Post – 2016-11-24

धार्मिक मनोबन्‍ध

हम एक हिन्दू के रूप में इस्लाम पर बात नहीं कर सकते । पक्षधर होने के बाद पक्षपात से नहीं बच सकते। पक्षपाती न्यायाधीश नहीं हो सकता और उसके तर्क में जितना भी पैनापन हो, वह गहरे उतर नहीं सकता। दूसरे पक्ष्‍ा के लिए यह मात्र शाेर है जिसे वह अनसुनी कर सकता है, उससे खिन्न अनुभव कर सकता है, पर उसका कायल नहीं हो सकता ।

जब मैं मुसलमानों के बारे में बात करता हूं तो यह मान कर नहीं कि वे अच्छे या बुरे हैं कि नहीं । हम इस बात को बार बार दुहराते आए हैं कि परिस्थितियों के समक्ष हमारी हैसियत निमित्त मात्र की रह जाती है । निमित्त कर्ता नहीं होता, कारिन्दा अवश्यक होता है। उत्तरदायित्व उन शक्तियों, विचारों, मान्यताओं, विश्वासों, दबावों और बाध्यताओं का होता है जिनसे हम ऊपर नहीं उठ सके । मैं जानता हूं, इस तरह के विचार, ठंडे लगने वाले विचार, ऐसे लोगों को कायरता प्रतीत हो सकते हैं जो कठोर उपायों के हामी हैं । जिनको शठे शाठ्यं समाचरेत, या टिट फार टैट जैसे मुहावरोंं से सभी अनर्गल आचरणों का हल मिल जाता है । यह उचित तो है, परन्‍तु यह रक्षा और व्‍यवस्‍था संभालने वालों का काम है कि वे अपराधी को दंडित करें। हम इसे अपने हाथ में लें तो ठीक वही काम करेंगे जिसके कारण उनसे हमारी चिढ़ है। उन्‍हें दंडित भले न कर पाएं परन्‍तु चेतना के स्‍तर पर उन जैसे बन अवश्‍य जाएंगे, भले कर कुछ न पाएं।

हमारा काम विवेचन करना है। हमारे लिए वह अच्‍छा या बुरा जैसा भी है, एक परिघटना है जिसकी अपनी समस्‍यायें है जिन्‍होंने उसे वैसा बनाया है। मुस्लिम समुदाय तब तक कुपढ़ और दरबाबन्‍द जहनियत का शिकार बने रहने को बाध्‍य है जब तक वह किताब में विश्‍वास करता है। कारण सारा ज्ञान और सामाजिक इथास उस किताब की किसी भी इबारत से टकराने के बाद व्‍यर्थ का हस्‍तक्षेप बन जाता है और इसलिए उसे त्‍याग देना पड़ता है। जब तक मुस्लिम बुद्धिजीवी किसी गलत कार्य या आचरण की आलोचना इस आधार पर करता है कि कुरान शरीफ में ऐसा नहीं ऐसा लिखा है, तब तक वह उसे अल किताब से बाहर निकालने का साहस नहीं कर पाता और हमारी समझ से लगभग सभी ‘उदार’ और ‘समझदार’ बुद्धिजीवी यही करते रहे हैं। अलबरूनी से ले कर असगर अली इंजीनियर सभी के साथ यह मनोबन्‍ध काम करता दिखाई देता है।
जिन्‍हें हम बहुत प्रगतिशील समझते हैं, उनमें भी कहीं न कहीं इसका दबाव देखा जा सकता है। मेरा अनुभव अधिक नहीं है, केवल एक बार ईगतपुर में एक संगोष्‍ठी के क्रम में दो दिन का साहचर्य अली सरदार जाफरी का मिला था। सान्‍ध्‍य पेय के क्रम में चर्चा कैसे आरंभ हुई यह तो याद नहीं, पर सरदार का यह कथन मुझे सत्‍य होते हुए भी विचित्र लगा था कि तुम्‍हारे पास कोई किताब नहीं है, उनके पास किताब है। जो अर्थ मैैैैंने ग्रहण किया वह यह कि यदि वे उस किताब के अनुसार आचरण करते हैं तो उन जैसों को उसे अनुचित ठहराने का कोई कारण नहीं रह जाता।

सामी मतों की एक साझी किताब है जिसमें उन्‍होंने अपने अनुसार कुछ जोड़ा और बदला है, जैसे ईसाइयत ने न्‍यू टेस्‍टामेंट और इस्‍लाम ने वे विचार जिनका उन्‍हें इलहाम हुआ था या जिन्‍हें अल्‍लाह ने एक फरिश्‍ते के माध्‍यम से उन तक पहुंचाया था।

पहली बात यह कि यह धारणा कि हिन्‍दुओं के पास किताब न थी और न ही है गलत है। वेद को ऐसा ही एक अनुंघनीय ग्रन्‍थ बनाया गया था। उसकेे सूक्‍तों को भी ऋषियों ने रचा नहींं था, साक्षात्‍कार किया था – साक्षात्‍कृत धर्माण: ऋषय: बभूवु: । या ऋषियों को द्रष्‍टा होने के कारण ऋषि कहा जाता है – ऋषि दर्शनात्। जैसे सृष्टि और स्रष्‍टा के विषय में कुरान और बाइबिल ने अपनी पुराकथाएं पुराने टेस्‍टामेंट से लीं, और इस पर कोई विवाद नहीं है, वैसे ही पुराने टेस्‍टामेंट के अनेक अंश ऋग्‍वेद से मेल खाते हैं, यद्यपि मनोबन्‍ध के कारण पहले किसी का ध्‍यान इस ओर नहीं गया।

