हिटलर की वापसी (1)
”तुम्हारी सारी बातें सही हैं । इस आदमी की बढ़ती लाेकप्रियता डरावनी है। कतारों में लगे जिन लोगों का दुख दिखा कर हम मोदी को कठघरे में खड़ा करना चाहते हैं, वे हमारे क्या, सीजेअाई के भड़काने पर भी सीजेआई की ओर कुछ इस नजर से देखते हैं कि ‘सर आप भी वही निकले !’ और उत्तेजित होने की जगह मुस्कराने लगते हैं । न्याय क्यों इतना मंहगा हो गया है कि गरीब आदमी को मिल ही नहीं सकता, यह अब तक राज़ था, अब फाश कर दिया आपने।’
मैं हैरान ! इसमें इतनी जल्द इतना हृदय परिवर्तन कैसे घटित हो गया । तभी उसने अपना तेवर बदला, ”पर यह तो मानोगे कि यह देश के हित में नहीं है।”
कुछ देर तक मैं कुछ समझ नहीं पाया, सहमते हुए कहा, ”हां, सीजेआई काे राजनीतिक बयान देने से पहले सोचना चाहिए था कि इसका लोग क्या आशय निकालेंगे और…”
उसने बीच ही में टोक दिया, ”मैं उसकी बात नहीं कर रहा हूं । उस लोकप्रियता की बात कर रहा हूं जो मोदी को मिल रही है। यह ठीक उसी पैटर्न पर है जिससे हिटलर को लोकप्रियता मिली थी। हम पहले कहते थे कि फासिज्म आ रहा है, भाजपा का राष्ट्रवाद जर्मनों के राष्ट्रवाद की ही नकल है तब तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा था। अब वह सामने खड़ा है और एक बार आ गया तो …।” उसने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया, फिर कुछ सूझा तो मैं कुछ कहूं इससे पहले ही बोल पड़ा, ”तुमने तो सारे बुद्धिजीवियों को पता नहीं किसके साथ खड़ा कर दिया, वे उस खतरे को बहुत पहले से देख रहे हैं और इसलिए विरोध करते आ रहे हैं। सिर्फ तुम इतने मूर्ख हो जो इस बात को आज तक समझ नहीं पाए ।”
मैंने चुटकी ली, ”तुम लोग इतना बोलते हो फिर भी बाेलना क्यों नहीं आता । तुम लोगों को डराने के लिए कहते हो, भाजपा का राष्ट्रवाद जर्मनों के राष्ट्रवाद की ही नकल है।’ लोग सोचते हैं जब नकल है तो उससे क्या डरना। असल होता तो फिक्र की बात भी थी। असल सिद्ध करने के लिए तुम्हें उन कार्यों और परिणामों का विवेचन करते हुए उसे देश और समाज के लिए खतरनाक सिद्ध कर देने से ही काम चल जाता। जर्मनों और उनके राष्ट्रवाद का नाम लेने की जरूरत न पड़ती। नब्बे प्रतिशत लोग तो मात्र साक्षर या निरक्षर हैं, उनको जब यह सुनने को मिलता है कि यह खरोखर इंपोर्टेड चीज है तो उनकी नजर में उसके प्रति आकर्षण बढ़ जाता है। तुम देश और समाज को जानने के औजारों तक से दूर रहे, इसलिए यह भी नहीं समझ पाते कि तुम्हारे किए के परिणाम उल्टे जा रहे हैं।”
”मैं कहूं कि तुमने कमाल का तर्क दिया तो खुश हो जाओगे ? पर तुम नहीं मानते कि लोकतन्त्र का खत्म हो जाना, किसी एक व्यक्ति का अपने दल से, दूसरे सभी दलों से, इतना बड़ा हो जाना कि विकल्प की संभावना ही न रह जाय, चिन्ता की बात नहीं ?”
