पततो पततो न वा
पंचतन्त्र में जिन कहानियों काे को एक बड़े कथा सूत्र में पिरोया गया है उन सभी के रचनाकार इसके रचनाकार विष्णु शर्मा नहीं हैं । इनके रचनाकारों का पता भी नहीं चल सकता । ये लोक में प्रचलित कथाएं थीं । ठीक इसी तरह इसमें जिन सूक्तियों का प्रयोग इस कथाबंध में किया गया है वे दूसरे कवियों की हैं । यह संभव है आवश्यकता होने पर उन्होंने स्वयं भी कुछ सूक्तियां अपनी ओर से रच दी हों । लोक रचित में कई बार कुछ भदेस सामग्री भी अाजाती है ।
ऐसी ही एक कथा एक सियार की है । वह अपनी जोरू के साथ नदी किनारे टहल रहा है । इसी समय एक सांड़ उधर से गुजरता है । सांड़ झूमता चला जा रहा था और उसका ललौहां कोश नीचे को लटका झूल रहा था । सियार ने इससे पहले किसी सांड़ को देखा नहीं था । उसने समझा यह कोई फल है । पक कर तैयार है अब गिरा कि तब गिरा । उसने अपनी जोरू को समझाया यहीं बैठी रहो अभी मै बहुत अच्छा उपहार लेकर आता हूं ।
वह सांड़ के पीछे इस आशा में लग गया कि फल तो गिरना ही है, झूल भी रहा है । अब गिरा कि तब । पर वह गिरने का नाम ही न ले । वह बहुत दूर तक उसका पीछा करता रहा। अन्त में निराश होकर वापस लौटा तो पाया कि उसकी जोरू किसी दूसरे सियार के साथ चली गई है ।
इस कहानी की याद इसलिए आ गई कि जब से मोदी के सत्ता में आने के आसार बने हमारे बीच कुछ ने, जिनके हित या तो ऐसे दलों से जुड़े थे जो लूट पाट में लगे हुए थे और जिनका टुकड़ा इन्हें भी पहुंच जाता था, या ऐसे दलों से नाता जोड़ चुके थे जिनक पास किसी ठोस कार्यक्रम के अभाव में, भाजपा को सत्ता से बाहर रखने का एकमात्र कार्यक्रम बच रहा था, और जिन्होंने अपने इस दुराग्रह से उसके सत्ता में आने का रास्ता अपनी ओर से भी आसान बनाया। वे अपनी बचकाने अायोजनों से पहले यह सोचते थे कि उसे हल्ला मचा कर आने से ही रोक देंगे, फिर यह आस लगाए रहे कि इसे अब गिराया कि तब । अनावृष्टि हो या कुवृष्टि, अातंकवादी हमले हों या अलगाववादी आन्दोलन, सीमारेखा पर तनाव हो या देश के भीतर विघटनकारी कारनामे इनकी सहानुभूति और समर्थन देश और समाज का अहित करने वालों के साथ रहा । कारण वे सोचते रहे कि इसके साथ ही मोदी अब गया कि तब । उन्हें किसी कीमत पर, यहां तक कि देश की बर्वादी की कीमत पर भी मोदी को सत्ता से हटाना था । प्रतीक्षा करते हार गए पर आस न छोड़ी ।
विमुद्रीकरण का फैसला बहुत बड़ा फैसला था । शायद ही कोई हो जिसे इसकी आंच न सहनी पड़ी हो । इन पंक्तियों के लेखक को कुछ कम असुविधा नहीं झेलनी पड़ी । कालाबाजारियों ने ठीक वही तरीका अपनाया जो रेलवे टिकट के कारेबारी अपनाते थे । इन्होंने बैंकरों को पटा कर अपना काला सफेद कर लिया और किसी को कानोकान खबर न हुई। करोड़ों की रकम सीधे बैंक से जमाखोरों के पास पहुंच गई और उनके गुर्गो ने कतार की लंबाई को तो बढ़ाया ही जिसका कुफल आम जनों को भोगना पड़ा, उनके माध्यम से निकासी के कारण कतार में खड़े लोगों का नंबर आए इससे पहले ही पैसा खत्म होता रहा । इसने उनकी आशा को आशातीत रूप में उत्तेजित कर दिया ।
वे कतारों की लंबाई, उनमें खड़े लोगों की असुविधा की कहानियां सुना कर मौके पर पहुंंच कर लोगों को भड़काते रहे और लोग कालेधन को खत्म करने के इस फैसले से इतने अनन्य भाव से जुड़े रहे कि इतनी कठिन असुविधाओं को झेलते हुए भी, उस देश में जहां मामूली से उकसावे या असुविधा पर लोग रास्ता जाम कर देते, तोड़ फोड़ पर उतर आते, वे अपना संयम बनाए हुए हैं। वे सारे दुख जो पहली बार जनता के दुख से कातर होने का अभिनय करने वाले अपनी जगह पर बैठे लंबी उसासें भरते हुए सुनाते है, उन्हें झेलते हुए वे यह समझ रहे हैं कि इससे निबटने का उतना ही अथक प्रयास सरकार कर रही है । कुछ असुविधा जनक स्थितियां आएंगी, कुछ थके ऊबे लोग आपसी झड़प पर भी उतारू होंगे, खास तौर से तब जब उनको पता है कि कतार में कालाबाजारियों के गुर्गे भी खड़े हैं जिनके कारण उन्हें असुविधा हो रही है, नोटों की आपूर्ति की शिकायते, एटीएम में पैसों की कमी, आदि की परेशानियों ने इनकेा उत्साह से भर दिया है कि अब की बार तो टपकेगा ही। अभी तक नहीं गिरा, संभव है जनता इसे यह जानकर झेल जाय कि यह एक व्यक्ति का फैसला नहीं है अपितु उनकी अपनी आकांक्षा का कार्यान्वयन भी है। गिरना तो संभव नहीं लगता और यदि कोई संकट सचमुच आया तो यह ग्रीक त्रासदी का मंचन होगा जिसमें सहानुभूति आपदा झेलने वाले के साथ रहती है ।
फिर भी गिरा अब गिरा की आश में पीछा करने वालों के धैर्य की भी दाद तो देनी ही पड़ेगी ।