मैं इसके तीन साम्‍यों की ओर ध्‍यान दिलाना चाहता हूूं। पहला यह कि भारत में सृष्टि और स्रष्‍टा को लेकर कई तरह के विचार प्रचलित थे, उनमें से एक था विकासवादी, दूसरा था यान्त्रिक, तीसरा था याजिकीय, चौथा कास्‍मोलोजिकल, और इन्‍हीं में एक था चामत्‍कारिक ।

सकृद्ध द्यौरजायत सकृद् भूमिरजायत ।
पृश्‍न्‍यादुग्धं सकृत्पयस्तदन्यो नानु जायते ।। 6.48.22
यह है एक झटके में, एक साथ धरती आकाश ही नहीं, सृष्टि के समस्‍त पदार्थों का, यहां तक कि गाय के थन में दूध का पैदा हो जाना और उसके बाद कुछ और न पैदा होना जो उसने कहा, प्रकाश हो और प्रकाश हो गया आदि का प्रेरक प्रतीत होता है।

एक दूसरी कथा जो इब्राहिम के द्वारा अपनी सन्‍तान की बलि की कथा के रूप में आई है ऋग्‍वेद में हरिश्‍चन्‍द्र द्वारा अपनी सन्‍तान, रोहिताश्‍व को वरुण देव को बलि देने की कथा के रूप में आई है, यद्यपि इसकी कथा कुछ लंबी और चालाकी भरी है जिसे शुन:शेप की कथा के रूप में पेश किया गया है, अर्थात् पुत्र की बलि देने के लिए प्रतिश्रुत हरिश्‍चन्‍द्र बहाने बनाते हुए बलि से बचते रहते हैं और अन्‍त में उसे वनवास के लिए भेज देते है। वरुण के प्रकोप से हरिश्‍चन्‍द्र को बेरी बेरी की बीमारी हो जाती है । इस सूचना के बाद रोहिताश्‍व लौटता है और अपनी जान बचाने के एक अकिंचन ब्राह्मण से बलिपशु बनने के लिए खरीद लेते है। बलिपशु के रूप में उसका वध होने की तैयारी पूरी होने पर वह सभी देवताओं से अपने प्राणरक्षा की याचना करता है और अन्‍तत: विश्‍वामित्र न केवल उसके प्राण की रक्षा कर लेते हैं, अपितु उसे अपना पुत्र भी बना लेते हैं।
इसी हरिश्‍चन्‍द्र की पौराणिक कथा हम सत्‍य हरिश्‍चन्‍द्र के रूप में एक भिन्‍न रूप में पाते हैं, परन्‍तु इसमें भी अन्‍त में विश्‍वामित्र उपस्थित हो कर परीक्षा में खरा उतरने के कारण मृत पुत्र को जीवित, डोम की दासता से मुक्‍त और पुराने राजपाट का स्‍वामी बना देते हैं जिसे उन्‍होंने दान स्‍वरूप ले लिया था।

कुछ विषयान्‍तर हो गया, परन्‍तु वेद को आप्‍त अौर अकाट्य और अनुभूत सत्‍य के वेद से अनमेल पड़ने पर वेद को मान्‍य बनाने के प्रयत्‍न किए गए परन्‍तु हमारे यहां तार्किक परंपरा आरंभ से ही इतनी प्रबल रही है कि कौत्‍स ने वेद की इतनी तीखी आलोचना की कि बाद के लिए कुत्‍सा शब्‍द का अर्थ ही बदल दिया गया और इसी से उन्‍हें जोड़ दिया गया। पहले चित् कित्, चेत , केत और कुत का अर्थ ज्ञानपरक था और कुत्‍सा का अर्थ भी ज्ञान हुआ करता था। हिन्‍दी और भोजपुरी में कूतना – आकलन आदि करना उसी पुराने अर्थ से जुड़े हैं, और इसीलिए मैं कहता हूं कि हमारी बोलियां संस्‍कृत की कमियों को भी सुधारने में सहायक हो सकती हैं।
वेद की आप्‍तता अब पहले जैसी अनुलंघनीय नहीं रह गई। गीता जिसका महत्व धर्मग्रन्‍थ जैसा है, वह भी वेद की अकाट्यता और असाधारण महत्‍व को नासमझों का आग्रह मानती है – ये इदं पुुष्पितं वाचं प्रवदन्ति अविपश्चित: । वेदवादरता पार्थ आन्‍यदस्‍तीति वादिन: । परन्‍तु दूसरी ओर जो वेद की आप्‍तता को स्‍थापित करने के लिए चिन्तित रहे है वे अपने क्षेत्र के प्रकांड विद्वान होते हुए भी, अन्‍यथा तर्कशील होते हुए भी अपने क्षेत्र में गलतियां करने को बाध्‍य हुए। इनमें यास्‍क, पाणिनि जैसी मेधा के व्‍यक्ति भी आते हैं और स्‍वामी दयानन्‍द जैसे तर्कशील और सन्‍देहवादी भी । इसलिए हमें समझना यह होगा कि कौन सी शक्तियां है जो अपने ही समाज को किसी ग्रन्‍थ में कैद करके रखना चाहती हैं और उनसे वह समाज कैसे मुक्ति पा सकता है।

जाहिर है हमारी इस मीमांसा का कोई लाभ मुस्लिम समुदाय को नहीं होगा। अधिक संभावना यह है कि वे इसे पढ़ने और समझने से इन्‍कार कर दें। परन्‍तु हमारे लिए उन मनोबन्‍धों की पड़ताल स्‍वयं अपने हित के लिए जरूरी है क्‍योंकि इसके बाद ही हम उस रणनीति का विकास कर सकते हैं जिसमें हम अविरोध की संभावनाओं को तलाश कर सकें।