विविधता की अन्तर्निर्भरता (2)
हम जब किसी ऐसे मजहब की बात सोचते हैं जो उस मजहब से भिन्न मत मानने वालों के संहार की बात करता है, तो यह भूल जाते हैं कि हमारे यहां असुरों का संहार करने के लिए ही भगवान को अवतार लेना पड़ता रहा है। बाद में उन्हीं असुरों का हमारे समाज में ऐसा समावेश हो गया कि ब्राह्मणवाद को पहले से अधिक दृढ़ता से उन्होंने पुराणों, महाकाव्यों और स्मृतियों के माध्यम से स्थापित किया। यह दूसरी बात है कि ब्राह्मणों ने इसके बाद भी उन्हें अपने समकक्ष न तो माना न अपने में मिलाया। वे स्वयं अपे ब्राह्मण होने का दावा करते रहे । चारणों और भाटों की गणना इन्हीं में आती है।
अपने विशेष पर्यावरणवादी दर्शन के कारण असुरों में पिछड़ापन था, उसी के अनुरूप कट्टरता थी, पर साथ ही शिल्प और कौशल में निपुणता भी थी, जिसके व्यौरे में यहां जाना ठीक नहीं। हां, यह याद दिलाना जरूरी है कि यदि ब्राह्मणत्व के लिए प्रयत्नशील असुरों ने रूढि़वादिता का इतने सशक्त रूप में पोषण न किया होता तो वर्णव्यवस्था श्रमविभाजन के रूप में तो रह सकती थी, जन्मना या जाति बन कर न रहती, जिस रूप में आज तक बनी रह गई है। गाथी या गाथाकार कुश्ािक के पु्त्र कौशिक या विश्वामित्र के ब्राह्मणत्व प्राप्ति के लिए घोर साधना की कहानियां भी इसी को प्रतीकबद्ध करती हैं।
यह इतिहास इस बात का प्रमाण है कि भारतीय ब्राह्मणवाद किसी को अपने में मिलाता नहीं, जब कि दूसरे मजहब, जिनमें भारत के जैन और बौद्ध मत भी आते हैं, वे दूसरोंं को अपने उदाहरणों और विचारों से प्रभावित करने के लिए प्रयत्नशील रहे हैं । इस्लाम, ईसाइयत के साथ इसके लिए शक्ति के प्रयोग को उचित माना जाता रहा, क्योंकि उन देशों में वैचारिक संघर्ष का इतिहास उतना पुराना नहीं आैर इस्लाम में तो लगता है वह कुछ समय के लिए पैदा हुआ और उसके बाद जीवित न रह सका ।
इस दृष्टि से देखें ताे इस्लाम सबसे बन्द दिमाग का मजहब है जो आज भी उस निर्णायक चरण पर न पहुंचा जिस पर यूरोप उसकी प्रेरणा से पन्द्रहवी-सोलहवीं शताब्दी में पहुंच गया था। बुद्धिजीवी समाज का सबसे बड़ा कवच कट्टरपन्थियों की ज्ञान के प्रति उदासीनता और ‘किताब’ के भीतर ही समस्त ज्ञान को समाहित मानने की प्रवृत्ति है । यूरोप ने इसके लिए संघर्ष छेड़ा। मार्टिन लूथर ने बाइबिल का विरोध नहींं किया, परन्तु यह दावा किया कि उसे मानने से पहले हमें स्वयं यह जानने का अधिकार है कि उसमें लिखा क्या है। कैथोलिकों के लिए यह भी उनकी सत्ता को चुनौती थी। अब उनके फरमान नहीं चल सकते थे, लोगों को स्वयं जानने और निर्णय करने का अधिकार मिल रहा था।
कोपरनिकस के 1514 में प्रकाशित कमेंटेरियस का तो ईसाई कट्टरपंथियों को पता ही नहीं चलने पाया, पर उनकी अगली पुस्तक दे रेवोल्युशनिबस ऑर्बियम कोएलेस्टियम के बार में उनकी मृत्यु के बाद अरस्तूवादियों के विरोध के कारण उनकी जानकारी में आया। इसमें उन्होंने उन्होंने कुछ विस्तार से यह प्रतिपादित किया था कि सूरज, तारे और ग्रह धरती की परिक्रमा नहीं करते हैं अपितु वास्तविकता इससे उलट है । पोप को इससे सबसे बड़ा खतरा यह मालूम हुआ कि इससे प्रोटेस्टैंटों को बल मिलेगा। कोपरनिकस की मृत्यु 1543 में हुई और तब तक उसकी पुस्तकें कुछ सजग पाठकों तक ही पहुंच पाई थीं।
