Post – 2016-12-13

वह पन्‍ना सामने है पर पढ़े भी पढ़ नहीं पाते

”तुम्‍हारा लोहिया ने क्‍या बिगाड़ा था यार । अकेला तो ऐसा विचारक जो हमारे तेजस्‍वी साहित्‍यकारों की आस्‍था का केन्‍द्र रहा है, साही से सहाय तक, अशोक से कमलेश तक, तुमने उनको भी ठिकाने लगा दिया। चलो, हमारे दल सेे नाराजी समझ में आती है, पर वह तो तुम्‍हारे हिन्‍दू मूल्‍यों, पौराणिक चरित्रों, नदियों और तीर्थों का भी आदर करते थे । तुमने उनको भी नहीं छोड़ा ।”

”उनमें और तुम लोगों में अन्‍तर है । तुम लोगों की नीयत में खोट थी । तुम्‍हारा लक्ष्‍य था सत्‍ता पर कब्‍जा करना और फिर उसके बाद अपनी मनमानी करना । तुम कभी न अपने देश के हुए, न अपनी भाषा के, न अपने समाज के, न अपनी अन्‍तरात्‍मा के जो होती कहां है इसका तुम्‍हें पता ही नहीं । तुम लोगों ने बिगड़े सांड़ की तरह भारतीय राजनीति में प्रवेश किया और जब तक बस चला ऊधम मचाते रहे। सींग टूट गए, जख्‍म पर मक्खियां भिनभिना रही हैं पर आज भी आदत से बाज नहीं आते । नेहरू की नीयत में भी कुछ खोट थी । पर समाजवादियों की नीयत में खोट न थी । किसी के बारे में यह नहीं कह सकते न आचार्य नरेन्‍द्रदेव के बारे में, न लोहिया के बारे में, न जयप्रकाश के बारे में, न बेनीपुरी के बारे में । ये अन्दर बाहर एक थे । पर इतिहास में गलतियां तो लगातार होती आई हैं, अपने व्‍यक्तिगत जीवन में हम बार-बार सोचने विचारने और पिछले अनुभवों से सीखने के बाद भी गलतियां करते हैं । इतिहास वह पन्‍ना है जिसकी लिखावट साफ दिखती है पर पढ़ी नहीं जाती या इसके प्रत्‍येक पदबंध के अनेक अर्थ निकलते हैं और हम सही पाठ करने में अक्‍सर चूक जाते हैं । हमारा पूरा स्‍वतन्‍त्रता आन्‍दोलन ऐसे लोगों से भरा रहा है जिन्‍हें रियायतों और अधिकारों और अन्‍तत: सत्‍ता की कामना तो थी, परन्‍तु भारत के भविष्‍य का किसी के पास कोई खाका नहीं था सिवाय एक व्‍यक्ति के जिसका नाम गांधी था और उसी की इस देश में नहीं चली। उसे सत्‍ता नहीं चाहिए थी, पर अपने स्‍वप्‍न को साकार करने के लिए सहयोग चाहिए था। वह न मिला । अकेला वह एक ऐसा भारत बनाना चाहता था जिसमें लोग धार्मिक तो हों, पर संप्रदाय द्वेषी नहीं, जाे सबको अक्षर ज्ञान के साथ कुशल भी बनाना चाहता था, छोटा ही सही पर सबको काम करने और अपनी पेशीय शक्ति का उपयोग करने का पक्षधर था। जो बच्‍चों काे ही नहीं प्रौढ़ों को भी साक्षर बनाना चाहता था। जो गन्‍दगी, बुरी आदतों को छोड़ने, स्‍वस्‍थ जीवन जीने और प्राकृतिक चिकित्‍सा के माध्‍यम से बीमारियों से मुक्‍त होने की शिक्षा ही नहीं दे रहा था एक गिरे हुए समाज को स्‍वतन्‍त्रता का अधिकारी और उसकी चेतना से संपन्‍न बना कर ताड़ से गिरी सत्‍ता को खजूर पर रोक कर कुछ लोगों के लिए समृद्धि का मार्ग खोलने की जगह जमीन से, सबसे पिछड़े व्‍यक्ति के उदय के साथ पूरे देश के उन्‍नयन का सपना देखता था और मार्क्‍स से बहुत आगे के समाज को संभव बनाना चाहता था। उसे जिनसे सहयोग मिलना चाहिए था वे एक दूसरे भारत की कल्‍पना कर रहे थे जिसमें वे एक झटके में पश्चिम की बराबरी पर आने को उतावले थे । उसकी नकल करो और वैसे बन जाओ । जिन्‍हें यह तक दिखाई नहीं देता था कि पश्चिम को अपनी आज की स्थिति में आने के लिए कितने देशों के संसाधनों को लूटना, कितनों को बेकार और अपंग बना कर वह आर्थिक आधार तैयार करना पड़ा है। उनका रास्‍ता हमारा रास्‍ता नहीं हो सकता।

