सुनते हो, मेरे बदजबां की अदा
व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक, हम यथार्थ को गढ़ नहीं सकते । यथार्थ में संभव विकल्पों के बीच सबसे वांछित का चुनाव करते हैं अौर उसमें जो कुछ हमसे हो सकता है, करते हुए, एक सीमा तक उसे बदलते भी हैं। चुनाव करते समय हम जिसे सर्वाधिक वांछित मानते हैं, या अपनी समझ से जो ठीक लगता है करते हैं, उसके परिणाम यह सिद्ध कर सकते हैं कि जिसे चुनाव के क्षण में हम अवांछित मान कर छोड़ बैठे वह अधिक वांछनीय था या जो कुछ हमने किया उसमें कुछ गलतियां हुईं जिनके कारण उसका परिणाम अपेक्षा के अनुरूप न हो पाया। कहें वांछित और अवांछित की अपनी कमियां होती हैं जिनके आकलन में हमसे चूक होती है और इसमें अपनी भागीदारी में भी हमसे चूक होती है। यह यथार्थवादियों की समस्या है ।
इसके विपरीत स्वप्नजीवियों का संसार होता है जिसमें सर्वशुद्ध और निरापद की एक अवधारणा होती है और उसे वरण करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होता और यदि हम उसका वरण नहीं करते हैं तो हम दुष्ट या अपघाती हैं और देश और समाज के भले के लिए ऐसे लोगों को रास्ते से हटा दिया जाना चाहिए। इसके सबसे अच्छे नमूने मनोरोगियों में मिलते हैं जो श्रुतिभ्रम और दृष्टिभ्रम के कारण सर्वशुद्ध की पुकार सुन पाते या देख पाते हैं, और बाधकों को रास्ते से अलग करने के लिए जो भी हाथ में आया उससे प्रहार करते रहते हैं। कुछ सह्य रूप में किसी विचार या मान्यता से प्रतिबद्ध लोगों में भी यह पाया जाता है जो मनोगत या इष्ट को यथार्थ और यथार्थ को भ्रम मान लेते हैं और इसलिए उसे देखने-समझने की क्षमता ही खो बैठते हैं।
हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जिसमें एक और कष्टकर यथार्थ है और दूसरी ओर ऐसी विकल्पहीनता जिसमें कष्ट झेलने वाले भी वापसी का विकल्प नहीं चुन सकते। यह शुरू जैसे भी हो, है एक युद्ध जिसके आरंभ हो जाने के बाद उसको लड़ और मरखप कर ही किसी परिणति तक पहुंचाया जा सकता है। इतिहास में वापसी जैसी कोई चीज होती नहीं, हमें सारे निर्णय यहां और अब लेने होते हैं । इसलिए यह समझना अधिक जरूरी है कि जिसे हम एक व्यक्ति का निर्णय मानते हैं, उसे कष्टभोगने वाला समाज स्वयं अपने हित में किया गया निर्णय मान कर उसके कष्ट को झेलता हुआ, असुविधाओं सहता और यदा कदा कुढ़ता हुआ उसी तरह इसकी सफलता की कामना करता है जैसे मोर्चे पर भूख, कुमुक और असले की अपर्याप्तता के बीच भी लड़ता, बढ़ता, बचता हुआ योद्धा विजय के लिए विजय के लिए प्राणपण से प्रयत्न करता है और संकटापन्न स्थितियों में भी अपने देश और समाज को हार और अपमान से बचाना चाहता है ।
किनारे बैठे वे लोग जो अपने स्वार्थ या विचारधारात्मक कारणों से शत्रु देश के प्रति सहानुभूति रखते और उसकी विजय चाहते हैं, जैसा चीन -भारत युद्ध के समय देखने में आया था। अपने पक्ष की कमजोरियों, गलतियों का दबे या खुले स्वर में राग अलापते हैं शत्रु पक्ष के सभी कारनामों का समर्थन करते हैं और अपने ही देश की पराजय की कामना तक करते हैं ।