गैलीलियो कोपरनिकस से प्रभावित था और जब उसे अपने निजी अनुसंधान से भी इसकी पुष्टि होते देखी तो उसने स्वयं अपने मत का प्रतिपादन लातिन की जगह इतालवी में किया जो तब विज्ञान की भाषा न थी और इसलिए उसके विचारों का जल्द ही विश्वविद्यालय से बाहर भी प्रचार होने लगा। इससे अरस्तूवादी दार्शनिकों को सबसे अधिक आपत्ति हुई और उन्होंने संगठित हो कर कोपर्निकस के विचारों को प्रतिबन्धित करने का प्रस्ताव रखा और कोपरनिकस की दूसरी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लग गया। इसके बाद गैलीलियो पोप को यह समझाने पहुंचे कि बाइबिल विज्ञान की पुस्तक नहीं है और जहां इसका वैज्ञानिक सचाई से विरोध दिखाई देता है वहां यह रूपकीय मात्र है। चर्च इससे सन्तुष्ट नहीं हुआ क्योंकि उसे विज्ञान से अधिक प्रोटेस्टैंटों को होने वाले लाभ का डर था। और इसने 1616 में कोपरनिकस की मान्यता को गलत और वर्जित करार दिया और गैलीलियो को चेतावनी दी कि वह न तो इसका कभी हवाला देगा, न ही इसे सही ठहराएगा। गैलीलियों ने उस समय इस शर्त को मान लिया। अागे उन्होंने फिर अपने एक मित्र के पोप बनने पर उसे अपनी बात समझाने का प्रयत्न किया तो उसने उनको कोपरनिकस की मान्यता का खंडन करने और बाइबिल को सही ठहराने वाली पुस्तक लिखने का जिम्मा सौंप दिया। गैलीलियो ने बड़ी चतुराई से इसमें पुन: कोपरनिकस के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए यह दिखाया कि यह बाइबिल से अनमेल नहीं है। इसका खुलासा होने पर उन्हें यातनावध का सामना तो नहीं करना पड़ा परन्तु आजीवन अपने घर में कैद रखा गया। यहां से आरंभ होता है यूरोप का वैज्ञानिक युग और उसकी महिमा का स्तूप है अब तक की उसकी उपलब्धियां जिसका अंशग्राही आज का समस्त विश्व है।
इस्लाम में आज ऐसे वैज्ञानिक हैं जो विज्ञान की अद्यतन ऊंचाइयों पर पहुंचने का दावा कर सकें, परन्तु उन्होंने मुल्लावाद और कुरआन के अन्तर्विरोधों की आलोचना करने तक का साहस नहीं जुटाया। उसके बुद्धिजीवियों ने कभी अपने समाज को दरबाबन्द दिमाग से बाहर निकालने का प्रयत्न नहीं किया। वे अपनी मौन सहमति या सहनशीलता से मुल्लावाद की जड़ें मजबूत करते रहे। अपने को सेक्युलर बताने वाले बुद्धिजीवियों ने, जैसा हम कहते आए हैं, लीग की भूमिका निभाते हुए लगातार हिन्दू समाज की कमियों का आविष्कार करने तक का कष्ठ उठा कर इसकी भर्त्सना की, परन्तु इस्लाम की जड़ता और मध्यकालीनता पर कभी कोई टिप्पणी नहीं की। यदि किसी ने ऐसा दुस्साहस किया तो उसकी दशा तसलीमा नसरीन जैसी हो गई जिसके कद सेे इस्लामी देश ही नहीं सहमते, अमेरिका और नोबेल का चुनाव करने वाले भी सहमते हैं अन्यथा यदि किसी मुस्लिम लेखक को नोबेल मिलना था तो वह मलाला को नहीं तसलीमा नसरीन को मिलना था। पुरस्कार के बिना भी वह न्याय, मानवतावाद और सत्यनिष्ठा के लिए बड़ी से बड़ी असुविधा का सामना करने को अडिग भाव से तत्पर रहने के कारण दूसरों से अलग और ऊपर दिखाई देती है।