”हम उन्‍हें दोष नहीं दे रहे । विश्‍व इतिहास एेसे निर्णयों और कामचलाऊ उपायों का दस्‍तावेज है जिसमें अनेक बार तो बहुत बड़े फैसले करने पड़े हैं और उन पर सोचने तक का समय नहीं मिला है । किसी न किसी युक्ति से सत्‍ता पर कब्‍जा करके जमे रहने का ही परिणाम था जिसमें गरीबों की गरीबी बढ़ती जा रही थी और कुछ लोग अनुपात से अधिक अमीर होते जा रहे थे, यह लोहिया को खिन्‍न करता था। वह अकेले नेता थे जो गरीबी रेखा के नीचे जीने वालों की दयनीय दैनिक आय का मुद्दा उठा कर इस प्रवृत्ति को बदलने की आवाज उठाते और सरकार को कठघरे में खड़ा करते थे। समाज को जातियों, धर्मों में बांट कर उन सबका एकमात्र संरक्षक बनने का ढोग करते हुए उन प्रवृत्तियों का बढ़ना लोहिया को खिन्‍न करता था और इसे वह ब्राह्मणवादी चालबाजी से जोड़ कर देखते थे और इसी का जो समाधान उन्‍हें उस समय सूझा उसके लिए उन्‍होंने कुछ प्रयास किया। भारत का विकास भारतीय भाषाओं में शिक्षा और इनमें ही सारा कामकाज होने से जुड़ा है, इसकी चेतना और इसके लिए आन्‍दोलन करने वाले वह अकेले व्‍यक्ति थे और राज्‍यों में उन राज्‍यों की भाषा में काम काज उनके ही अभियान का परिणाम था जिससे नेहरू लगातार कतराते और अंगेजी को शिक्षा और प्रशासन की भाषा बनाये रखना चाहते थे। नेहरू अपना वंशराज्‍य स्‍थापित करने के लिए अपने ही दल में अपने किसी उत्‍तराधिकारी को पनपने नहीं दे रहे थे इस कटु सचाई को लक्ष्‍य करने वाले लोहिया पहले नेता थे जो रह रह कर ‘नेहरू के बाद कौन’ का सवाल उठाया करते थे। नेहरू की सबसे बड़ी दुर्बलता थी पूंजीपतियों के सामने खम खाने की जिसे लक्ष्‍य करने वाले कम लोग थे। यह दुर्बलता सुनते हैं नैपोलियन में भी थी। वह संजय गांधी को प्रशिक्षित करने के बाद छोटी काराें का कारोबार आरंभ करते हुए उन्‍हें उद्योगपति बनाना चाहते थे, इसलिए छोटी कारों का प्रस्‍ताव लगातार टलता रहा था। इस पेंच को समझने वाले और इसे संसद में उठाने वाले लोहिया अकेले नेता थे । सत्‍ता कांग्रेस के पास थी इसलिए आलोचना उसी की होनी थी, परन्‍तु इसे गलत दिशा देते हुए लोहिया के नेहरू द्वेष के रूप में प्रस्‍तुत किया जाता था । लोहिया मानते थे कि समाज निर्माण में बुद्धिजीवियों की सबसे सार्थक भूमिका होती है इसलिए अपने समय के नवोदित बुद्धिजीवियों से उनका जीवन्‍त संबन्‍ध था और इसी कारण अनेक प्रातिभ साहित्‍यकार उनके प्रभाव में आए थे और आज भी लोहिया का नाम आते ही स्‍पन्दित हो जाते हैं । लोहिया भारतीय जमीन से जुड़े और सत्‍ता से नहीं अपितु देशचिन्‍ता से कातर व्‍यक्ति थे जिनकी समकक्षता का दूसरा नेता उस दौर में दिखाई नहीं देता ।”

”और इसीलिए उन्‍होंने ऐसा कबाड़ा किया कि पूरा देश तुम्‍हारे ही शब्‍दों में एक नरक में बदल गया ।” उससे लोहिया की इतनी प्रशंसा सहन नहीं हो रही थी।

