संचार की भाषा
हम जो कुछ जिस आशय से कहते हैं, वह श्रोता के द्वारा ठीक उसी आशय में ग्रहण नहीं होता । हम जिस विफलता की बात कर रहे हैं वह अभिमुखता, उदासीनता, या संशय, अहम्मन्यता, पूर्वाग्रह के कारण उत्पन्न होती है और इन सबसे अधिक उत्पन्न होती है साहस की कमी से जिसमें समस्या की पेचीदगियां तक सामने नहीं आ पाती। हम मारे डर या लिहाज के कुछ बातें कहने का साहस नहीं जुटा पाते, इसलिए या तो उन पर चुप रह जाते हैं या उसको ग्राह्य बनाने की चिन्ता में पड़ जाते हैं, इसलिए अभिव्यक्ति के स्तर पर ही संचार पंगु हो जाता है। अप्रियस्य च सत्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:। यहां हम केवल इसके एक पक्ष को लेंगे ।
कल्पना कीजिए किन्हीं कारणों से ‘क’ ‘ख’ से बात करना चाहता है परन्तु ‘ख’ को बात करने की जरूरत नहीं है । ‘ख’ ‘क’ को अपनी समकक्षता का नहीं मानता । अब जिन भी परिस्थितियों में ‘क’ ‘ख’ से कुछ कहना चाहता है, वह अनुरोध या याचना तो बन सकता है, संवाद का रूप नहीं ले सकता। ‘ख’ इसे इस रूप में प्रकट नहीं करेगा, परन्तु उसके भावों पर ध्यान दें तो पता चल जायेगा कि वह आपकी बात सुन कर भी आप पर अहसान कर रहा है और जरूरी नहीं कि वह आपका ‘अनुरोध’ मान ले, या जिस रूप में माने वह आपकी आकांक्षा के अनुरूप हो ।
अब इतिहास पर लौट कर नजर डालें, क्या कोई चरण ऐसा दिखाई देता है जब मुसलिम समुदाय के उस वर्ग ने जो उसका बौद्धिक नेतृत्व करता है अपनी ओर से संवाद की आवश्यकता अनुभव की । अन्तर्मन से हिन्दू समाज को अपने समकक्ष मानते हुए अपने किसी कथन को सम्मान से सुनने का प्रयत्न किया ।
मुझे यह भ्रम है कि इसकी पहल यदि कभी किया गया तो हिन्दुअों की ओर से किया गया जिसका एक कथित अकथित उत्तर यह मिलता रहा कि उसकी शर्तों पर संवाद संभव है।
इससे सद्भावना के नाम पर हिन्दू समाज सदा गंवाता रहा है, और मुस्लिम समुदाय उसे झुकाने का प्रयत्न करता रहा पर अपने को तनिक भी बदलने को तैयार नहीं रहा है।
यह एक बहुत अहम प्रश्न है इसलिए इस पर स्वच्छता से, यदि प्रमाण हों तो उन्हें देते हुए मुझे गलत सिद्ध करने का प्रयत्न करें क्योंकि यह ‘मेरा मनवा तेरा मनवा कैसे एक होय रे’ की समस्या से जुड़ी समस्या है।