इतिहास का इतिहास
”बात कहीं से शुरू हो तुम घूम कर इतिहास पर चले जाते हो । पहले मानविकी की शाखाओं की बात की और फिर अन्त में इनमे से इतिहास पर जम गए । तुम्हें पता है कई देश ऐसे हैं, जिनमे इतिहास नहीं पढ़ाया जाता और वे दुनिया पर राज कर रहे हैं।”
”तुम्हारा ध्यान इस बात की ओर नहीं जाता कि वे अपने इतिहास का सामना नहीं कर सकते । इसकी क्षतिपूर्ति के लिए वे दूसरे देशों का इतिहास और पुरातत्व पढ़ते और उनको उसके माध्यम से अपने वश में रखना चाहते हैं । इतिहास के बारे में मैंने पहले कई बार अपनी समझ तुमसे साझा की है । जो इतिहास से बच कर, अपने वर्तमान से आरंभ करते हैं उनकी आबादी में मनोविकृतों की संख्या का अनुपात अधिक होता है। वे केवल यह देखते हैं कि अमुक के पास इतना था आज इतना हो गया और इस होड़ में जिस भी साधन से अधिक से अधिक जोड़ा जुुगाया जा सकता है उसे जोड़ने सहेजने में लग जाते हैं । मिलावट, नकली उत्पाद, अपराध के विविध रूप, नैतिक गिरावट के सभी रूप इसी से जुड़े हैंं जिनको इस बात की याद तक नहीं कि अपनी साख को बचाने, आत्मसम्मान की रक्षा के लिए उनके ही पुरखों ने किस तेवर से ऐसे प्रलोभनों का सामना किया था।
”तुम्हारे पास घर हो, तो तुम घर बनाने पर अपना समय नष्ट न करोगे, उस घर को बसाने, सुखी रखने की चिन्ता ही पर्याप्त होगी। परन्तु यदि तुम्हारा घर किसी आपदा के कारण या किसी की दरिंदगी के कारण उजाड़ दिया गया हो, तो तुम्हारी पहली जरूरत अपना घर बनाने की होगी। इतिहास के साथ भी यही है । हमारे पास जैसा तैसा एक इतिहासबोध था जिससे हमारा काम चल जाता था। उसका सही होना उतना जरूरी नहीं जितना उसके सही होने पर हमारा विश्वास होना जरूरी है । वह इतिहास भी हो सकता है और पुराण्ा भी या साहित्य का एक कल्पित चरित्र भी जैसे मजनू । वह हमें प्रेरित करता है, हमारे आचरण को प्रभावित करता है और सामान्य जीवन में हम जिस तरह के बलिदान के लिए तैयार नहीं हो सकते, उसके लिए वह हमें प्रेरित करता रहता है । हमारे उस अतीत बोध को नष्ट कर दिया गया और जो हमारा वास्तविक इतिहास हो सकता था उसे भी विकृत करके प्रस्तुत किया गया जिससे हमारा वह बावला समाज पैदा हुआ है जिसके समझदार लोग भी यह नहीं समझ पाते कि वे जो कर रहे हैं, वह उनका काम है या किसी दूसरे के घर पानी भर रहे हैं। इस समाज को देख कर घबराहट होती है। अधकचरे दिमाग के लोग नैतिक शिक्षा पर जोर देने का सुझाव देते हैं । सच कहें तो यह काम हमारे इतिहास का है, उसके प्रेरणा के स्रोतों का है। उसी की विकृति से यह व्याधि पैदा हुई है और उसे सही करने से समाज के उस मेरुदंड को शक्ति मिल सकती है जिससे वह अपने स्वाभिमान के साथ खड़ा हो सके । तुम भारतीय समाज को देखो, इसका स्वामिमान नष्ट हो गया है और उस खाली जगह को अहंकार और दंभ ने भर दिया है। जरूरत इसके स्वाभिमान को जाग्रत करने की है, उसी से देश निष्ठा, समाजनिष्ठा, सत्य निष्ठा सभी जाग्रत हो जाते हैं।
वह हंसने लगा, ”तो अब हमें ज्ञान विज्ञान को छोड़ कर इतिहास और पुराण की ओर मुड़ना चाहिए और उसी से हमारी सारी समस्यायें हल हो जाएंगी । पीछे चलते हुए हम आगे बढ़ते चले जाएंगे ।”
”मैंने युद्ध की मिसाल दी थी और यह बताया था कि यदि सभी लोग अपना काम छोड़ कर मोर्चे पर खड़े होने को दौड़ पडें तो वह देश बिना लड़े ही हार जाएगा क्योंकि उसके मोर्चे पर ऐसे लोगों की भीड़ बढ़ जाएगी जो लड़ना नहीं जानते और दूसरे सारे काम हो ही नहीं पाएंग। मोर्चे पर कटने वाले उत्साही लोगों की जमात अवश्य मिलेगी। इसलिए युद्ध पूरा देश लड़ता है परन्तु अपने मोर्चे पर खड़ा हो कर । ज्ञान विज्ञान और प्रशिक्षण के मामले में भी यही लागू होता है । इतिहास की गहन खोज के लिए कुछ थोड़े से लोगों की जरूरत होती है, पूरे देश की नहीं । एक बार तुम्हारा इतिहास सही सही लिख लिया गया तो बाद में श्रम मामूली सजावट और मरम्मत तक सीमित रह जाती है। और जो हमारा समाज है वह तो उसी मकान में रहने वाला परिवार है जिसके सिर पर छत न रहने पर वह बावला सा बना रहता है, छत के मिलते अपने अपने सुकून के काेने तलाश लेता है । जिस समाज का इतिहास गड़बड़ है उसका समाजशास्त्र भी गड़बड़ रहेगा, रीति नीति या नृतत्व भी अटपटा रहेगा, मनोविज्ञान भी लुंजपुंज रहेगा, इसलिए मैं इतिहास को इतना महत्व देता हूं । इसे यदि नष्ट किया गया है तो पहले इसे ठीक करना होगा और इसके लिए किसी सेना की आवश्यकता नहीं है, कुछ दर्जन लोगा ही यदि समर्पित भाव से काम करें तो इसके लिए पर्याप्त हैं।”