वे अपने सैनिकों की असुविधाओं और कष्टों को तो देख पाते हैं उस संकल्प को नहीं देख पाते जो कष्ट और असुविधाओं के बीच भी उसे विचलित नहीं होने देता ।
आज की स्थिति यही है । पक्ष बंटे हुए है, देश और जनता एक ओर है, जो इस अभियान की सफलता चाहती है और रहस्यमय और प्रकट दोनों कारणों से दूसरी ओर वे हैं जो इसकी विफलता चाहते हैं और हमें समझाना चाहते हैं कि वे भी देश हित से ही कातर है, परन्तु देश हित की उनकी परिभाषा अलग है।
यदि विभाजन इतना साफ हो तो तर्क और प्रमाण अपनी सार्थकता खो देते हैं । बीच समर में अपने देश की रणनीति की आलोचना करने वाले विशेषज्ञ जितने भी बड़े ज्ञानी क्यों न हों, वे उस पक्ष से जुड़े होते है जो पराजय की कामना करते हैं, अन्यथा वे ऐसे सुझाव रखते जिससे विषम स्थितियों में अविचल भाव से लड़ने वालों को राहत दे सकें और मनोबल को बढ़ा सके । वे अपनी विशेषज्ञता का प्रयोग सही गलत की परिभाषाओं को उलटने के लिए तो कर सकते है, परन्तु इसे सफल बनाने के लिए क्या अपेक्षित है ऐसा सुझाव उनके विवेचनों में नहीं आता।
इन सबके लाख उकसावों के बाद भी, अपनी कष्ट कथा बयान करते हुए भी, जनता तात्कालिक असुविधाओं का विरोध करने के अतिरिक्त भड़काने की कोशिशों उत्तेजित होने बचती रही है, क्योंकि उसे विश्वास है कि यह निर्णय पूरे देश के हित में लिया गया है और इससे केवल देश के भितरघातियों को बेचैनी है। उसका यह विश्वास न केवल उसके संयम में दिखाई देता है, उस भारी भीड़ में भी दिखाई देता है जो प्रधान मंत्री की इसी दौर में आयोजित सभाओं में देखने में आ रही है।
इसलिए उस ऊब, खीझ, विवशता और विकल्पहीनता के इतिहास को समझना कुछ उपयोगी हो सकता है जिसने भारतीय जन के भीतर इतना आक्राेश भर दिया था कि उसने एक ऐसे विकल्प का स्वागत किया जिससे विरत करने के लिए संचार माध्यम, प्रचार के साधन और लगभग समस्त बुद्धिजीवी वर्ग लगा हुआ रहा है।
जिस बिन्दु पर यह निर्णय भारतीय जन ने लिया उसे एक शब्द में कहें तो यह वह चरण था जिसमें सभी मर्यादाएं टूट चुकी थीं, सभी प्रतिबन्ध लगभग समाप्त थे। स्थिति ऐसी थी कि प्रचार संचार के वे ही साधन और और वे ही बुद्धिजीवी उस सर्वनाशी दौर के क्षरण और गिरावट पर चिन्ता प्रकट करने में किसी से पीछे नहीं थे जो आज उसी की वापसी का गला फाड़ रहे हैं। नरक का रोना रोने वाले नरक के इतने आदी हो चुके थे कि वे अपने नरक से बाहर निकलने में घबराहट अनुभव करने लगे।
मर्यादाओं के टूटने का इतिहास राममनाेहर लोहिया के उस संकल्प से जुड़ा था जिसमें वह कांग्रेस से किसी भी कीमत पर मुक्ति चाहते थे या कम से कम एक ऐसा विकल्प चाहते थे जो उसका जवाब बन सके । कांग्रेस में ब्राह्णों का वर्चस्व था और ब्राह्मण उसे अपनी पार्टी मानते आ रहे थे । लोहिया जी ने इसे सवर्णों की पार्टी के रूप में कल्पित किया और एक ऐसे विकल्प की तलाश में रहे जो इनकी धौंस में न आए और अावश्यकता होने पर डट कर मुकाबला कर सके । दलितों से उन्हें इसकी आशा नहीं थी, परन्तु आज की परिभाषा में पिछड़े समुुदायों