”मैं यही बता रहा था कि इतना बड़ा आदमी भी यदि घबरा कर, कोई दूसरा उपाय न देख कर, मर्यादा काे तोड़ते हुए, काम चलाऊ हथकंडे अपनाता हुआ, जो होगा देखा जायेगा वाली मानसिकता का शिकार होता है तो उसकी परिणति वह होती है जो हुई । परन्‍तु आज तो इस काम चलाऊपन की उपासना होने लगी है और सभी मिल कर किसी भी कीमत पर भाजपा को सत्‍ता से हटाने के लिए प्रयत्‍नशील हैं परन्‍तु समाज ने अपने अनुभवों से पता नहीं क्‍या सीखा है कि वे ज्‍यों ज्‍यों जुड़ने का प्रयास करते हैं उनकी शक्ति उतनी ही क्षीण होती जाती है । जो हुड़दंग सड़क पर किया करते थे उसे संसद में पहुंचा देते हैं और सन्‍देश देते हैं कि हम इस सरकार को चलने नहीं देंगे और जिनके बीच इससे अपनी जगह बनाना चाहते हैं उनके बीच उनकी जगह और सिकुड़ती चली जाती है, यहां तक कि राष्‍ट्रपति तक को झिड़कने की जरूरत पड़ती है । जिन बुद्धिजीवियों के ऊपर लोहिया ने इतना भरोसा जताया था और जिन्‍होंने अपनी सीमा में एक स्‍वतंत्र इतिहास चेता के रूप सांकेतिक हस्‍तक्षेप भी किया था वे सक्रिय राजनीति के शोर का हिस्‍सा बन चले हैं। वे कहीं से कुछ भी उड़ा लेते हैं और नित्‍य गया गया अब गया दुहराते हुए बौद्धिक बजबजाहट को बौद्धिक सक्रियता मानने लगे हैं । सक्रिय राजनीति से जुड़ाव सुधी जनों को भी कहां पहुंचा सकता है इसका यह एक नमूना है । लगेगा मैं आज की स्थिति में नया औचित्‍य तलाश कर रहा हूं इसलिए अपनी ही 7 सितंबर की एक पोस्‍ट का कुछ अंश उद्धृत करूं :

”मैं भी यही चाहता हूँ कि कोई मेरी बात न माने, सही प्रतीत होने वाले की भी बौद्धिक गुलामी, गुलामी ही हुआ करती है। जब हम उस सही को समुचित ऊहापोह से अपना सत्य बना लेते हैं, तब वही बात किसी दूसरे की नहीं रह जाती, अपनी खोज बन जाती है। यह बात मैं पहले भी दुहराता रहा हूँ कि आपके पास देखने को अपनी ही ऑंखें हैं, सोचने के लिए अपना ही दिमाग है। वह प्रखर या मन्द जैसा भी है, काम आप को उसी से लेना है। न लिया तो ऑंख रहते अन्धे और दिमाग रहते भी मूर्ख बने रहेंगे। काम लेने से उनमें प्रखरता भी आएगी। परन्तु ज्ञान के अहंकार में लोग दूसरो की नजर और दूसरों के दिमाग से काम लेने के आदी हो जाते हैं और उनके ही काम आते हैं।

”तुमने देखा तो असहमत होने वालों में किसी के पास अपना दिमाग था ही नहीं, न अपनी आंख थी। वे किसी न किसी के कहे को दुहरा रहे थे और यह भी नहीं देख रहे थे कि उसका आधार क्या था।‘’ …

”यदि आपको स्वयं अपने विवेक से ऐसा लगता है कि कोई व्यक्ति या विचार गलत है उसे बिना किसी की बैसाखी के प्रस्तुत करें । फतवा न दें, उसका तर्क दें और उस तर्क से लगे कि आप ने इस पर सोच-विचार किया है तो उसका महत्व है। जब तुम कहो, नब्बे प्रतिशत लोग किसी को ऐसा मानते हैं इसलिए तुम भी मानते हो, तो तुमने अपनी अक्ल से काम ही नहीं लिया, संख्या के दबाव में आ गए। और संख्या जितनी ही बढ़ती जाती है विचार पक्ष उतना ही घटता जाता है, यह हम पहले समझा चुके हैं।

”देखो, तुम्हें एक बार फिर याद दिला दूँ कि मैं यदि इस बात में सफल हो जाऊँ कि सभी लोग मेरी बात मान लें, तो यह मेरे लिए दुर्भाग्य की बात होगी। अमुक ने कहा इसलिए मैं भी मानता हूॅे मार्का लोग सुपठित और वाचाल मूर्ख होते हैं जिन्हें अपना दिमाग और आंख होते हुए भी उससे काम लेने तक का शऊर नहीं होता और सारी दुनिया को अपने अनुसार चलाने की ठाने रहते हैं। और तुम उन मूर्खों के शिरोमणि तो नहीं कहूँगा, पर उसी माला में पिरोए हुए मनके हो जो अपने धागे से बाहर नहीं जा सकते।”

जब मैं अजपा जाप करने वालों को अमुक का विचार शेयर किया कह कर अपने को ढाढस बंधाते देखता हूं तो इसकी याद ताजा हो जाती है । गुण-दोष की समझ है तो विवेचन करो । अपनी महफिल में दाद पाने की जगह व्‍यापक जनसमाज में अपनी विश्‍वसनीयता कायम करो । किसने कब क्‍या कहा, क्‍यों कहा, उसे उठा कर आज पर मत लादो । उस काल को वर्तमान पर मत लादो। अपने काल और इसकी समस्‍याओं की पड़ताल स्‍वयं करो । अपने कार्यभार को समझो । अस्‍तु ।