”तुम जब कोई बात कहते हो तो लगता है ठीक ही कह रहे हो । कुछ लोग बात गढ़ना जानते हैं और गलत को भी सही सिद्ध कर देते हैं। तुम भी इसी कोटि में आते हो । जब कह रहे हो इतिहास की शिक्षा, इतिहास की खोज और इतिहास का पुनरुद्धार सबसे जरूरी काम है तो मानने के अतिरिक्त कोई उपाय नही रह जाता। परन्तु कुछ अलग जा कर सोचता हूं तो बात कुछ अतिरंजित तो लगती ही है ।”
”मैं अदना सा आदमी, मेरी बात पर तो वैसे भी विश्वास करते हुए झिझक बनी रहेगी। मैं तुम्हें एक इतिहासवृत्त सुनाता हूं। इर्फान हबीब के पिता मोहम्मद हबीब जो असाधारण प्रतिभाशाली छात्र थे इंग्लैंड में पढ़ रहे थे । वह आक्सफोर्ड मजलिस से भी जुडे थे और एक बार उसके अध्यक्ष भी रहे थे । विचार उनके राष्ट्रवादी थे । उसी बीच मुहम्मद अली इंग्लैंड पहुंचे थे । उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने कहा, असली ज्ञान इतिहास का जरूरी है क्योंकि समाज को इसी से नियन्त्रित किया जाता है और उनके प्रभाव में उन्होंने इतिहास की ओर रुख किया अौर इंग्लैंड में बसने की जगह भारत को अपना कार्यक्षेत्र बनाया । वह उसी जामिया मिल्लिया में अध्यापक बने जिसकी स्थापना मुहम्मद अली ने की थी। मुहम्मद अली मुस्लिम लीग के संस्थापक (1906) सदस्यों में से एक थे और बाद में कांग्रेस को खिलाफत का समर्थन करने के लिए मना लिया था। खिलाफत कांग्रेस का अपना आन्दोलन सा बन गया था। मुहम्मद अली ने भी खिलाफत में भाग लिया था और 1922 में जब चौरीचौरा कांड के बाद गांधी जी ने आन्दोलन वापस लिया तो अध्यापन उनका मुख्य क्षेत्र बन गया परन्तु राजनीति से कभी दूर नहीं हुए । वह अलीगढ़ विश्वविद्यालय में रीडर बने और फिर प्रोफेसर और अपने सेवानिवृत्ति के बाद एमेरिटस प्रोफेसर रहे। यदि मुहम्मद अली ने गांधी जी से निकटता पैदा की थी तो मुहम्मद हबीब नेहरू के मुरीद बने रहे और अपने वेतन का कुछ भाग कांग्रेस को दान देते रहे । बाद में वह कम्युनिस्ट पार्टी की ओर भी मुड़े थे ।
वह बहुत प्रतिष्ठित और प्रभावशाली इतिहासकार थे जिनका जोर मूल स्रोतों के अध्ययन पर अधिक रहता था। मेरे अनुमान से यह उनके ही प्रभाव का परिणाम था कि कोसंबी, जो दो सालों के लिए अलीगढ़ विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर थे, इतिहास की ओर मुड़े और स्वयं इस बात के कायल हो गए कि विज्ञान की तुलना में इतिहास का अध्ययन अधिक जरूरी है । उस प्रभाव में और कतिपय दूसरे कारणों से जिनका कुछ विस्तार से उल्लेख मैंने कोसंबी पर अपनी पुस्तक में किया है, कोसंबी ने मूल स्रोता का इकहरा और ध्वंसात्मक पाठ करते हुए प्राचीन भारत का इतिहास लिखा जो मार्क्सवादी इतिहास का पर्याय बना दिया गया और जिससे आगे प्राचीन भारत पर किसी अध्ययन अौर ज्ञान की आवश्यकता ही समाप्त कर दी गई ।
मैं मुहम्मद हबीब के ज्ञान और प्रभाव और निस्पृहता का सम्मान करता हूं और निस्पृहता के मामले में इर्फान हबीब का भी सम्मान करता हूं पर इस आडंबर के नीचे मुहम्मद अली और उनके लीगी झुकाव और मुहम्मद हबीब पर उनके प्रभाव को देखते यह नहीे सोच पाता कि दिखाने के दांत चबाने के दांत भी रहे हैं। इतिहास पर अधिकार करके पूरे समाज का कितना अनर्थ किया जा सकता है इसे समझ सको तो ही यह समझ सकते हो कि इस अनर्थ से बाहर आने का रास्ता भी इतिहास के स्रोतों तक पहुंचने और उनकी नई व्याख्या से ही संभव है । अपने तई मैंने यही किया परन्तु अकेला चना भाड़ नहीं तोड़ सकता । जरूरत समर्पित अध्येताओं की है, सरकारी वजीफे से न कवि पैदा होते हैं, न चिन्तक, न इतिहासकार । सरकार यदि सही रही तो सुयोग्य जनों का उपयोग करती है, अन्यथा यह परखती है कि यह पूरी तरह हमारी विचारधारा से अनुकूलित है या नहीं । ऐसी सरकार शिक्षा को भी नष्ट करती है और सर्जनात्मकता को भी । कई बार मुझे वर्तमान सरकार से भी इसी बात का डर लगता है ।