पाखंड और सद्भाव का सहअस्तित्व नहीं हो सकता
मित्रो,
मैं साहित्य से कम और उस संस्कृति से अधिक लगाव रखता हूं जिसकी एक विशिष्ट क्रिया साहित्य, कला, दर्शन, मानवविज्ञान आदि की गतिविधियां में व्यक्त होती है। परन्तु इसका प्रसार इनसे अधिक व्यापक है। सांस्कृतिक चेतना से संपन्न हुए बिना श्रेष्ठ रचना संभ नहीं। ऐसी रचना संभव नहीं जिसका प्रसार और स्वीकार्यता सुशिक्षित समाज से अशिक्षित समाज तक हो सके। हम उस सांस्कृतिक परिदृश्य से वंचित कर दिए गए हैं, क्योंकि इसे योजनाबद्ध रूप में नष्ट किया गया। इसके उद्धार के लिए हमें स्वयं इसका पुनराविष्कार करना था, परन्तु हम अपना काम न करके राजनीति करते रहे । नियति स्पष्ट है, नामी गरामी साहित्यकारों का राजनीतिज्ञों का कृपापात्र बन कर रह जाना और अपनी सेवा के लिए पद, प्रतिष्ठा आदि पर गर्व अनुभव करना।
आज हम एक ऐसे निर्णायक दौर से गुजर रहे हैं जैसा दौर इतिहास में पहले कभी नहीं आया था। मैं जब निर्णायक दौर कहता हूं तो मेरा तात्पर्य है वह दौर जिसमें आपको फैसले करने होंगे। ढीले ढाले ढंग से यह भी ठीक है और उसमें भी बहुत सी अच्छी बातें हैं इसलिए हम दोनों के साथ है, यह शिथिलता उसके पक्ष में स्वत: चली जाती है जिसे आप बुरा या खतरनाक मानते हैं। चुनाव तो दोनों स्थितियों में होता है, अविचारित या शिथिलता वश टाला गया निर्णय गलत के पक्ष में जाता है।
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पहले एक बौद्धिक या बुद्धिजीवी समाज होता था, वह अपनी रुचि के क्षेत्र में अपनी समझ और प्रेरणा से अपना काम करता रहता था। फिर मार्क्सवाद का सान्निपातिक चरण आया। हमारा दुर्भाग्य की मार्क्सवाद भी यहां सन्निपात और उन्माद बन कर ही आया। इसके बाद लेखकों की लेखकीय स्वतन्त्रता को छीन लिया गया । बुद्धिजीवी एक खतरनाम, ढुलमुल, मौकापरस्त और इसलिए सबसे कम भरोसे का प्राणी रह गया, क्योंकि वह पार्टी के निर्णय और आदेश मानता नहीं था । स्वयं सोचता और विषय से ले कर सौन्दर्य विधान’ सभी के फैसले स्वयं लेता था। इस पार्टी का प्रभाव इतना अधिक बढ़ा कि पहले के क्षणमेरु बुद्धिजीवियों को आवेश वश या अपमान से बचने के लिए उत्साह से पार्टी से जुड़े साहित्यिक तानाशाहों की सेवा में स्वयं को अर्पित करने के अतिरिक्त कोई चारा नही रह गया ।
यह पर आदिष्ट, अपनी बुद्धि और विवेक को समर्पित अपने को प्रगतिशील मानता था, और जो उससे सहमत न हो, उसे प्रतिगामी आदि विशेषणो से लांक्षित कर देता था ।। अपने वैचारिक समर्पण को गौरवशाली बनाने के लिए यह अपने को प्रतिबद्ध और अपने लेखन को प्रतिबद्ध लेखन करार देता था । बंधुआ बौद्धिकों की, जिन्हें अपनी बुद्धि से भी परहेज हो, कोई काम सुविचारित नहीं हो सकता, यह स्वत: सिद्ध है । इतिहास ने इसके नमूने असंख्य रूपों में दिए हैंं ।
