Post – 2016-12-06

मुक्तिमार्ग

”तुम बताओगे जिस अधोगति की बात तुम करते हो, उससे उबरने का क्‍या तरीका हो सकता है ?”

”मैं बताता आया हूं, पर तुम्‍हारी समझ में यह नहीं आया । सवाल पूछ रहे हो । एक मोटी बात समझ लो, सामान बनाना आसान तो नहीं, पर बहुत मुश्किल नहीं । अवसर, साधन, प्रशिक्षण सुलभ हो तो कोई भी सामान, किसी भी कोटि का सामान तैयार किया जा सकता है। इसका लाभ उठा कर हमने अन्‍तरिक्ष विज्ञान में अग्रणी देशों को भी कुछ दृष्टियों से पीछे छोड़ दिया है । यह काम रक्षा और दूसरे क्षेत्रों में भी किया जा सकता था । किया जा सकता है । उसकेे लिए संसाधनों की और अनुसंधान की सुविधाओं की आवश्‍यकता है, जिसकी ओर ध्‍यान नहीं दिया गया। मोदी का ध्‍यान कौशल के विकास और लघु उद्योगों के प्रोत्‍सान के पीछे यही दिखाई देता है। इसमें सभी को यथा संभव सहयोग करना और समर्थन देना चाहिए । वह कर कितना पाते हैं, वह तो परिणामों से ही पता चलेगा ।
परन्‍तु सामान बनाने से अधिक कठिन चुनौती है, इंसान को इंसान बनाने की । यह मानविकी की शिक्षा से संभव है । वह जितनी वस्‍तुपरक या आग्रह से मुक्‍त होगी उतनी ही सफलता से अपना काम कर पाएगी। इसकी ओर लंबे समय से ध्‍यान नहीं दिया गया है और जिनके सुपुर्द इसे किया गया वे अपने दायित्‍व को समझ नहीं सके और पूरी शिक्षा प्रणाली को ही लुंजपुंज करते चले गए । आज हमारे विश्‍वविद्यालयों में उस स्‍तर के भी विद्वान नहीं है जो आज से पचास साठ साल पहले थे । अपने क्षेत्र के प्रति समर्पित, अपने कर्तव्‍य के प्रति सचेत, अपनी अकादमिक उपलब्धियों पर अपने ठाट बाट की तुलना में अधिक गर्व करने वाले और इन कारणों से अपने छात्रों के बीच उतने ही समादृत । विषय कोई हो, उनका मुख्‍य आकर्षण राजनीति की ओर हो गया।

”राजनीति से तुमको इतना परहेज क्‍यों है ।”

”मुझे राजनीति से परहेज नहीं है । मेरा समस्‍त लेखन राजनीतिक है, यह मैं बता आया हूं। इसीलिए मुझ सकि्रय राजनीति से जुड़ने के प्रति उदासीनता रही है और इसीलिए सक्रिय राजनीति को ही राजनीति का एकमात्र विकल्‍प मानने वाले अक्सर मुझसे असहज अनुभव करते रहे हैं । मेरी राजनीति रही है भारतीय मानस काे औ‍पनिवेशिक दासता से मुक्ति दिलाना । भौतिक स्‍वतन्‍त्रता के अधूरे कार्यभार को पूरा करना । राजनीतिक सत्‍ता की लड़ाई हमें दूसरों से लड़नी पड़ी और विभिन्‍न कारणों से ब्रिटेन को सत्‍ता अपनी खिन्‍नता और आक्रोश के बाद भी हस्‍तान्‍तरित करनी पड़ी । औपनिवेशिक मानसिकता को बनाए रख कर हम पूरी तरह स्‍वतंत्र न तो हो सकते थे, न ही हो सके । औपनिवेशिक मानसिकता के विरुद्ध लड़ाई अपने लोगों से, औपनिवेशिक औजारों को अपना कर अपने लिए सत्‍ता को सुनिश्चित करने वालों के विरुद्ध लड़ाई थी। हमारे राजनीतिक दलों में से कोई ऐसा न था जो औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्‍त रहा हो या मुक्‍त रहने केे लिए प्रयत्‍नशील तक दीखे। इसका कुछ अपवाद समाजवादी पार्टी को माना जा सकता था। यह एक कठिन संघर्ष था जो आत्‍म से आरंभ होकर अपर तक पहुंचता था। इसे सत्‍य की खोज और प्रतिष्‍ठा के माध्‍यम से ही लड़ा जा सकता था । मैंने इस राजनीति को चुना था और जब चुना था तब और उसके बहुत बाद तक यह तक समझ नहीं पाया था कि मैं एक राजनीतिक मोर्चा संभालने जा रहा हूॅ क्‍योंकि तब यह भ्रम बना हुआ था कि यदि सत्‍य का उद्घाटन हो जाय तो जो लोग गलत मान्‍यताओं में उलझे हुए हैं, वे उसे स्‍वीकार करने में संकोच या उसका विरोध करेंगे । यद्यपि अपनी 1970 में प्रकाशित कविता की पंक्तियों में इसे एक वैचारिक संघर्ष के आरंभ के रूप में ही लिया था।”

