सचाई का सामना
”तुम अपने किस अनुभव की बात कर रहे थे । जरा सुनू तो ।”
”देखो, मेरे लिए सत्य की खोज और उसकी प्रतिष्ठा से ऊंचा कोई दूसरा लक्ष्य नहीं लगता और इसके लिए किए जाने वाले श्रम से अधिक सार्थक कोई दूसरा मनोरंजन नहीं लगता। इसके कारण अपने श्रद्धेय जनों का भी विरोध करते संकोच नहीं होता। इसका नुकसान यह होता है कि उनमें मेरे प्रति खिन्नता पैदा हो जाताी है । यदि लगे जिसे सर्वमान्य सत्य के रूप में स्वीकार किया जाता है उसमें खोट है, तो दूसरे सारे काम छोड़ कर उसके पीछे लग जाता हूं।
जितना भाषाविज्ञान एम ए में पढ़ा था उसके अनुसार आर्य भाषा लिए आर्यजन बाहर से आए थे, उन्होंने उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया था और यहां बसे दूसरे जनों को भगा दिया था और अपनी भाषा और संस्कृति लाद दी थी। द्रविड़ भाषाएं एक अलग आद्यद्रविड़ से उसी तरह पैदा हुई थी जिस तरह संस्कृत के ह्रास से उत्तर भारत की भाषाएं।
दक्षिण भारत की भाषाएं सीखने के क्रम में पता चला कि इस मान्यता की प्रत्येक कड़ी गलत है। इसे सिद्ध करने के लिए उन पहलुओं की जांच करते हुए अपनी मान्यता का प्रतिपादन किया जो आर्य-द्रविड भाषाओं की मूलभूत एकता शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसमें जो स्थापनाएं थी उन्हें समझने की क्षमता हिन्दी विद्वानों में न थी, यह कहना तो अशोभन होगा, परन्तु एक ऐसा व्यक्ति जो पेशेवर भाषाविज्ञानी न हो, ‘विश्वविख्यात’ भाषाविज्ञानियों द्वारा इतने श्रम और अधिकार से तैयार की गई मान्यता का खंडन करे तो उसके तर्क और प्रमाण जितने भी प्रबल हों, उन्हें स्वीकार करने का साहस उनमें नहीं हो सकता था। इसलिए पुस्तक की तारीफ तो सुनने को मिली, प्रतियां चार साल में बिक गई, पूने विश्वविद्यालय में इसे भाषाविज्ञान के सन्दर्भ ग्रन्थों में भी स्थान मिला, अनेक प्रशंसात्मक लेख भी प्रकाशित हुए, पर उसकी आधिकारिक समीक्षा देखने में नहीं आई ।
इस पुस्तक की एक प्रति मैंने आपात काल के दिनों में मेरे पड़ोसी के साथ गुप्त वास करने वाले स्वराज्यप्रकाश गुप्त को दी थी। यह पता तो परिचय के समय ही चल गया था कि वह संघ की विचारधारा से संबन्ध रखते हैं, पर आपात काल की समाप्ति के बाद वह गणवेश में शाखा में जाते मिले तो मुझे हैरानी हुई। जो भी हो, परिचय के बाद मैं उन्हें उसी तरह छेड़ने के लिए ऐसी बाते कर बैठता था, जो आज भी हिन्दू सोच के लोगों को क्षुब्ध करने के लिए वामपंथियों द्वारा की जाती है। कम्युनिस्ट पार्टी से कभी लगाव न हुआ, पर अपने को मार्क्सवादी तो मानता ही था। एक दिन रामायण की चर्चा चलने पर मैंने कहा रामायण की जो कथा हम आज पढ़ते हैं, वह बाद में, मूल कथा को बदलते हुए लिखी गई है। मैंने अपने तर्क तो यह सोच कर दिए थे कि इससे उन्हें खिन्नता होगी, परन्तु अब वह इस बात के पीछे पड़ गए कि चंडीगढ़ में पुरातत्वविदों, नृतत्वविदों का सम्मेलन आयोजित है, उसमें एक पेपर पढि़ए । अंग्रेजी में इससे पहले लिखा नहीं था, थोड़ी चिन्ता थी, फिर भी पेपर तैयार किया ‘दि ओरिजिनल रामायण: ह्वाट इट रीयली वाज’ । इस संगोष्ठी में डा सांकलिया, ए घोष, बी बी लाल, बी के थापर, केनेथ केनेडी आदि विद्वान उपस्थित थे। पर्चे पर चर्चा किसी अन्य की तुलना में अधिक गर्म रही और अगले दिन दिल्ली के अंग्रेजी के अनेक समाचारपत्रों ने लेख की पूरी समरी जो मैंने बनाई थी, उसे ज्यों का त्याें छाप दिया। 1975 में अायोजित यह दो दिवसीय संगोष्ठी मेरे अभिरुचि के क्षेत्र में नया मोड़ था और इसके बाद मेरे व्यक्तित्व के निर्माण में एस पी गुप्त द्वारा पेश गई चुनौतियों या अपेक्षाओं की भूमिका प्रधान थी । अपने अपने राम लिखने की प्रेरणा भी इसी से मिली और इसे लिखने में कई साल लगे।
