अन्तकाल निज रूप देखावा
”एक लेखक के रूप में मेरा अस्तित्व, और कुछ दूर तक तक सम्मान भी, तुमसे दूसरे लेखकों और बुद्धिजीवियों से नाभिनाल की तरह जुड़ा है जिनकी मैं आलोचना करता हूं । यदि लेखकों और बुद्धिजीवियों पर से जनसाधारण का विश्वास उठ जाय, यदि पढ़ने में उनकी रुचि ही न रह जाय, यदि वे पढ़ने से पहले ही हमारे विचारों और निष्कर्षों का पूर्वानुमान करके सामने पड़ी सामग्री को पढ़ने की जरूरत ही न समझें तो इसके प्रभाव से वे लेखक भी नहीं बच सकते जो पूर्वानुमेय या प्रिडिक्टेबल नहीं हैं। मेरा विरोध उनके उनके विचारों से नहीं है, अपितु उस बदहवासी से है जिसमें वे नहीं जानते कि उनके विचार क्या हैं और उनको किस तरह व्यक्त किया जाय कि वह उस जत्थे से बाहर भी उत्सुकता पैदा कर सकें जिसके भीतर उनके अहो रूपं अहो ध्वनि: की गूंज उन्हें आत्ममुग्ध रखती है।”
”तुम आरोप लगाते हो कि हमने लीग की कार्ययोजना को अपनी कार्ययोजना बना रखा है परन्तु यह नहीं देख पाते कि तुम उतने ही गर्हित और संकीर्ण संघ और उसकी सन्तान भाजपा का समर्थन करते हो । क्या तुम्हें स्वयं पता है कि तुम क्या कर रहे हो?”
”मैं जानता था तुम यह प्रश्न उठाओगे । परन्तु तुमने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि मैं जानता हूं कि मैं किसकी हिमायत कर रहा हूं, इसे किसी से छिपाया भी नहीं और आज तक अपनी बात तर्क, औचित्य, प्रमाण और विश्लेषण के आधार पर रखता आया हूं। तुम मायाचारी हो, अपनी सचाई को स्वीकार नहीं कर पाते, जो कर चुके हो उसके परिणामों की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होते । तुम अपने को भी धोखा देते हो और दूसरों को भी धोखा देते हो और यह तुम्हारी आदत में शामिल हो गया है। तुम्हारे पास अपने कार्यों और विचारों का औचित्य नहीं इसलिए तुम्हें तर्क की जगह गालियों का प्रयोग करना होता है, फासिस्ट, भक्त, शाविनिस्ट । गालियां देने वाला, कोसने वाला स्वयं यह स्वीकार करता है कि उसके पास तर्क और औचित्य नहीं है। यदि मैं बताऊं कि तर्क का अभाव क्यों है और उसे कैसे दूर करके बुद्धिजीवी की भूमिका में आ सकते हो तो वह भी तुम्हारी समझ में नहीं आएगा।”
”हम क्या चाहते हैं यह तुम क्या समझोगे, पहले यह बताओ कि तुम क्या चाहते हो।”
”यह मैं कई बहानों से बताता आया हूं, तुम समझ नहीं पाए। अब भी समझोगे, यह विश्वास नहीं, फिर भी यह कह दूं कि मैं वही चाहता हूूं जिसकी अपने काे उदार दिखाने के लिए तुम दुहाई देते हो और फिर पलट कर उसी का सत्यानाश करने लगते हो । मैं उस बहुलता को बचाना चाहता हूं जिसे दूसरे मिटाना चाहते हैं । तुम बहुलता की, समावेशिता की बात भी करते हो और साथ उनका देते हो जिनको यह सहन नहीं, इसलिए दूसरी सांस में एकजुटता या इंटीग्रेशन की बात करने लगते हो, जो दूसरे सभी का मिट कर किसी एक आदर्श के अनुरूप बन जाने का, अपनी निजता को मिटा देने का पर्याय है और उन मजहबों का आदर्श है जो अपने मजहब से बाहर के लोगों को पूरा इंसान तक नहीं मानते और उनके साथ उनका समायोजन तब तक पूरा नहीं होता जब तक दूसरा धीरे-धीर उनके जैसा नहीं बन जाता। एकता नहीं अविरोध और सहयोग बहुलता का लक्ष्य हो सकता है, जिसे समझ न पाने के कारण दोनों जहां की नेमतें बटोरने के चक्कर में तुम दोनों की गलाजतें बटोरने लगते हो और जिसे मिटाना चाहते हो उस पर उन्हें आरोपित कर देते हो ।”
वह कुछ सोचता सा लगा, या संभव है मेरी बात अधूरे मन से सुनते हुए उसे यह समझ में ही न आया हो कि अभी अभी मैने क्या कहा है और उसे अपनी कल्पना में उन टुकड़ों के आधार पर गढ़ने में लगा हो। बोला तो उसके स्वर में आत्मविश्वास था, ”बात कहीं से शुरू हो, तुम घूम फिर कर मजहब पर क्यों आ जाते हो ?”