”इसका हवाला तुमने एक बार और दिया था, मुझे याद है। पर कविता मेरी नजर से नहीं गुजरी ।”

”कुछ लंबी कविता है, पर उसकी कुछ पंक्तियां मेरे मन्‍तव्‍य को स्‍पष्‍ट कर सकती हैं। कविता का शीर्षक ही था, ‘मैं फिर तोड़ता हूं इस तिलिस्‍म को। यदि किसी को मेरे उस संकल्‍प का ध्‍यान न हो जिसका निर्वाह मैंने अविचल भाव से किया है तो यह कविता बड़बोलेपन का उदाहरण प्रतीत होगी, यदि ध्‍यान हो तो एक प्रतिज्ञा।”

”तुम बात बात पर सिद्धांत क्‍यों बघारने लगते हो,वह प्रतिज्ञा तो सूनूं।”
मैं उसकी एक प्रतिज्ञा की याद दिलाऊंगा :
मुझे पता है/ मैं भाग खड़़ा हुआ था कई मोर्चों से/ पर आज उतरता हूं एक महासमर में/ अपने ही विरुद्ध/ मैं तोड़ूंगा कुछ नही/ सिर्फ परिभाषा बदल दूंगा और धुएं में तने कंगूरे हवामुर्ग में बदल जाएंगे।

मेरा समस्‍त लेखन परिभाषाएं बदलते हुए सत्‍य के साक्षात्‍कार का अभियान रहा है ।
एक लेखक की राजनीति, एक शिक्षक की राजनीति, एक दार्शनिक की राजनीति उस व्‍यावहारिक राजनीति से भिन्‍न होती है जिसमें सभी मूल्‍यों, मानों, आदर्शों को तिलांजलि दे कर केवल सफलता पाने की कामना होती है। व्‍यावहारिक राजनीति को तो लिंकन से ले कर गोएबेल्‍स तक ने गर्हित माना है। वह संस्‍कृतिविरोधी है । पाखंड उसका दुर्ग है।”

”उससे बचा जा सकता है ? उसके बिना काम चल सकता है ?”

”उसमें इस तरह भाग लिया जा सकता है कि हम अपने को भी और पूरे समाज को भी उसकी मलिनताओं से बचाए रख सकें और इस तरह व्‍यावहारिक राजनीति के स्‍तर को भी ऊपर उठा सकें ।”

वह हंसने लगा, ”जरा प्रकाश तो डालो ।”

”तुमने कभी युद्ध देखा है ? मेरा मतलब है, देखा तो होगा ही और न देखा हो तो सुना और जाना तो सभी ने होगा। युद्ध मोर्चे पर खड़ा सिपाही ही नहीं लड़ रहा होता है। देश का प्रत्‍येक नागरिक युद्ध के मोर्चे पर होता है, परन्‍तु उसका मोर्चा भिन्‍न होता है । यदि युद्ध लंबा खिंचे और देश में अनाज की ही कमी पड़ जाय तो शत्रु का सामना किया जा सकता है? यदि रसद समय से न पहुंच पाए, गाडि़या समय से न चल सकें, शस्‍त्रागारों में असला तैयार न होता रहे, या यदि घबराहट में नागरिकों का मनोबल ही टूट जाये तो तुम केवल बहादूर सैनिकों और उनकी गोलियों और बन्‍दूक से युद्ध जीत नहीं सकते । इसलिए एक किसान जो अधिक मुस्‍तैदी से अपनी खेती करता है, एक कारोबारी जो ईमानदारी से सामान की भरपाई करता है, जमाखोरी से बचता है, एक कारखानेदार जो अपना उत्‍पादन अधिक तत्‍परता से करता है, परिवहन से जुड़ा प्रत्‍येक व्‍यक्ति जो सैनिकों से ले कर असले तक के संचलन में अपनी भूमिका निभाता है, और यहां तक कि खतरों की संभावना होते हुए भी एक नागरिक जो सामान्‍य भाव से अपने काम से ले कर मनोरंजन तक में जुटा रहता है जिससे लोगों का मनोबल बना रहे, ये सभी उस समर में अपने अपने मोर्चे पर युद्धरत होते हैं । किसी की शिथिलता का विजय की संभावना पर असर पड़ सकता है। युद्ध का पहला पाठ है अपने मोर्चे पर पूरी ईमानदारी और निष्‍ठा से काम करना न कि अपना काम छोड़ कर इधर उधर भागना।