गुप्त जी ने एक बार प्रस्ताव रखा कि मुझे ‘आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता’ का अंग्रेजी में अनूवाद करना चाहिए । एक काम जो पूरा हो चुका है उसे दुबारा करने का मन नहीं होता। अपनी अंग्रेजी पर भरोसे की कमी एक अतिरिक्त कारण थी। मैंने कहा, आप उस ओर क्यों जाते है, मैं ऋग्वेद में ट्रेड ऐंड कामर्स पर एक लेख अंग्रेजी में लिखता हूं । यह लेख स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूट, बेंगलूरु में आयोजित एक दो दिवसीय संगोष्ठी में पढ़ने का अवसर आया। स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूट का नाम संदर्भ ग्रन्थों में पढ़ता आया था, परन्तु वहां पहुंचने पर पता चला इसके आयोजन के पीछे भी संघ का हाथ था। यह मेरे लिए कुछ खिन्न करने वाली बात थी, क्योंकि मैं ऐसे खुले मंच का पक्षधर हूं जिसमें विभिन्न विचारधाराओं के लोग सम्मिलित हों जो एक दूसरे की काट भी कर सकें। इस निबन्ध में जो बीस पन्नों का था, मैंने पहली बार जिन प्रश्नों को खड़ा किया वे निम्न थे:
1. ऋग्वेद में नदियों को वारिपथ या यातायात के मार्ग (प्र ते अरदत वरुण यातवे पथ:) के रूप में क्यों दिखाया गया है ?
2. नदियों की महिमा उनके समुद्र पर्यन्त प्रवाह के लिए क्यों गाई गई है ?
3. घाट की नौका से ले कर समुद्रगामी नौकाओं या जहाजो का इतनी प्रचुरता से उल्लेख क्यों किया गया है ? इसका पशुचारी समाज को क्या जरूरत हो सकती ?
4. ऋग्वेद में परिवहन के उन सभी साधनों का हवाला क्यों और कैसे आता है जिनसे हम परिचित रहे हैं।
और फिर हमारे मूर्धन्य विद्वानों के मन में घर कर चुकी उस चरवाही या अविकसित ग्राम्य अर्थव्यवस्था के विपरीत विविध पक्षों की पड़ताल करते हुए स्थापित किया गया था कि ऋग्वेद वैदिक व्यापारियों का साहित्य है। इसमें उनकी ही चिन्ताओं, सरोकारों और आकांक्षाओं को प्रधानता दी गई है और इसीलिए वैश्य वर्ण को ऋग्वेद से उत्पन्न माना जाता है ।
मैंने यह खाका स्मृति के आधार पर प्रस्तुत किया है जिसमें कुछ विचलन भी हो सकती है, परन्तु जैसा अपेक्षित था, इसने जिस तरह की सरगर्मी पैदा की वह मेरी अपेक्षा से अधिक थी। अनेक विद्वानों के लिए मैं वेद का अधिकारी विद्वान बन बैठा, जिसका दावा आज तक करने का साहस नहीं है । यह एक तरह से हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य के लेखन का प्रेरक चरण था ।
यह स्मरण दिला दें कि एस पी गुप्त के लिए मैं मार्क्सवादी था, और मेरा यह परिचय मुझे रास आता था, क्योंकि यह मुझे उस जमात से अलग करता था जिसके अध्ययन, ज्ञान और विचारधारा से मुझको गंभीर आपत्तियां थीं। यदि मेरे मार्क्सवादी मित्र यांत्रिक मार्क्सवाद से मेरी असहमति और इतिहास व भाषा विषयक मेरे अध्ययनों के कारण कुछ स्मेरमुखी बने रहते तो यह भी मुझे रास आता और इसका भी विरोध नहीं करता। सोचने वाला अकेला और अरक्षणीय होता है, मानने वालों की लश्कर और जमात होती है, सभी किसी के लिए भी जीने मरने को तैयार ।