से जो नियम कानून की भी परवाह नहीं करते थे और इसके कारण ही ऊंची जातियों के लाेग भी इनका दबाव अनुभव करते थे, उनको वरीयता देने में उन्हें आशा की किरण्ा दिखाई दी। ये थे जाट, भूमिहार, यादव, कुर्मी, गड़रिया आदि । यहां तक उनका निर्णय सही था, परन्तु इसके लिए उन्होंने जो मर्यादाओं की उपेक्षा का रास्ता चुना या मर्यादाओं की अवहेलना के ‘गुण’ के कारण उन्हें वरीयता दी वह सही नहीं था जिसमें औचित्य का ध्यान रखे बिना राजनारायण जी संसद में ही लेट जाते थे और उनके भारी भरकम शरीर को उठा कर बाहर करने में सुरक्षा कर्मियों का दम उखड़ जाता था। यह एक खतरनाक आरंभ था, जिसकी भयावहता का अनुमान कोई उसी तरह न लगा सका जैसे तटबन्ध में मामूली रिसाव आरंभ होने पर उसकी उपेक्षा कर दी जाय कि इतने से कुछ नहीं बिगड़ता जब कि वही बढ़ते बढ़ते तटबन्ध को तोड़ और बहा कर पूरे क्षेत्र के लिए आपदा का कारण बन जाता है। अपनी इसी करनी के बल पर नेता जी का मतलब राजनारायण हुआ करता था जो उनके जीवन काल तक बना रहा । अब सुनते हैं नेताजी का ताज मुलायम सिंह के सिर है और वह भी अपने को लोहिया जी का सच्चा उत्तराधिकारी मानते हैं।
कांग्रेस को किसी भी कीमत पर हटाने का उनका दूसरा सूत्र था विचारधारा की चिन्ता किए बिना सभी विरोधी दलों का एक जुट हो कर चुनाव लड़ने और सत्ता पर कब्जा जमाने की सलाह। उसके बाद क्या होगा यह ‘तब की तब देखी जाएगी’ पर छोड़ देना। तब की तब देखी जाएगी, किसी को सत्ता से बाहर करना पहला और अन्तिम लक्ष्य बन जाय तो जयप्रकाश के पूर्ण स्वराज्य से लालू भी पैदा हो सकते है और नीतीश भी। यह एक जोखिम भरी विकल्पहीनता है जिसे उसकी परिणति से ही जाना जा सकता है ।
लोहिया को गठबन्धन राजनीति के आरंभ का श्रेय जाता है और श्रेय जाता है उस ध्रुवीकरण का जिसे मोरारजी देसाई के द्वारा स्थापित मंडल कमीशन ने संभव बनाया और विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अमली रूप दिया। परन्तु ‘किसी भी कीमत पर सत्ता’ का सिद्धान्त देश के लिए भी खतरनाक सिद्ध हुआ और बाद की समस्त विकृतियों की जड़ भी। पहले तो इसने नव गठित केन्द्र सरकार के भीतर ही विश्वासघातियों का एक धड़ा पैदा कर दिया जिसमें कांग्रेस के समर्थन के आश्वासन पर चरण सिंह की महत्वाकांक्षा को उकसाया गया और फिर उसके समर्थन वापस लेने पर उस संभावना को ही कुचल कर उसी कांग्रेस का रास्ता साफ कर दिया गया जिसके लिए इतना भगीरथ प्रयत्न इतने लंबे समय तक जारी रहा। किसी कीमत पर सत्ता के मन्त्र ने वोट के लिए पहले बाहुबलियों के प्रयोग, मतपेटियों की लूट, फर्जी वोटों से चुनाव परिणामों को उलटने के प्रयास का रास्ता खोला और फिर बाहुबलियों की अपनी महत्वाकांक्षा जाग्रत करके उसके राजनीति में प्रवेश को संभव और राजनीति के अपराधीकरण का रास्ता तैयार किया।