अभिव्यक्ति शैली और कार्यशैली में यह उजडड जत्था कितनी चीजों का संहार कर चुका है, इसकी गणना कराने चलें तो समय का अपव्यय होगा । पर, यह बताए बिना काम नहीं चल सकता कि इसने अपने इतिहास और संस्कृति का योजनाबद्ध रूप में विनाश कर डाला और उसे अपनी उपलब्धि गिनाता रहा । । इस सचाइयों के प्रति हम असावधान ही नहीं बने रहे अपितु इस कार्य में स्वयं सम्मिलित होने को अपने लिए गर्व का विषय मानते रहे। हममें से अधिकांश को किसी न किसी समय पर अपने निर्णय करने पड़े हैं और मुझे भी यह निर्णय करना पड़ा ।
यहसंगठन ने देशविभाजन के लीगी योजना का हिस्सा ही नहीं बना, अपितु इसने लीग के कार्यक्रमों को सदा के लिए अपना बना लिया । यह स्वीकार करने के बाद भी कि वह इसकी भूल थी, उस भूल को ही अपनी कार्यनीति बना कर उस पर अमल करता रहा । जैसे अपराधी अपना चरित्र छिपाने के लिए अपना अच्छा सा नाम रख लेते हैं, उसी तरह इसने लीग की कार्ययोजना को स्वायत्त करने के बाद उसे सेक्युलरिज्म नाम दे लिया, जिसकी भारतीय परिदृश्य में उपस्थिति को इतिहास में लौट कर ही समझा जा सकता है ।
आपको जिन्ना के उस भाषण या भाषणों को दुबारा पढ़ना होगा जो उन्होंने सभी मान्य आदर्शो और व्यावहारिकता की कठिनाइयों को नजर अन्दाज करते हुए सिद्ध किया था कि हम दो धर्मों के लोग नहीं हैं, दो राष्ट्र हैं और हमारा सब कुछ अलग ही नहीं है बल्कि हिन्दुओं से ठीक उल्टा है। हम एक दूसरे से के इतिहास से, एक दूसरे के नायकों से नफरत करते हैं। हम एक साथ रह ही नहीं सकते, इसलिए पाकिस्तान का बनाया जाना एकमात्र उपाय हैा
अब आप देखें तो जिन्ना ने जो कहा था उसे वाम ने सेक्युलरिज्म के नाम की आड़ में पूरा किया और आज भी हिन्दू संस्कृति, विश्वास, और रीतियों पर लगातार अपमानजनक ढंग से प्रहार किए ही नहीं जाते रहे हैं, इन्हें पाठ्यक्रमों में डाल कर सामान्य चेतना और विश्वास का हिस्सा बनाया जाता रहा है। इसके विपरीत मुस्लिम या ईसाई समाज की गर्हित, नारीद्रोही रीतियों पर इस सेक्युनरिज्म में सुहानुभूति या समर्थन का एक सुझाव या उस पीड़ा का किसी कृति में चित्रण तक नहीं मिलता। हिन्दू संगठनों के प्रति इसमें बिना सटीक कारण या प्रमाण दिए इतनी घृणा का प्रसार किया गया कि उनका नाम आते ही घृणा का वह ज्वार उभर कर चेतना को इतना विकृत कर देता है कि उसके सद्प्रयास भी दु़ष्प्रयास या योजनाबद्ध षड्यन्त्र दिखाई देता है। अपनी शिक्षा पर आत्मस्फीति का हाल यह कि यह अपने अज्ञान को भी ज्ञान से श्रेष्ठतर मानता है। भारतीय परंपरा, इतिहास, संस्कृति से अनभिज्ञ रह गया तो तेजस्विता बढ़ गई। इस अनभिज्ञता के कारण वह अपने समाज को भी नहीं समझ सकता, क्योंकि सारा समाज उन्हीं पुरातन दायों को अपनी पूंजी मान कर जीता और व्यवहार करता है।
समाज को न समझने के बाद भी यह इस विषय में दृढ़ संकल्प है कि वह इसे बदल कर दम लेगा। समाज से नासमझ होते हुए भी यह अधिकार और जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता ही नहीं है, इस पर सामरिक तैयारी के साथ प्रहार करता है। इस दुराग्रह के कारण कई मेधावी प्रतिभाओं को अपने प्राण गंवाने पड़े जो अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है, परन्तु इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है, इन मौतों के अपराधियों की ओर से ध्यान हटा कर एक ऐसे दल के सिर इस अभियोग को मढ़ने का प्रयत्न और इसको पश्चिमी ऐशिया के अनुरुप अराजक बना कर उन रहस्यमय शक्तियों के हस्तक्षेप की परिस्थितियां तैयार करना ।
