । पकड़ने चलें तो मलगे की तरह सरक कर बाहर । अपनी पुनरावृत्ति शिक्षा और चिकित्‍सा और दूसरों की सर्जनात्‍मकता, चिन्‍तन और दूरदर्शिता का अभाव ।”

”तुमने यदि मेरे लिखे को इतने ध्‍यान से देखा है, कहे को इतने ध्‍यान से सुना है तो तुमको यह भी याद होगा कि मैं ख्‍याति और पद को तुच्‍छ मानता हूं। एक आन्‍दोलनकारी के रूप में मैं यह देखना चाहता हूं कि मैने जो लिखा या कहा वह कितना सार्थक है और उससे कितने लोगों की सोच में बदलाव आया। मैं सबसे अधिक गौरवान्वित तब अनुभव करता हूं जब मेरा कोई पाठक यह कहता है कि मेरे लिखे से उसके सोचने के तरीके में बदलाव आया है। ऐसा लेखक मैं अकेला होता तो बहुत गर्व अनुभव करता, परन्‍तु सुनते हैं मुझसे पहले रामविलास शर्मा भी हो चुके हैं। तीसरा कोई दीखे तो मुझे सूचित करना।”

”तुम्‍हें सेल्‍समैन होना चाहिए था। खोटे को भी किस तरह बेच लेते हो कि खरीदने वाला खोट को विशेषता समझने लगता है। दाद देता हूं तुम्‍हारी इस कला की। मौका देखते ही मुुहावरे बदल देते हो । वह क्‍या कहा था तुमने, ”मैं तोड़ूगा कुछ नहीं, सिर्फ परिभाषाएं बदल दूंगा” अौर मौका देख कर, परिभाषाएं बदल कर झूठ को सच, सच को झूठ, अच्‍छे को बुरा और बुरे काे अच्‍छा साबित कर लेते हो।”

”मैं परिभाषाएं बदलता नहीं, सुधारता हूं इसलिए यह मौके के अनुसार रंग नहीं बदलतीं। मैें प्रशंसा को अवांछित और अपने लिखे या कहे से अपने पाठकों और श्रोताओं की चेतना में आए परिवर्तन काे कितना महत्‍व देता हूं इसके लिए मैं आज फिर तुम्‍हें अपनी 10 सितम्‍बर की एक पुरानी पोस्‍ट की कुछ पंक्तियां याद दिलाना चाहूंगा:
”मुझे भी दूसरों की तरह यह सुन कर अच्छा लगता है कि लोगों को मेरा लिखा पसन्द आता है। उर्दू मुशायरों में तो जितना समय लोग शेर पढ़ने पर लगाते हैं उससे अधिक समय घूम घूम कर ‘आदाब, आदाब, आदाब’ कहने में लगाते हैं और तारीफ नहीं हुई तो ”गौर फरमाइये जनाब” कहते हुए अपने मानीखेज शेर को दो तीन बार पढ़ते हैं और तारीफ हो गई तो आदाब बजाने के बाद थोड़ी साँस ले कर वही शेर फिर पढते हैं। पर मेरी जरूरत इससे पूरी नहीं होती।
”मैंने फेसबुक पर लिखने का यह फैसला हमारे बौद्धिक पर्यावरण में आई उस गिरावट से अपने को और अपने मित्रों को बाहर निकालने के लिए किया जो शोर तो मचाते हैं, पर कुछ कह नहीं पाते। वह शोर की जिसकी पहुँच शोर मचाने वालों तक है और वे ही एक दूसरे को दाद दे कर शोर को सराबा तक पहुँचा देते हैं और अपनी ही व्यतर्थताबोध से बोलने और लिखने के क्षणों में भी अप्रासंगकि सा महसूस करते हैं।”

”यह तुम्‍हारी समझ हुई । समझ के भी कई रूप हैं जिनमें किसी के अनुसार तुम भी व्‍यर्थताबोध से त्रस्‍त दिखाए जा सकते हो।”

”मुझे उसका पता है । मैने सोचा था मैं कुरेदूंगा, जिन्‍हें वे लगातार कोसते और गालियां देते आए हैं, उनका पक्ष ले कर अपनी बात कहूंगा तो वे कम से कम उन आरोपों का तो जवाब देंगे जो मैं उन पर प्रमाण सहित लगाता हूं। उन्‍होंने ऐसा नहीं किया। उन्‍होंने अपने तर्क और प्रमाण और विश्‍लेषण को भी दरकिनार कर दिया। कितने दिनों से कितने सारे लोग किस तेवर से कितनी सतही, फिकरेबाजी के स्‍तर की बातें लगातार कर रहे हैं, इससे उनके चिन्‍तन और सर्जना को क्षति पहुंच रही है या लाभ हो रहा है इसका तो ध्‍यान होना चाहिए । नहीं है। यदि विद्रोही तेवर वाले इन लेखकों की उनके ही पहले के लेखन के परिमाण और गुणवत्‍ता की तुलना उनके इस पूरे दौर के लेखन से करें और यह जानना चाहे कि उसमें ह्रास हुआ है या उत्‍थान तो इसके लिए एक सर्वेक्षण की आवश्‍यकता होगी, परन्‍तु पहली नजर में निराशा ही हाथ लगती है, क्‍योंकि वे अपना काम करना छोड़ कर दूसरों का काम कर रहे हैं जहां तर्क, विवेक, औचित्‍य और सत्‍यनिष्‍ठा के लिए कोई स्‍थान नहीं, सफलता या विफलता ही अन्तिम कसौटी है और उसमें भी सफलता हाथ लगती नहीं दिखाई देती। इसे सर्वनाश की स्थिति कहना होगा और यह सब मेरे प्रयत्‍न के बाद भी। व्‍यर्थताबोध तो होगा ही। घर तो यह अपना ही है, उजड़ते देखना किसी के लिए सुखद नहीं हो सकता ।