अपराधियों का सहारा न रह जाने पर नोट के बदले वोट का रास्ता खोला जो कांग्रेस संस्कृति का अंग आपात काल के साथ ही बन गया था परन्तु इतना नग्न रूप नहीं लिया था जो इसने बाहुबलियों से भरोसा उठने के बाद लिया। देश के विकास का पैसा विभागों में बंटता और अधिकारियों से रिश्वत के रूप में सरकार में बैठे लोगों द्वारा वसूल किया जाता, थानों चौकियों के ठेके लगते, और इसके बदले में उन्हें अपनी भरपाई के लिए जो वे करना चाहें करने की छूट दी जाती जिसमें न विकास संभव था न व्यवस्था। शीर्ष पदों पर बैठे लोग यह सब कानून का सम्मान करते हुए नहीं कर सकते थे इसलिए उनकी इच्छा ही कानून बनती चली गई जिसमें अधिकस्य अधिकं फलं की सूझ ने माफियाओं के असंख्य रूपों को जन्म दिया और ये असामाजिक तत्व समाज में सबसे प्रभावशाली तबके के रूप में उभरे । अब कोई भी कुछ भी कर सकता था, अपहरण, फिरौती, बलात्कार अर्थात् बच्चों से गलती हो जाती है और गलती होती रहनी चाहिए, भयदोहन ने अराजकता से भी बदतर स्थिति पैदा कर दी और इसका विस्तार तब केन्द्र की ओर हुआ तो इस महाप्लावन में कुछ भी नहीं बचा रहा । किसी से कुछ छिपा नहीं था इसलिए किसी को किसी का डर नहीं रह गया था और इस तरह बना था वह नरक जिसमें पूरा देश झोंक दिया गया था। आम जन असहाय, निरुपाय। इस नंगी नाच पर वाचाल शोर न मचायें इसलिए पत्रकारो, संचारमाध्यमों, वाचाल बुद्धिजीवियों को भी कुछ रियायतें दी जाती रहीं जिनका व्यौरा देने चलें तो पन्ने भरने के बाद भी बहुत कुछ छूट जाएगा इसलिए नरक कुंड में असहज अनुभव करते हुए भी वे यह सिद्ध करने के लिए कि उनकी अन्तरात्मा मरी नहीं है कभी कभी बिना किसी पर उंगली उठाए संगीत लहरी वाले स्वर में अपना असंतोष भी प्रकट कर देते थे फिर भी बाद की सचाई ने यह सिद्ध कर दिया कि वे उनके अच्छे दिन थे और अब वे उसकी वापसी के लिए व्यग्र हैं।
समस्त मर्यादाओं का लोप वह स्थिति है जिसमें लोकतन्त्र सबसे पहला शिकार होता है। इस देश में लोकतन्त्र पाखंड बन गया था, तानाशाही के विविध रूप पूरे देश में प्रचलित थे जिसमें देश के रक्षक देश को लूट रहे थे।
यह वह बिन्दु था जिस पर पिछला चुनाव हुआ और अब जनता ने एक ऐसे तानाशाह के चयन का मन बनाया जिसमें ईमानदारी हो, देश निष्ठा हो, साहस हो और अप्रिय निर्णय लेने की क्षमता हो जिसमें संभव विकल्पों में मोदी सर्वोपरि थे और मोदी जो तानाशाही की भगुरता और लोकतन्त्र की शक्ति को बहुत अच्छी तरह समझ चुके थे, जनता की अन्य अपेक्षाओं पर सही उतरने के संकल्प के बाद भी उस तानाशाही को ऐसे लोकतन्त्र में बदलने के लिए प्रयत्नशील हैं जिसमें शासक अपने सभी निर्णयों और कार्यों के लिए सीधे जनता के प्रति उत्तरदायी हो और उसे अपनी सफाई दे सके ।
यह वह बिन्दु है जहां दोनों धड़े साफ अलग हैं । दुख झेलती जनता और उसके दुखों का कारगर इलाज तलाशने वाला एक ओर और जगदीश वैद के उपन्यास नरक कुंड में वास के मुरीद दूसरी ओर । वे मोदी को गालियों की भाषा में संबोधित करते हुए फेसबुक पर जो जी में आता है बोलते हैं और उस पक्ष में खड़े होने वालों को भी उसी रौ में संबोधित करते हैं परन्तु इस शिकायत के साथ कि उनको बोलने तक की आजादी नहीं मिल पा रही है।
मीर का शेर है,
बात कहने में गालियां दे है ।
सुनते हो मेरे बदजबां की अदा ।