नोट की चोट (असंपादित)
‘यार सुना पुराने नोट बन्द होने से तुम्हें इतना सदमा पहुंचा कि तुम बीमार पड़ गए और अस्पताल में भर्ती होना पड़ा ।’
‘पता तो चला कि तुम कल्पनाशील भी हो। पर यह तो बताओ तुम किसके साथ हो, जमाखोरों, कालाबाजारियों के या इसे खत्म करने वालों के । कोई भी बात, कोई भी तर्क, कोई भी आंकड़ेबाजी, यह फैसला हो जाने के बाद ही सार्थकता रखती है ।
वह हंसने लगा, ‘जानता था, तुमको वह तकलीफ दिखाई नहीं देगी जो दिन के दिन खड़े लोग लाइन में लगा रहे हैं। पचास लोग प्राण गंवा चुके हैं। समाचार चैनल उनकी पीड़ा की कहानियां दिखा रहे हैं। तुम्हें कुछ नहीं दीखता क्योंकि तुमने आंखों के ठीक आगे मोदी का चेहरा लगा रखा है।
‘तुमसे कुछ पूछा है । उसका सीधा, सटीक जवाब दो । किसके साथ हो ?’
‘प्रश्न साथ होने का नहीं है, उसकी सही तैयारी और सही तरीके का है । यदि कुछ और समय लगाया गया होता तो…’
‘युद्ध छिड़ने के बाद तैयारी वगैरह विचार-बाह्य हो जाते हैं। अब जो भी है, जैसा भी है, उसी से संघर्ष किया जाता है। तुमको चीन-भारत युद्ध का पता है ? हमारे सैनिकों के पास पहाड़ी सर्दी के बचाव के लिए कपड़े तक नहीं थे, बरफ पर चलने के लिए जूते तक नहीं थे। हरबा-हथियार पुराने थे। नेहरू और तत्कालीन रक्षामंत्री सैन्य आयुधागार में सोलर कुकर बनवा रहे थे । खुफिया तन्त्र इतना निकम्मा कि भारत के प्रधानमंत्री को भी चीनी अफीमची बुजदिल दिखाई दे रहे थे। सीमा रेखा पर जैसा आज भी होता है बीच बीच में चीनी दस्ते भीतर घुस आते हैं और उन पर दबाव डाल कर पीछे हटने पर विवश किया जाता है, ऐसा ही तब भी था। यह रगड़ा नेहरू की अदूरदर्शिता का परिणाम था। तिब्बत के बफर राज्य की रक्षा की जिम्मेदारी भारत की थी और तिब्बत पर चीनी आक्रमण के समय ही भारत को तिब्बत का साथ देते हुए वह जंग लड़ना जरूरी था, वह खतरा लेने का साहस नेहरू का नहीं हुआ। उल्टे दलाई लांबा को सलाह दी कि जितना सोना हीरा हो लाद कर आक्रमण से पहले ही भारत भाग आओ और यहां से अपने का तिब्बत का प्रधान बन कर कूटनीति करो। भारत में चीन की संवेदनशीलता के विरुद्ध भारतीय भूभाग में तिब्बत का निर्वासित प्रधान अपनी गतिविधि चला रहा था, यह चीन की खुन्दक थी। सीमारेखा के अतिक्रमण का मामला इस कारण भी कूटनीतिक स्तर पर न चल कर सैन्य टुकडि़यों के भारत की सीमा में प्रवेश के रूप में सामने आता था। ऐसे ही एक कुयोग के उत्तर में नेहरू को जब सूचना मिली कि चीनी दस्तों ने भारतीय सीमा में प्रवेश कर लिया है, तो युद्ध का आरंभ नेहरू ने यह कहते हुए किया था कि मार कर भगा दो। भारत के जनरलों का हाल यह कि वे अग्रिम मोर्चे पर जा ही नहीं सकते थे क्योंकि उनको यूरोपियन कमोड की आदत पड़ चुकी थी। बी के कौल को नेहरू से पारिवारिक निकटता के कारण पूर्वी कमांड के जनरल का पद नियम का उल्लंघन करते हुए मिला था। वह मोर्चे के लिए तैयार नहीं थे और जान बचा कर भाग आए थे। इस पूरी परिघटना की प्रत्येक कड़ी त्रासद है, परन्तु एक बार युद्ध छिड़ जाने के बाद पूरे राष्ट्र ने, विरोधी दलों तक ने युद्धपर्यन्त एकजुट हो कर सरकार का समर्थन किया। हारना तो था ही, पर हारने के बाद नेहरू ने अपनी राष्ट्रनिष्ठा का जो नमूना पेश किया वह था उन पहाडि़यों के हाथ से चले जाने का क्या मलाल जिन पर धास की एक पत्ती तक नहीं उगती। यह सब मैं याद के बल पर ही कह रहा हूं, सूचनाएं तो इंटरनेट पर भी मिल सकती हैं।