तसलीमा ने स्त्रियों के प्रति अन्याय, अल्पसंख्यकों के प्रति अन्याय को बहुत संयत भाषा में मुखर किया था चाहे वह अन्याय बांग्लादेश में अल्पमत के विरोध में हो या भारत में । आश्चर्य है कि तसलीमा के लिए भाजपा के पास सहानुभूति है परन्तु कम्युनिस्टों आदि के पास नहीं । वे उसका नाम तक लेने से परहेज करते हैं । इसका कारण क्या यह है कि वे न केवल इस्लामी बन्दमानसिकता, दारुलहर्ब को चुपचाप दारुल इस्लाम बनाने की उसकी योजना के मौन समर्थक बने रहते हैं।
भारत हिन्दू देश है इसे नेहरू और सेक्युलरिस्ट जितने निर्णायक स्वर में घोषित करते रहे हैं, उतना हिन्दू संगठनों ने भी नहीं किया। कामन सिविल कोड के प्रश्न पर बाबा साहेब के आग्रह को देखते हुए नेहरू ने कहते हैं उनकी सार्वजनिक भर्त्सना की थी जिससे आहत हो कर उन्होंने मंत्रिपद से त्यागपत्र दे दिया था। प्रश्न सीधा था कि केवल हिन्दुओं के लिए कानून बनाने का अधिकार तुम्हें किसने दे दिया, यदि पूरे देश के लिए वही कानून नहीं बना सकते तो। सेक्युलरिस्ट केवल हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों के चरित्र और इतिहास को समझे बिना अपमानजनक भाषा में और बिना किसी सन्दर्भ के प्रहार करते रहे। प्रकारान्तर से हिन्दू ही उनके लिए पूरा भारत था। हिन्दुत्व के राजनीतिक उत्थान में अपने इस योगदान को वे स्वयं भूल कर अतीत से ले कर वर्तमान तक के हिन्दू समाज को कोसते और अपमानित करते रहे।
जहां सेक्युलरिज्म के नाम पर ही योजनाबद्ध रूप में समाज के दो प्रधान और मुखर तबकों को अलग करने के प्रयत्न लगातार होते रहे हों, वहां हम किस एकता की बात कर सकते हैं। अत: जो है, जिन भी कारणों से, जिनके भी समर्थन से जो रूप वह लेता जा रहा है उसे समझना और उससे होने वाली हानि से अपने को बचाने की युक्ति निकालना सहअस्तित्व की पहली शर्त बन जाती है। समझदारी न कि एकता की भावना हमें टकराव से बचा सकती है। एक ऐसा समाज जो किसी भी गैर मुस्लिम को अपने समान मानने को तैयार ही न हो, पूरा इंसान तक मानने को तैयार न हो, जो सहयोग तक से डरता हो कि इसके चलते उसका विरोध कम न हो जाय और उसका पृथक अस्तित्व खतरे में न पड़ जाय, उससे सावधान रहते हुए कार्यसाधक संबंधों के माध्यम से समरसता को बनाए रखना एकमात्र सही उपाय हो सकता है। ऐसी स्थिति तब तक बनी रहनी है जब तक उस समाज में बुद्धिजीवी वर्ग का उदय नहीं हो जाता जो आत्मनिरीक्षण करने में समर्थ हो और वे खतरे उठा सके जिसे तसलीमा नसरीन ने उठाए हैं। पुरुषों से इसकी अपेक्षा नहीं है, महिलाओं के अधिकाधिक आधुनिक शिक्षा संपन्न होने के क्रम में यह शक्ति मुस्लिम समाज के भीतर पैदा हो सके तो हो। आज तो बच के रहना रे बाबा, बच के रहना रे ।