”यह याद दिलाने के लिए कि तुमने एक मजहब की सोच और कार्ययोजना को कम्युनिज्म और सेक्युलरिज्म नाम दे रखा है जिसके कारनामों का खुला समर्थन करने का साहस तुममें नहींं है। यहीं से वह ग्रन्थि पैदा होती है जिसमें तुम अपने ही कार्यो और विचारों के बीच अन्तर्विरोध को न समझ पाते हो न समझना चाहते होे, यही वह कारण है जिससे तुम अपना सामना स्वयं नहीं कर पाते। इस ग्रन्थि का विश्लेषण तुम्हारे भले के लिए मैं कर सकता हूं।”
वह हंसने लगा । यह झेंप और प्रतिवाद की मिलीजुली हंसी थी। मैंने हंसी पर ध्यान ही न दिया, ” तुम चाहो तो इसे समझ भी सकते हो, और इसकी दबोच को कम भी कर सकते हो, पर इससे मुक्त होना आसान नहीं है, यह तुम्हारे बजूद का हिस्सा बन गया है । जानना, चाहना सदिच्छा पर निर्भर करता है, परन्तु अपने को बदल पाना पूरी तरह हमारे वश में नहीं है ।”
अब उसके लिए अपने को संभाल पाना कठिन हो गया, ”क्या समझाना चाहते हो तुम, पहले अपने आप काे तो समझो ।”
”वह भी करूंगा। यदि तुम्हारी मदद की जरूरत हुई या तुम्हें लगा कि तुम मेरी मदद कर सकते हो तो मदद भी लूंगा, परन्तु अभी तो मैं तुम्हारी उस अन्तर्ग्रन्थि को खोलना चाहता हूं । तुम्हें केवल सीधे हां या ना में उत्तर देना होगा ।”
वह कुछ बोला नहीं, मुझे प्रश्नातुर दृष्टि से देखता रहा ।
वह कुछ बोला नहीं, मुझे प्रश्नातुर दृष्टि से देखता रहा ।
”आज की ही बात लो तो, तुम्हारी समस्या यह नहीं है कि आज के विमुद्रीकरण से लोगों को अहसनीय कष्ट हो रहा है और उन्हें इससे मुक्ति मिलनी चाहिए, बल्कि हर छोटी बड़ी परिघटना पर तुम्हारे मन में मोदी पर हमला करने, उसको सत्ता से हटाने की लालसा उग्र हो उठती है और आज यह उग्रतम हो गई है। सीधे जवाब देना, हां या नहीं ।”
”हां ।”
”मोदी में वह साहस और निर्णय क्षमता है जिसके कारण वह तुम्हें डरावना लगता है ?”
वह एक क्षण के लिए रुका और फिर कहा, ”हां।”
मोदी न भी होता, कोई तीसरा ही होता, फर्ज करो, आडवाणी तो भी तुम उसे सत्ता से हटाने के लिए कुछ बाकी नहीं रखते ।”
”इसमें पूछने की क्या बात है, तुम स्वयं लीगी शासन नहीं चाहोगे, मैं भी नहीं चाहूंगा, पर इसी तरह हम संघ का या किसी हिन्दू संगठन का शासन भी नहीं चाहेंगे ।”
”यह आदर्श स्थिति है, और यहां तक मैं भी तुम्हारे साथ हूं । समाज की खंडित दृष्टि रखने वाला पूरे समाज के साथ न्याय नहीं कर सकता । यदि केवल इसका निर्वाह करते तो तुमसे मुझे कोई शिकायत न होती। परन्तु इसमें हिन्दू मूल्यों, परंपराओं, महागाथाओं, ग्रंथों और इतिहास का उपहास और योजनाबद्ध ध्वंस भी शामिल हो जाय तब सोचना पड़ेगा कि इसका कर्ता कौन है? यह किसकी कामना रही है ? उसे पूरा करने वाला किसका कार्यभार संभाले हुए है ? यहीं आकर तुम अपने बचाव के लिए नाम भले लीग की संकीर्णता का लो, तुम उसके वारिस बन जाते हो और यह भूल जाते हो कि उसके द्वारा किए जाने वाले उपद्रवों से बचाव के लिए संघ की स्थापना और इसका अर्धसैन्य संगठन जरूरी हुआ था, न कि किसी पर आक्रमण करने या उपद्रव करने के लिए । दोनों में साम्य देखना गलत है ।
”तुमने लीग की विरासत संभाल रखी है, इससे अवगत भी नहीं हो, गो उस इतिहास से अनजान भी नहीं हो जिसमें यह विरासत अपनाई गई थी, इसलिए तुम्हारे विरोध में मुझको भाजपा का पक्षधर बन कर यह बताने की जरूरत पड़ी कि तुमने इस देश का उससे अधिक अहित किया है जितना भाजपा कर सकती थी।
