हंसी आती है अपने रोने पर
उसने मिसरा पूरा किया, ” और रोना है जग हंसाई का । भई तुमने कल देश का जो बौद्धिक खाका खींचा उसमें तो लगता है हम बुद्धिविहीन वर्तमान में जी रहे हैं । फिर यह देश चल कैसे रहा है ?”
”चलने के लिए तो पहले अपने पांवों पर खड़ा होना पड़ता है । यह तो अपने पांवों पर खड़ा तक नहीं हो सका। अपनी जरूरत का आधा माल बाहर से खरीदता है और उस पर गर्व करता है । अपने देसी उत्पाद पर लज्जित अनुभव करता है । चल रहा होता तो वह एशिया के दूसरे देशों की तुलना में, जो उस चरण पर जब हमें स्वतन्त्रता मिली, हमसे हर माने में पीछे थे, आज भी अपनी अग्रता बनाए रखता। उनसे पिछड़ता गया है और आज उनसे अनुरोध कर रहा है कि आओ, जो माल वहां बना कर हमें बेचते हो, यहां बनाओ और सारी दुनिया को बेचो। दूसरे जहां चलते रहे, वहां हम घिसटते रहे । घिसटने वाला भी अपने पिछले मुकाम से कुछ आगे सरकता तो है ही।
”प्रश्न तुलनात्मक प्रगति का है। हमारी नगण्य प्रगति में प्रौद्याेगिकी की भी एक भूमिका है जो सभी देशों को बाजार के नियम से पहुंची है। जिन गांवों और कस्बों में टेलीफोन तक नहीं था, वहां हर तीसरे आदमी के पास मोबाइल है और उससे जुड़ी सुविधाएं हैं। इसलिए प्रश्न मैने जो खाका खींचा है उससे घबराने का नहीं अपितु यह विचार करने का है कि किन प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करने के कारण हम अपने पांवों पर खड़े तक न हो सके। अपनी समस्याओं पर स्वयं गंभीरता से विचार करने से कतराते रहे और उनके विषय में विदेशियों के लेखन और विवेचन से कुछ तिनके उठा कर काम चलाते रहे और इन तिनकों की ढेर के अनुपात में ही अपने को विद्वान समझते रहे। किसी न किसी हाल में जीवित रहना, या पहले से कुछ अधिक सुविधाओं से लाभान्वित होना तो औपनिवेशिक अवस्था में भी संभव होता है । हम सचमुच स्वतन्त्र हुए या मात्र सत्ता का हस्तान्तरण हुआ और शेष पूर्ववत चलने दिया ? हमारी स्वतंत्रता तो मात्र शोर बन कर रह गई, जीवन में उतर ही न पाई।”
वह कुुछ देर उधेड़-बुन में पड़ा रहा, फिर बोला, ”देखो, हमें औपनिवेशिक विरासत नहीं मिली थी, जिस महारथ पर उपनिवेशवादी सवार थे, उसे जाते-जाते, खीझ में योजनाबद्ध रूप में उन्होंने तोड़ और अपनी ओर से बर्वाद कर दिया । समस्या थी इसे जिस रूप में यह हमें हासिल हुआ था उसमें इसको और बिखराव से रोकते हुए एक नये समाज की रचना का । उसमें ही हमारी सारी शक्ति लग गई ।”
”अौर यह रचना तुम उन्हीं तत्वों की मदद से करते रहे जिनको हथियार बना कर उस महारथ के धुरे और पहियों को तोड़ा गया था।”
”तुम कहना क्या चाहते हो ?”
”कहना यह चाहता हूं कि हमारे पास जो आर्थिक और प्रौद्योगिक आधार था, उसे उपनिवेशवादियों ने अपनी जरूरत से तैयार किया था । उसका संचालन उनके हाथ में था। हमारा उपयोग वे अपने पुर्जो के रूप में करते थे । हमने उस आधार से अपना आत्मीय संबंध कभी बनाया नहीं, बना भी नहीं सकते थे, क्योंकि इसका रास्ता रोक कर वे खड़े थे । वे हमारा उपयोग कर रहे थे, हमें प्रबुद्ध होने देना नहीं चाहते थे । निर्माण का कार्य, नई पहल का काम, अनुसंधान का काम, उसके लिए अपेक्षित अनुशासन यह रेल लाइन, यातायात के साधन और प्रशिक्षित सेना मिलने से नहीं आरंभ हो जाता । चेतना के रूप को बदलने से होता है । चेतना का यह रूप भाषा और सोच से जुड़ा होता है । इस दिशा में उपनिवेशी दासता में पले देशों ने ध्यान नहीं दिया, और वे आभ्यन्तरित दासता पर गर्व करते हुए उसे बनाए रखने ही नहीं अपितु बढ़ाने पर लगे रहे । सामाजिक सामरस्य के लिए हमें एक नई शुरुआत की जरूरत थी । उसके लिए एक देसी सोच और समझ वाले नेतृत्व की जरूरत थी, अंग्रेजों को अपना आदर्श मानने वाले, किताबों के माध्यम से देश से जुड़ने का प्रयत्न करने वाले और दासता के मूल्यों का विस्तार करने वाले नेतृत्व का नहीं । बांटो और राज करो वाली नीति पर चलने वाले नेतृत्व की तो कदापि नहीं । कम से कम विभाजित हिन्दुस्तान में इसके सभी टुकड़ों को ऐसा ही नेतृत्व मिला इसलिए हमारी दशा औपनिवेशिक दौर से भी अधिक खराब, अधिक अरक्षणीय और अधिक पराश्रयी होती चली गई ।