अध्ययन और ज्ञान के मामले में मुझे अपने मार्क्सवादी मित्रों पर पहले बहुत अधिक भरोसा था, क्योंकि अध्ययनशील लोगों के लिए दूसरे रास्ते इन्होंने अपनी प्रचारशक्ति के बल पर बन्द कर दिए थे। धीरे धीरे पता चला इसमें विचारधारा की आड़ में एक खास तरह के अज्ञान को श्लाघ्य माना जाता है और यह है अपने साहित्य, इतिहास, उसकी भाषा, यहां तक कि अपनी चालू भाषा के प्रति अज्ञान और अवज्ञा । इसकी मीमांसा में जाने पर पता चला कि इसके पीछे ज्ञान और सत्यान्वेषण के लिए अपेक्षित श्रम और साधना से बचने का और थोड़े से बहुत कुछ हासिल करने का आलसी और ऐयाश रवैया है।
फिर यह समझ में आया कि इस अज्ञान से बाहर पड़ने वाला जो सूचनाओं का भंडार है, जिसे अपनी पूंजी बना कर ये अपने अधिक ज्ञानी होने का भ्रम बनाने में सफल होते हैं, उसकी समझ की योग्यता ही नहीं है, इसलिए इनकी अपनी समझ बन ही नहीं पाई है । एक ओर ये लीगी सोच के शिकार हैं तो दूसरी ओर औपनिवेशिक स्थापनाओं को अन्तिम सत्य या उसके निकट मानते हैं । सबसे दुखद था यह बोध कि ये आसानी से बिक सकते हैं और अपने श्रद्धेय पूर्वजों का भी अपमान करते हुए पैसा कमाने के छोटे रास्ते निकाल सकते हैं ।
अब यहां पर आकर एक विचित्र धर्म संकट पैदा होता है । हम आत्मविक्रयी बहुज्ञों को जो जिसके अधिकारी विद्वान माने जाते हैं, उसे भी नहीं समझते, अधिक भरोसे का समझें या उन अल्पज्ञ, डंडाधारी संगठनों से निकले लोगों को जिनके पास समाज और देश के प्रति निष्ठा तो है, परन्तु जिनको बाहुबल पर अधिक और बुद्धिबल पर कम भरोसा है। जो जहां बाहुबल की सचमुच आवश्यकता होती है वहां उससे काम नहीं लेते, और बुद्धिबल के अभाव में अरक्षणीय बने रहते हैं ।
यदि कला की गहरी समझ रखने वाले फिल्मों के ऐसे अंशों को कतरने से बचाने के लिए रिश्वत लेते रहे हों, तो उनकी तुलना में कला की उतनी गहरी समझ न रखते हुए भी सामाजिक मर्यादा पर किसी तरह का समझौता करने से इन्कार करने वाला अधिक वांछनीय है या नहीं ?
जब हिन्दी के प्रचार और प्रसार में फिल्मों के योगदान का प्रसंग आता है तो हम झूम उठते हैं, परन्तु जब समाज में अपराध, अश्लीलता, उदंडता, बात बात पर उत्तेजित होने की मनोवृत्ति के प्रसार में अपराध जगत के पैसे पर पलने वाले और समाज का अपराधीकरण करने वाले फिल्म उद्योग की भूमिका की जिम्मेदारी आती है तो हम उस दुश्चक्र के शिकार हो जाते हैं जिसमें एक दावा करता है कि समाज में जो है उसे हम दिखाते हैं, और अनगिनत अपराधी यह स्वीकार करते हैं कि अमुक अपराध की प्रेरणा उन्हें अमुक फिल्म से मिली थी।
इससे मिलती जुलती स्थिति दूसरे संस्थानों में भी है। जिन्हें हम ज्ञानी मान बैठे हैं, वे चालाक तो हैं परन्तु अपने विषय के अधिकारी नहीं। जो समय विषय पर अधिकार करने पर लगाया जाता है उसमें वे राजनीति करते हैं, क्योंकि यह पता है कि योग्यता के अभाव में भी राजनीति से बहुत अधिक लाभ पाया जा सकता है।
हाल के दिनों में संघ ने भी अपनी बौद्धिक उदासीनता को कम करने और कम से कम इतिहास में कुछ रुचि दिखाई है जिसका नमूना इतिहास संकलन से जुड़ा कारोबार है, परन्तु एक तो इसमें कुछ पूर्वाग्रहों के अनुरूप सामग्री जुटाने पर बल अधिक है और दूसरी ओर उन स्रोतो पर अधिकार करने की लालसा का अभाव है जिनसे इतिहास की पुरानी शरारतों और चूकों को सुधारा जा सकता है ।