”संघ को जिलाए रखने और ताकतवर बनाने के लिए भी तुम जिम्मेदार हो । तुम्हारे साथ जो लेखकों की पूरी अक्षौहिणी है उनमें से लगभग हर एक सुबह से शाम तक इस एक वाक्य को पचासों बार पचासों तरह से दुहराता है कि मोदी अब मरा कि तब और लगातार मरा मरा करते रहने के कारण वह तुम्हारेे ही राम राम सत्य है में बदलता चला जाता है । तुमने पूरे देश को एक व्यक्ति बना दिया है, मोदी के समर्थकों में भी कोई एक बार से अधिक उसके पक्ष में कुछ नहीं कहता और वह भी रोज ब रोज नहीं ।
”तुम जानते हो कि तुम जो चाहते हो वह होने वाला नहीं, इसलिए हताशा में गालियों पर उतर आते हो । मैंने इन गलियों में भटकते हुए प्रधानमंत्री के लिए भी गालियों का प्रयोग होते देखा है, यह वही प्रधानमंत्री है जिसकी तानाशाही प्रवृत्ति के कारण तुम्हें लगता है अभिव्यक्ति का संकट पैदा हो गया है ।
”भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाते जाने के अपराधी तुम हो ।
“तुम्हे पता है इस देश का एक नाम हिन्दुस्तान हुआ करता था, और यह भी भूला न होगा कि इसे तीन टुकड़ों मे बांटने की योजना को संभव बनाने में तुम्हारी निर्णायक भूमिका थी । उन दो टुकड़ों में हिन्दू सम्मान और सुरक्षा के साथ नहीं रह सकता। वह इन दोनों में विलुप्तप्राय प्राणी के रूप मेंं अपने दिन गिन रहा है और इस बात को लेकर तुम्हारे मन में कभी पीड़ा नहीं हुई । अकेला टुकड़ा जो उसके हिस्से में आया था, जहां वह दूसरों के साथ निर्वैर भाव से सम्मान के साथ रह सकता था, वह उसके प्रति निष्ठा की बात करता है तो तुम्हें घबराहट होती है । जब इसके विषय में भी हिन्दूद्रोही योजनाएं अमल में आने लगीं और यह लगने लगा कि काग्रेस के क्रिस्तानी चोला धारण करने के बाद अपने देश के अपने हिस्से में आए टुकड़े में भी हिन्दू का सम्मान से रह पाना संभव नहीं है, तब तुम चुप रहे । जब दो टूक शब्दों में मनमोहन सिह ने कहा, इस देश के संसाधनों पर पहला हक माइनारिटीज का है, तब तुम तुम चुप रहे । अब तुम हिन्दू राष्ट्रवाद का हौवा दिखा कर जनता को बर्गलाना चाहते हो तो जनता चुप रहती है । जब तुम देशद्रोहियों के साथ खड़े हो जाते हो और इस बचे हुए टुकड़े को तोड़ने की बात करते हो तो उसका यह विश्वास दृढ़ होता है कि इस देश को बचाने की चिन्ता अकेले भाजपा को है । दूसरे सभी सत्ता के भूखे भेड़िए हैं और इनके हाथ में देश सुरक्षित नहीं । मौका मिले तो ये देश को ही खा जाएंगे । यह देश हिन्दुओं का है और हिन्दू ही इसे बचा सकता है । दूसरे केवल इसमें हिस्सा मांगेंगे और सकारात्मक योगदान की जगह नकारात्मक भूमिका पेश करेंगे।
मैं जानता हूं इससे तिलमिलाकर तुम अपने बचाव के लिए नई गालिया गढोगे । अब वही तुम्हारे पास बच रही हैं, पर समझोगे नहीं । पर अब वे गालियां भी बे असर हो रही हैं । तुम बौखला कर अधिक से अधिक गर्हित उपमाएं तलाशते हो, आपस में शेयर भी करते हो, पर उनकी पहुंंच तुम्हारे गिरोह से बाहर नहीं रह गई है । और एक बात बता दूं, मैंने उसी दिन यह निर्णय लिया था जिस दिन मनमोहन सिंह ने वह ऐतिहासिक फेसला किया था कि इस देश के संसाधनों पर पहला अधिकार माइनारिटीज का है, और फिर जब उस बिल की रूपरेखा सामने आई थी जिसके अनुसार किसी सांप्रदायिक फसाद में यदि कोई हिन्दू भी शामिल पाया जाता है तो हिन्दू को ही अभियुक्त मान कर जांच की जाएगी, मैंने अपना स्थिर मत बना लिया था कि पूरे देश को सम्मान से जीने का अवसर केवल हिन्दू संगठन ही दे सकता है। चुनाव की घोषणा बाद में हुई। मोदी बाद में मंच पर आए । मैं मोदी के साथ नहीं अपने साथ था और आज भी हूं । मध्यकाल में भी केवल हिन्दू शासकों ने दूसरे समुदायों को सम्मान से जीने का अधिकार दिया था और भाजपा के शासन ने उसे झुठलाया नहीं, यह उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है ।”