”एशिया के वे देश जो बहुत पीछे थे, उनकी चेतना इस तरह अवरुद्ध नहीं थी । विकास के लिए यंत्र की विरासत नहीं, चेतना के रूप की आवश्यकता होती है, इसलिए नई चुनौतियों का उन्होंने हमसे अधिक दक्षता से सामना किया । अंग्रेजी न जानते हुए भी उन्होंने पश्चिमी देशों से हमारी तुलना में अधिक सीखा और उस सीखे का नये रूप में समंजन किया कि वे अपना माल उन देशों को भी बेचने में समर्थ हुए जिनसे यह गुर सीखा था ।
”हम अंग्रेजी जानते हुए, इसे विश्वज्ञान की कुंजी मानते हुए, अधिक से अधिक दास भाव से ब्रितानी उच्चारण को अपना मानक बनाने पर अधिक ध्यान देते रहे, सीखा कुछ नहीं। स्वतन्त्रता में भी दासता के नए संस्करणों का आविष्कार करते हुए मानसिक रूप में औपनिवेशिक दौर से भी अधिक पराश्रयी बनते चले गए। इसका ध्यान कम से कम उनको तो होना चाहिए जो अपने को भारतीय समाज का बुद्धिनिधान मानते हैं, पर है क्या? जिस संघ की सीमा को हम बयान कर रहे थे, उसे तो हो ही नहीं सकती।
”अपने अज्ञान को समझने के लिए भी ज्ञान की जरूरत होती है। हम जितना कम जानते हैं, अज्ञात का दायरा उसे ही घेर कर बहुत छोटा होता है । ज्ञान के विस्तार के साथ ही अज्ञान का परिसर भी विस्तार पाता है । यदि संघ से जुड़े लोग अपने वर्तमान की सफलताओं से संतुष्ट हैं तो उसका कारण समझा जा सकता है, परन्तु दूसरों की चूक से आकाशपतित अवसर को संभालने का भी यदि शऊर नहीं पैदा हुआ तो आप देश का क्या भला करेंगे? आए हुए अवसर को भी गंवा देंगे ।
”परन्तु जो अपनी बहुज्ञता के अहंकार में यह तक नहीं समझ पाए कि उनका देश क्या है, समाज क्या है, उनकी जो गति हो रही है वह क्यों हो रही है, उनकी अपनी जो गति हो रही है वह क्यों हो रही है, जो उन्हीं मूर्खताओं को बच्चों जैसी जिद से दुहराते चले जाते हैं, उनके लिए तो किसी ऐसे शब्द का आविष्कार करना होगा जो मूर्खता के सभी अकीर्तिमानों को पार कर जाय ।”
”तुम फिर उसी बिन्दु पर पहुंच गए जहां कल तुमने अपनी बात का अन्त किया था । यह तो विचार विमर्श न हो कर सांप और सीढ़ी का खेल हो गया। हमें करना क्या है यह तो बताते ।”
”यदि इतनी अक्ल होती तो मैं उतनी गलतियां नहीं करता जितनी मुझसे होती रहती हैं । फिर भी यह जान कर मेरा मनोबल कुछ उठता तो है ही कि जिन्हें समझदार समझता था वे तो मुझसे भी अधिक नासमझ हैं । इतने लंबे समय तक लगातार समझाते रहने के बाद भी यह मोटी सी बात मित्रों और अमित्रों को नहीं समझा सका कि भाषा जिसके माध्यम से ही विचार संभव है, उसकी महिमा को नष्ट तो मत करो । कम से कम गालियों और फिकरों और फब्तियों की भाषा से तो बचो, वे तो अधिक गिरे हुए के पास कुछ अधिक मात्रा में हुआ करती हैं और उनके प्रयोग से तुम अपने को गिरे हुओं की जमात में शामिल कर लेते हो, तुम्हारा ज्ञान और करतब कुछ भी क्यों न हो ।
”जिसके पास तर्क, प्रमाण और औचित्य नहीं होता है उसके पास गालियों का भंडार होता है और अपने को गलत सिद्ध करने का सबसे सीधा उपाय है सटीक व्याख्या से बचना और फब्तियों, फिकरों, गालियों का इस्तेमाल करना । इतनी सी बात अपने सुपठित बुद्धिनिधानों को नहीं समझा सका । विचार विमर्श का स्तर इतना गिरा हुआ कभी था, यह मुझे याद नहीं । इसका बोध सभी को है, यह भी एक सचाई है, पर इससे उबरने की आकांक्षा तक का अभाव देख कर विदांवरों की बुद्धि पर तरस आता है ।