एक तरह से कहें तो मेरी रुचि और दिशा को बदलने में मेरे मित्र एस पी गुप्त की भूमिका निर्णायक थी, वहीं मुझे यह जान कर निराशा होती थी कि वैदिक साहित्य्ा में उनकी रुचि केवल इस तथ्य तक सीमित थी कि वैदिक साहित्य के निर्माता भारत के मूल निवासी थे, वे कहीं बाहर से नहीं आए थे। हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य में भारत पर कोई आक्रमण नहीं हुआ था, वह मात्र एक अध्याय है । उससे आगे उसकी समाजव्यवस्था, शिक्षा और साक्षरता, अर्थतन्त्र, विदेशव्यापार, कृषि के आरंभ और देवासुर संग्राम की महागाथा, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास और नगर सभ्यता का उदय तथा भाषा और संस्कृति के प्रसार के चरण और तन्त्र को ले कर बहुत कुछ है जो हमें अपनी सभ्यता के मूलाधार को समझने के लिए उपयोगी है, परन्तु इसमें न तो मेरे मित्र एस पी गुप्त की कोई रुचि थी, न ही किसी अन्य संघी की । आरंभ में दिल्ली, उज्जैन आदि अनेक स्थलों पर वैदिक सभ्यता पर संगाेष्ठियां आयोजित हुईं, मैं उनमें भाग लेने के बाद यह भी पाता रहा कि इनके पीछे संघ का हाथ है। यह संकीर्णता मेेरे लिए दुखद थी। आर्यो के आक्रमण के निषेध में जो सेमिनार आयोजित हुए उनमें मैंने भाग लेना बन्द कर दिया, क्योंकि इनके पीछे इतिहास की समझ से अधिक राजनीतिक खेल था कि हम यहां के ही निवासी है इसलिए हमारा इस पर अधिकार है, दूसरे आक्रमणकारी के रूप में आए हैं उनका कोई अधिकार नहीं ।
हमारे पुराने विधानों में कहीं ऐसा होगा जिसका अध्ययन नहीं कर पाया कि कितनी अवधि के बाद कोई भी व्यक्ति किसी भूभाग का अधिकारी माना जा सकता है क्योंकि इसका उल्लेख पंचतन्त्र की एक कहानी में आया है । प्रश्न देशी विदेशी का भेद करके अपने ही घर में अशान्ति भड़काने का नहीं है अपितु उस तन्त्र के विकास का है जिसमें सभी को अनुशासित और अपनी सीमा में रखा जा सके । गुप्ता जी और सीताराम गोयल से यहीं पर मेरा बुनियादी अन्तर था जिसके कारण हमारे संबन्ध लगाव और टकराव के बने रहे ।
अब हम अपने ही माध्यम से देखना चाहें तो हमारे वामपंथी मित्रों ने मेरी खोज को पहले दबाने की कोशिश की, फिर लोगों को बरगलाने की कोशिश करते रहे और जब इसके पहले खंड का नये कलेवर में प्रकाशन ‘दि वेदिक हड़प्पन्स’ के नाम से 1995 में हुआ और इसे अन्तराष्ट्रीय मंच पर भी महत्व मिला तो पश्चिमी विद्वानों ने केवल उतने अंश को उभारना पसन्द किया जिसकी जरूरत संघ को थी, अर्थात् आर्य आक्रमण के सिद्धान्त का निषेध । इससे पहले से जैरिज, शैफर आदि सात हजार साल ईसा पूर्व से भारतीय परंपरा की प्रवहमान धारा की चर्चा करते रहे हैं जिनका उपयोग मैंने किया भी था।
इतिहास के पीछे राजनीति का हाथ और इस राजनीति के पीछे इतिहास की आड़ में वर्तमान समाज पर अपनी धौस जमाने की आकांक्षा बहुत प्रबल रही है जो देशी विदेशी सभी लेखकों में पाई जाती है । जो भी हो, इसके बाद ही हमारे मार्क्सवादी इतिहासकारों की समझ में आया कि अब आर्यों के आक्रमण की बात करना और उनके पशुचारी होने की बात करना अपनी साख गंवाने जैसा है । पर आज भी प्रो. इर्फान हबीब को वैदिक आर्यो को आज के आइ एस की छवि में देखने से कोई रोक नहीं सकता, अपितु इसके बावजूद उनको मूर्धन्य इतिहासकार मानने वाले मिल जाएंगे।
जहालत के इन दो रूपों के सर्वनाशी बहुज्ञता की तुलना में किं कर्मं किं अकर्मेति की दुविधा में पड़े अल्पज्ञों में चुनाव करना हो तो मैं दूसरे का चुनाव करूंगा। इसे समझाया और सही राह पर लाया जा सकता है, उनको अपराधियों की श्रेणी में रखने का अधिकार मुझे नहीं है, परन्तु संगठित हो कर, योजनाबद्ध अपराध उन्होंने किया है यह दावा करने में मुझे संकोच नहीं है ।