Post – 2016-12-02

”यार तुम तो कह रहे थे हिन्‍दुओं में मेरे जितने मित्र हैं उससे कम मुसलमानों में नहीं हैं । पर जब तुम ‘बच के रहना रे बाबा, बच के रहना रे’ पर उतर आए तब समझ में आया तुम कितने पाखंडी हो । तुम्‍हें अपना कहा याद है या नहीं ।”

”याद क्‍यों न रहेगा, मैं तो सहस्राब्दियों पीछे की काम की बातें तक याद रहता हूं।यह बताओ तुम मेरे मित्र हो या नहीं । और मैं तुम्‍हारे विचारों और मान्‍यताओं से बच कर अपने मत पर कायम रहता हूं या नहीं । सावधानी और जहां बराव जरूरी हो वहां बराव, बुनियादी ईमानदारी से जुड़े प्रश्‍न है। पाखंड से तुम अपने को धोखे में रख सकते हो, दूसरे का मनोरंजन कर सकते हो, परन्‍तु उसका विश्‍वास नहीं जीत सकते। जब तुम अपने कथन और व्‍यवहार से यह सिद्ध करते हो कि तुम ईमानदार हो तभी अगले का विश्‍वास तुम पर जम पाता है जो मित्रता की पहली शर्त है ।”

वह फंस गया था ।

”मैं तुमसे एक सीधा सवाल करता हूं । तुम सांप्रदायिकता को अच्‍छी चीज मानते हो या बुरी ?”

”सांप्रदायिकता को कौन अच्‍छी चीज मानेगा यार ?”

”मान लो मैं । संप्रदाय और सांप्रदायिकता तो हमारे देश में लंबे समय से रहे हैं । उनकाेे अनेकों रूपों में देखा जा सकता है। एक रूप तो किसी सरोकार से जुड़ी बन्‍धुता से है । नाथ संप्रदाय
, वैष्‍णव संप्रदाय। तुम अंग्रेजी शब्‍दों को हिन्‍दी में अनूदित करके थोपते समय भी इस बात का ध्‍यान नहीं रख पाते कि अंग्रेजी में भी कम्‍युनैलिटी बुरी चीज नहीं है, कम्‍युनलिज्‍म बुरा हो सकता है, यूं तो कम्‍युनिज्‍म में जो कम्‍यून है उसमें भी कम्‍यून कम्‍युनिटी का ही द्योतक है । फिर भी कम्‍युनलिज्‍म या संप्रदायवाद बनने के साथ इसका अर्थ उलट जाता है और यह अपने संमुदाय की बन्‍धुता से आगे बढ़ कर इतर समुदायों या संप्रदायों के प्रति द्वेष बन जाता है। तुम अालसी स्‍वभाव के कारण दोनों में फर्क करने की भी जरूरत नहीं समझते । कला और कलावाद में जो अन्‍तर है वही सांप्रदायिकता और संप्रदायवाद में है, परन्‍तु हमारे यहांं ब्रितानी कूटनीति के तहत संप्रदायवाद और सांप्रदायिकता को समानान्‍तर विषबेलि की तरह उगाया और फैलाया गया । पहले अभिज्ञान के नाम पर हिन्‍दुओं की प्रत्‍येक जाति को दूसरी जातियों से, फिर एक ही जाति के बीच कुल गोत्र के अनुसार अपनी पृथक पहचान और उसकी उपाधि या उपनाम को जोड़ने को अदालतों के माध्‍यम से बढ़ावा दिया गया जिससे उनकी दबी सामूहिकता को उभार कर दूसरों से पृथकता पैदा की जा सके और दूसरी ओर जो संप्रदाय शाखाओं तक सीमित था उसे धार्मिक सामूहिकता के रूप में पेश करते हुए उन्‍हें अलग किया जा सके । यहीं से हिन्‍दूू मुस्लिम भेद को हिन्‍दू मुस्लिम प्रतिस्‍पर्धा और फिर एक दूसरे के अहित से जोड़ने का प्रयत्‍न किया गया। कहें सांप्रदायिकता को संप्रदायवाद, जातिभेद को जातिवाद के रूप में उभारने की योजना काम में लाई गई ।