बात चिन्ता की तो थी । किसी एक व्यक्ति की ऐसी लोकप्रियता कि विकल्प समाप्त होते चले जाएं, चिन्ता की बात तो थी ही। परन्तु जितनी चिन्ता जताई जा रही थी उतनी चिन्ता की नहीं। सच कहें तो विकल्पों को समाप्त कर देने का प्रयोग तो कांग्रेस ने नेहरू काल से ही आरंभ कर दिया था। केवल केन्द्र में ही नहीं, राज्यों तक में कांग्रेस छोड़ अन्य किसी का शासन रहने ही न पाए। और कांग्रेस का मतलब नेहरू के शासन काल में नेहरू था और इन्दिरा जी और उनके वंश के शासन में इन्दिरा जी और उनका वंश । इसके लिए गर्हित से गर्हित तरीका, अमानवीय से अमानवीय तरीका अपनाने में उन्हें संकोच न था। गुलजारी लाल नन्दा को जल्द से जल्द ठिकाने लगाने के लिए गोरक्षा आन्दोलन की भीड़ का सीधे गोलियों से भूनते हुए उन्हें अक्षम सिद्ध करके सत्ता हाथ में लेने की जल्दी हो, या बंगाल की 1967 में अजय बाबू की गैर कांग्रेस सरकार को गिराने के लिए बीएसएफ की टुकड़ी लगाकर बालीगंज का नृशंस कांड जो उस उत्सव में ऐसी हुड़दंग कि न जाने कितने लोग मारे गए, महिलाओं का बलात्कार हुआ, और इस आधार पर सरकार गिराकर नये चुनाव की तैयारी। परिणाम उल्टे हुए, पहली बार ज्योति बाबू के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत से ऐसी सीपीएम सरकार बनी जो ज्योतिबाबू के हटने के बाद तक चलती रही । मैं उन सभी बदकारियों और उनसे पैदा हुई विकृतियों को यहां दुहराना नहीं चाहूंगा, तुम उन्हें स्वयं याद कर सकते हो। न ही मैं यह तर्क दूंगा कि कांग्रेस ने लगातार यही किया, फिर भी कभी तुमने उसकी ऐसी आलोचना नहीं की कि वह अभियान का रूप ले सके।
”मैं तुम्हें अपने एक शेर की याद दिलाना चाहूंगा जो मैंने बेहिश नामक एक पात्र के लिए लिखा था :
तेरी आंखों में ही कुछ बल है आ गया बेहिश ।
आईने टूटते जाते हैं जिधर देखता है ।
मोदी के साथ स्थिति बिल्कुल उलट है । वैकल्पिक दल भीतर से इतने सड़ चुके हैं कि इस व्यक्ति को किसी को गिराने का खयाल तक नहीं आया। वे पार्टियां गिर नहीं रही है, सड़ाध से धसक रही है और धसक इसलिए रही हैं कि जब लोग, जितने भी लोग, मोदी को सन्दर्भबिन्दु मान कर दूसरों का आकलन करते हैं तो वे नि:सत्व ही नहीं हीनचेत भी प्रतीत होते हैं। समर्थन का सहज प्रवाह भाजपा की ओर होने लगता है। यही निर्णायक बिन्दु पर पहुंच कर पूर्ण बहुमत में बदल जाता है। इसमें जीत हार का प्रश्न ही नहीं है, प्रश्न समर्थन के प्रवाह की दिशा का है, परिणाम आज नहीं तो कल सही। इसीलिए बिहार चुनाव के बाद मैंने कहा था, नैतिक विजय भाजपा की हुई है जिसने हारने का रास्ता चुना पर गलत प्रलोभन या सिद्धान्तहीन जोड़-तोड़ का सहारा नहीं लिया। हार नीतीश की हुई क्योंकि उन्हें नाक रगड़ने वाले गलत समझौते करने पड़े फिर भी र्वाधिक वोट न मिले और विजय लालू की हुई जो वास्तविक शासक बने रहेंगे और उस व्यक्ति को अपने गलत निर्णयों को लागू करने काे बाध्य करते रहेंगे जो अपने को लोकतांत्रिक आदर्शों का मूर्त रूप मानता था।
”अब इसमें देखो, नीतीश के पास विकल्प था कि सबका साथ सबका विकास के नारे को सम्मान देते हुए उस भाजपा से सहयोग लेते जिसके समर्थन से उन्होंने
स्वच्छ शासन का इतिहास रचा था। नहीं, किया। एक व्यक्ति के रूप में एक समय जहां उन्हें भले मोदी के नीचे, पर लोकप्रियता और पात्रता में कुछ आसपास ही माना जाता था, वह केवल अपने निर्णयों और कार्यों से कितने नीचे चले गए हैं। मोदी को इस विकल्प को मिटाने के लिए कुछ नहीं करना पड़ा।
”हिटलर की वापसी पर तो आज बात हो नहीं सकती। कल करेंगे, परन्तु तुम इस बीच इस प्रश्न पर विचार करना कि एक ऐसे नेतृत्व के सत्ता पर कब्जा जमाने के बाद, जिसे तुम अपनी समझ से शुभ नहीं मानते रहे, अपने कार्यों, उक्तियों, हंगामों से ठीक वही काम नहीं करते रहे जिसके प्रमाण हमने कांग्रेस शासन से दिए और जिनके परिणाम कांग्रेस के लिए और उससे अधिक पूरे देश्ा के लिए घातक रहे। लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया को हुड़दंग से उलट कर तुम किसका भला करते रहे। हिटलर की वापसी का रास्ता तैयार करते रहे या लोकतान्त्रिक विकल्पों की रक्षा का प्रयत्न।”