मनुष्य के पास कितना दिमाग होता है । यह बात मैं शिक्षा और ज्ञान में अग्रणी लोगों को ध्यान में रख कर कह रहा हूं कि निन्यानबे प्रतिशत लोग बौद्धिक आलस्य के कारण या साहस के अभाव के कारण या मन में घर कर गए राग या उचाट के कारण अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं कर पाते। वे केवल अपने खेमे के साथ होते हैं। ऐसा न होता तो बुद्धिजीवियों की सोच और भाषा राजनीति की भाषा के इतने करीब न पहुंच जाती जिसमें भाषा और विचार की शुचिता नष्ट हो जाती है। वे यह भी समझने का प्रयत्न करते कि वे जो कुछ कर या कह रहे हैं उसका लाभ किसे मिल रहा है। इसके लिए अपनी जमात से बाहर निकल कर देखने और समझने का प्रयत्न करते और तार्किक विश्लषण करते हुए किसी परिघटना के चरित्र को समझने में मदद करते ।
वर्तमान की सबसे ज्वलंत घटना को लें जिसके कुछ खेदजनक अनुभव लगभग सभी को हुए हैं। मैं स्वयं अस्पताल में भरती हुआ, अग्रिम राशि दस हजार की एटीएम से जमा हुआ। गनीमत रही कि दवा के काउंटर पर पुराने नोट लिये जाते रहे इसलिए उस पर असुविधा न हुई । चार पांच हजार का खर्च पुराने नोटों से चल गया। छुट्टी के समय अस्पताल पुराने नोट लेने को तैयार नहीं। बैंक मे चेक भेजा, जिस भी मुश्किल से वह व्यक्ति पहुंचा, बैंक को हस्ताक्षर में फर्क दिखा, वह वापस लौट आया। तेईस चौबीस हजार का भुगतान किसी के पेटीएम से किया तो बाहर निकले। जिस दिन केवल वरिष्ठ नागरिकों के लिए बैंक खुला तो बीमारी में ही किसी तरह पहुंचा पर लंबी लाइन जिसमें एक दो बूढ़ों को छोड़ कर सभी नौजवान अपने घर के वरिष्ठ नागरिकों के आधारकार्ड आदि के साथ लाइन में। मैंने लाख समझाने की कोशिश की कि मुझे जाने दो, ये वरिष्ठ नहीं हैं, यह व्यवस्था अशक्तता को ध्यान में रख कर की गई है, मैं बीमार भी हूं। दो तीन बार के प्रयास के बाद उसने मुझे घुसने दिया। सीधे बैंक मैनेजर के पास पहुंचा और कुछ पैसा निकालने का प्रस्ताव रखा तो उसने मेरे खाते में चार लाख जमा देख कर कहा, आप चौबीस हजार से अधिक नहीं निकाल सकते। मैं तो दस पन्द्रह की उम्मीद में गया था। लाटरी खुल गई। दस हजार के सौ के नोट और चौदह हजार के लिए सात नोट । मैं आदतन जेब में रखने लगा तो उसने जोर दिया, इन्हें गिन लीजिए। मैंने कहा आपने गिन लिए ठीक ही होगा। उसने फिर जोर दिया, नहीं गिनिए तब जाइये। गिना और बाहर निकल आया।
लाइन आज भी लग रही है। मैं चार लाख की सेविंग में पड़ी रकम की एफडी कराने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। इससे पहले चार लाख्ा एफडी में डाला था, उसका सर्टिफिकेट लाने का साहस नहीं। असुविधा के अनेक रूप हैं। परन्तु इसकी जानकारी होते हुए भी मैं इसका समर्थक हूं और समर्थक है वह भुक्तभोगी समाज जो गांवों तक कई तरह के कष्ट भोग रहा है। पहली बात यह कि एक बार यह फैसला हो गया तो इसे अब वापस नहीं लिया जा सकता। परिणाम जो भी हो। जनता के मन में इतना ही आक्रोश काले धन के विरुद्ध था इसलिए उसका भी संकल्प है कि कष्ट जितना भी झेलना पड़े, इसके बिना देश को बचाया नहीं जा सकता था। इतने बड़े पैमाने पर लिया गया कोई कदम दोषों से पूर्णत: मुक्त नहीं हो सकता परन्तु यह जल्दबाजी में उठाया गया कदम नहीं है । इससे पहले कालाबाजारियों को खुला अवसर दिया गया था कि वे इतना अतिरिक्त कर देकर अपना काला धन सफेद कर सकते हैं। जो छोटी औकात के पर अधिक समझदार थे, उन्होंने उसका लाभ उठाया। यह चेतावनी दी गई कि समय इतना और बढ़ाया जा रहा है इसका लाभ उठाएं, अन्यथा हम अधिक कठोर कदम उठाएंगे। घाघ लोगों को इस बात का अनुमान तक न हुआ कि वह कठोर कदम हो क्या सकता है । और अन्त में यह कदम जिसकी तैयारी लंबे समय से चल रही थी घोषित हो गया। इसे जल्दबाजी में उठाया गया कदम नहीं कहा जा सकता। फिर भी अति उत्साह में उठाया गया बहुत बड़ा कदम तो माना ही जा सकता है िजसकी िवराटता पूर्वानुमान न हो सका और इसकी चिन्ता मोदी को भी अनुभव हो रही है । यह अभियान घर के भीतर छिपे हुए गद्दारों और जमाखोरेो और उनकी कृपापर पलने वालेबुद्धिजीवियों और समाचार चैनलों के िवरुद्धहै इसलिए इसे समग्र राष्ट्र का सहयोग नहीं मिल सकता । जनता कष्ट झेल रही है और इसका उपचार जल्द होना चाहिए ।
इसने सबसे बड़ा काम यह किया कि देख को दोफाड़ कर दिया। हैव्स और हैवनाट्स की इस लड़ाई में अपने को उज्जवल चरित्र का दिखाने वालों के भी चेहरों की रंगत बदल गई और वे जमाखोरों, और कालाबाजारियों के साथ खड़े हो गए अौर उस जनता की असुविधाओं का बहाना लेकर आर्तनाद करने लगे जो कहती है हम पर जो भी बीते झेलेंगे पर यह रोग खत्म होना ही चाहिए।ह