”ठीक यही बात राजनीति पर लागू होती है। हम अपने कार्यक्षेत्र में पूरी निष्‍ठा से काम करें, अपने विषय के अपनी क्षमता के अनुसार अधिकारी व्‍यक्ति बन सकें तो वह अनुशासन, वह निष्‍ठा, विषय पर वह अधिकार एक ऐसा स्‍वस्‍थ माहौल बनाने में सहायक हो सकता है जिसमें व्‍यावहारिक राजनीति की मलिनता से मुक्ति पाई जा सके और उसका स्‍तर अधिक शालीन और मर्यादित बनाया जा सके । आज तो गिरावट उस स्‍तर पर आ चुकी है जिसमें सभी मर्यादाएं नष्‍ट हो चुकी हैं । यदि यही राजनीति छात्रों, अध्‍यापकों सभी में प्रवेश कर जाय तो वहां भी समस्‍त मर्यादाएं टूटेंगी, यह समझाने की बात नहीं है । यही हो रहा है और हमारे बौद्धिक दिवालियेपन का सबसे बड़ा कारण यही है ।”

”तुम यह क्‍यों भूलते हो कि छात्रों ने आन्‍दोलनों में भाग लिए हैं, उन्‍होंने अपने आन्‍दोलन से सत्‍ता के चरित्र को बदला है।”

”उन्‍होंने जब भी ऐसा किया है, अपना नुकसान किया है । उनके किए कुछ खास नहीं हुआ है । अक्‍सर उन्‍हें यह पता ही नहीं चला है कि वे क्‍या कर रहे हैं, क्‍योंकि उनको उकसा कर उनका इस्‍तमाल धूर्तों और देशद्रोहियों द्वारा किया गया है। इस पर कोई शोध उपलब्‍ध नहीं है, या कम से कम मेरी जानकारी में नहीं है, परन्‍तु मोटा निष्‍कर्ष यही निकलता है । पर तुमने राजनीति को बीच में ला कर मुझे अपने विषय से भटका दिया ।”

वह कुछ बोला नहीं, उत्‍सुकता से मेरी ओर देखता रहा ।

”मैं कह रहा था कि सामान बनाने से अधिक जरूरी है आदमी बनाना जो मानविकी की शिक्षा को वस्‍तुपरक बनाने से ही संभव है। न इस ओर पहले ध्‍यान दिया गया न मोदी को इसका आभास है और न ही उनके मानव संसाधन मंत्रालय का कार्यभार संभालने वालों की समझ में इसका महत्‍व आ सका है ।”

”तुम्हारे पास कोई सुझाव हो तो उसे भेज दो।”

”सुझाव तो दे सकता हूं, पर वह अमल में नहीं आ सकता । उसकी तैयारी तक नहीं है । हां यह कह सकता हूं कि मानविकी को नष्‍ट इतिहास के विकृत लेखन से आरंभ किया गया था और इसे सुधारा इतिहास को तथ्‍यपरक और वस्‍तुपरक बना कर जा सकता है, परन्‍तु उन तथ्‍यों की खोज के लिए बुनियादी तैयारी तक नहीं है। पहले उसे प्रोत्‍साहित करना होगा । प्राचीन भाषाओं का ज्ञान या कहो उन भाषाओं का ज्ञान जिनसे मूल ग्रन्‍थों तक हमारी पहुंच हो सके ।”

उसने फिकरा कसा, ‘दिल्‍ली दूर एस्‍त ।” और उठ खड़ा हुआ ।