तुम्हें पता है कितने हजार सैनिक सर्द रातों में उचित वस्त्र के अभाव में मारे गए थे, लश्कर का लश्कर साफ हो गया था। युद्ध जिन भी स्थितियों में एक बार छिड़ जाने के बाद पुनर्विचार करने वाले शत्रु को मदद पहुंचाते हैं।”
‘अजीब कूड़मग्ज हो यार, अरे वह दूसरे देश के साथ युद्ध था, पूरे देश को एकजुट होना ही था।’
‘यह देश के उन दुश्मनों के विरुद्ध युद्ध है जिनके कारण इस देश में निकम्मापन नीचे से ऊपर तक फैल चुका है। कुछ पाए बिना कोई कुछ काम नहीं करता। वह काम करता नहीं है, आपको यदि काम करवाना हो तो करवा लीजिए।
यह उन दुश्मनों के विरुद्ध संग्राम है जो अधिक से अधिक कमाने के लिए मिलावट करते हैं। उनके खिलाफ जो गुंडों का एक समानान्तर प्रशासन चला रहे हैं और हत्यायें, लूट और फिरौती जैसी व्याधिया देश व्यापी होती जा रही हैं। यह उनके खिलाफ युद्ध है जिनके कारण धनी अधिक धनी और गरीब अधिक गरीब होते चले गए हैं।
यह युद्ध उस कर्मनाशा के विरुद्ध है जिसमें आज भी जनकल्याण की निधि बिचौलियों द्वारा हज्म कर ली जाती है।
यह उस न्याय प्रबन्धन के विरुद्ध है जिसमें न्याय बिकता रहा है और और अन्यायी छूटते रहे हैं। उस माफियातन्त्र, आतंकवाद, नक्सलवाद के विरुद्ध है। अपहरण और भयदोहन के विरुद्ध है। यह भ्रष्ट राजनीति के विरुद्ध है, रुग्णतन्त्र के विरुद्ध है, असुरक्षा के विरुद्ध है। उस दिशाहारा स्थिति के विरुद्ध है जिसमें हजारों किसान कर्जमाफिया के शिकार हो कर आत्महत्या करने को विवश होते थे।
यह सूचना और मतामत का वातावरण तैयार करने के पक्ष में जिसमें पैसे के लोभ में फर्जी विचारों और विकलांग सूचनाओं का कारोबार करने वाले मालामाल हो रहे थे और इसलिए इसे लांछित करने के लिए उन्होंने अपनी पूरी प्रचार शक्ति लगा दी है।
और एक लेखक के रूप में मेरे उन प्रकाशकों के भी विरुद्ध है जो बिक्री का सही हिसाब नहीं देते और लेखकों की रायल्टी के पैसे से बेनामी संपत्तियां खरीदते हैं।
बेनामी संपत्तियों की बारी आने दो, फर्क दिखाई देगा।
इसलिए तुम्हें तय करना है कि तुम किसके साथ हो। अब किसी को चोर कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी, इस मुश्किल सवाल का जवाब वह स्वयं अपनी पक्षधरता से देगा। हमें केवल उसकी पहचान करनी है।
आज की बौखलाहट मोदी की विफलता के कारण नहीं है, अपितु इस आशंका के कारण है कि इस व्यक्ति की लोकप्रियता रोड रोलर की तरह दूसरी सभी भ्रष्ट पार्टियों का सफाया न कर दे । इस भय की उपज कि यदि ऐसा हुआ तो पता नहीं क्या देखना पड़े।
वह चुपचाप सुनता रहा, उठते हुए बोला, इसका जवाब तुम्हें कल मिलेगा।