Post – 2016-11-26

विविधता की अन्‍तर्निर्भरता (1)

स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन को सशक्‍त बनाए रखने के लिए भारत के लिए सभी समुदायों को इससे जोड़ने की जरूरत अनुभव हुई और विविधता में एकता का मुहावरा बहुत आकर्षक लगा। यह मुहावरा भ्रामक है । इससे भारतीय समुदायों के चरित्र का सही परिचय नहीं मिलता। मुहावरा हमने नहीं संभवत: रिजली ने पहली बार हमारे समाज के लिए प्रयोग किया था। अवधारणा पुरानी बताई जाती है । इसकी एक परिभाषा के अनुसार :
Unity in diversity is a concept of “unity without uniformity and diversity without fragmentation” that shifts focus from unity based on a mere tolerance of physical, cultural, linguistic, social, religious, political, ideological and/or psychological differences towards a more complex unity based on an understanding.

जब आप नेशनल इंटीग्रेशन की बात करते हैं तो प्रकारान्‍तर से यूनीफार्मिटी या एकरूपता की बात करते हैं जिसमें भिन्‍न और विरोधाभासी के लिए जगह नहीं रह जाती । बहुलता का निषेध किया जाता है। कुछ विचित्र लगा कि बहुलता में एकता के सन्‍दर्भ में विकीपीडिया में जिन देशोंं को याद किया गया है उनमे कनाडा, इंडोनेशिया आदि जैसे देश तो आते हैं, भारत नहीं आता। क्‍या इसकेे पीछे एक कारण यह हो सकता है कि हम उस एकता का निर्णायक अवसरों पर निर्वाह नहीं कर सके और एकता से अधिक fragmentation या टुकड़े करने पर अधिक ध्‍यान दिया । क्या इसका कारण यह नहीं है कि हमने सभी बहानों से – भौतिक, सांस्‍कृतिक, भाषार्ई, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, विचारधारात्‍मक, और मनोवैज्ञानिक तरीकों तकाजों से ऐसा जब भी अवसर मिला करने का प्रयत्‍न किया और कई बार परीक्षा की घडि़यों से गुजरते हुए किया । ये सभी प्रवृत्तियां नई हैं, फिर वह कौन सी चीज है जो इसके बावजूद इसमें एकात्‍म्‍य का भाव इतनी प्रबल बनाए रखती है कि विघटन के ये सारे प्रयत्‍न चेतना को प्रभावित नहीं करते शैक्ष स्‍तर पर ही टिके रह जाते हैं । परन्‍तु हाल के दिनों में आत्‍मघात के जो प्रयत्‍न हुए हैं, जाहिर है वे सेक्‍युलरिज्‍म के नाम पर हुए हैं, उनसे जितनी क्षति सुशिक्षित और शिक्षित वर्ग को हुआ है वह इतिहास में अपूर्व है ।

भारतीय सन्‍दर्भ में एकता किंचित् भ्रामक शब्‍द है । यह बहुलता का सहअस्तित्‍व है जो हमारा आदर्श किसी श्रेष्‍ठतम फूल तक सं‍कुचित नहीं कर देता, अपितु असंख्‍य रंगों, गंधों, निर्गन्‍धों को भी पुष्‍पोद्यान का हिस्‍सा बना देता है और हमारी चेतना के केन्‍द्र में कोई एक पौधा या वृक्ष नहीं रह जाता अपितु समग्र उद्यान आ जाता है।

भारत की बहुलता और बहुतों के भीतर अनेक समानताओं की रहस्‍यमय उपस्थिति इसे अधिक रोचक और रहस्‍यमय बनाती है । समानताओं का यह हाल है कि जिसने भी किसी क्षेत्र का गहराई से अध्‍ययन किया उसे ऐसा लगा कि जो प्रथम दृष्टि में आंचलिक प्रतीत होता है वह सार्वदेशिक है अौर यह सार्वदेशिकता भारतीय उपमहाद्वीव में ही सिमट कर रह जाती है। उदाहरण के लिए भाषा का अध्‍ययन करते हुए इमेनो को भारत एक भाषावैज्ञानिक क्षेत्र मानना पड़ा। इमेनो से भी पीछे जा कर मुझे उस स्‍तर की उपस्थिति दिखाई दी जिसमें सब कुछ सबका बन जाता है। इसकी जड़ें सुदूर इतिहास में जाती हैं परन्‍तु इतिहास को इतना पंगु बना कर रखने और समझने का प्रयत्‍न किया जाता रहा और साथ ही साथ प्राचीनता का उपहास किया जाता रहा कि इन पंक्तियों के लेखक को छोड़ कर किसी को यह गुमान तक नहीं हुआ कि यह गहराई पन्‍द्रह बीस हजार साल पीछे तक जाती हैै और इसको तकनीकी के विकास और भाषा के माध्‍यम से प्रमाणित किया जा सकता है। परिदृश्‍य के इस अभाव के कारण, मेरी जानकारी में ऐसा कोई देसी या विदेशी अध्‍येता नहीं दिखाई देता जो यह समझ सका हो कि शान्ति की कामना जो भारतीय चेतना में निर्णायक महत्‍व रखती है वह कितने रक्‍तपातों और अन्‍तर्घातों का परिणाम है।