अपने से,और साथ ही अपने समाज से विमुख कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह ही ऐसी जघन्य योजनाओं का अंग बन सकता है जिसकाे तोड़ना उसके घोषित लक्ष्यों का रूप ले ले, जिसकी एकता के लिए आदि काल से ही सतत प्रयत्न होते रहे हैं।
वे अपने इतिहास को नहीं जानते । आपने अपना इतिहास ज्ञान उन्हीं के द्वारा नष्ट और विकृत की गई इतिहास की पोथियों से अर्जित किया है जिसमें आर्यों का एक सभ्यताद्रोही जत्था भारत में प्रवेश करता है, इसकी नगर सभ्यता को नष्ट करता है, कुछ पीढियों के लिए उन्हीं जीते हुए नगरों पर पुराने नागरिकों की शैली में जीता है और फिर उसे चरवाही सवार हो जाती है। उन नगरों को लूटता, पुराने संपन्न जनों के घोड़-गोरू चुराता, उनकी हत्या करता, स्वस्तिपाट और शान्तिपाठ करता रहता है।
आप अपने भाषाविज्ञान को नहीं जानते, संस्कृत के वे आचार्य जिन्होंने पाणिनि को कंठस्थ कर रखा है, संस्कृत की प्रकृति, विकास और इसमें साहित्य सृजन के प्रयोगों को नहीं जानते। आप अपनी पुराणकथाओं के मर्म को नहीं जानते और इस चतुर्दिक व्यापी अज्ञान के बीच जिस किशाेरसुलभ आत्मविश्वास से दहाड़ते हुए, हल्ला बोलते हुए सोचते और गर्व से अभिभूत हो कर दर्प प्रकाशन करते हैं उससे मुझे लज्जा अनुभव होती है, साथ ही ग्लानि भी होती है कि मैंने स्वय अपना काम उस अकादमिक श्रेष्ठता का निर्वाह करते हुए नहीं किया।
इसलिए मैं हड्प्पा के समय से तीन गुने समय पीछे ले जा कर भारतीय इतिहास,और समाजरचना,रचना को और साथ ही इसकी मूल्यप्रणाली को समझने का प्रयत्न करूंगा और फिर हमारे साहित्य में, यह जितनी कलात्मक भंगियां लेते हुए प्रवाहित हुआ है उसकी चर्चा करेंगे और चर्चा करेंगे उस माधुर्य और क्षेत्र भाषा की सीमाओं को तोड़ता प्रवहमान रहा है और किस तरह उसमें उन विघातक तत्वों का समावेश हुआ कि पुराने प्रेम ने द्वेष का रूप ले लिया।
हमारी समाज रचना, इतिहास और संस्कृति की जड़ें विगत हिमयुग तक जाती हैं जब उत्तर से असंंख्य जनसमुदाय दक्षिण की दिशा में,पलायन करने और भारतीय भूभाग में शरण लेने को बाध्य हुए थे। नाममात्र की बरसात औ इतने भारी दबाव के चलते बचे रह गए खाद्यसंसाधनों की कमी के चलते जो भीषण नरसंहार हुआ, उसकी कहानियां प्रतीकात्मक रूप में कपालकंडला, रक्त से भरे खप्पर पीने वाली काली का जो स्थानीय प्रतीत होता है और कपाली, मानुषघ्न, रुद्र की प्रतीकात्मकता में देखा जा सकता है। इन जनों ने संस्कृति के अनेकानेक घटकों और कौशलों के विकास में, हमारी पुराकथाओं और देवकथाओं के विकास में अपनी भूमिका निभाई जिससे राहत का दौर या ऊष्म काल आने के बाद खेती का विकास हुआ और उसका विरोध करने वालों से बार बार टकराव हुआ। हालत यह कि कृषिकर्मी इधर उधर चारों ओर पलायन करते रहे। इन्हीं पलायन करने वालों ने पश्चिम एशिया में पहुंच कर स्थानीय धान्यों का संग्रह और उत्पादन आरंभ किया। हमारी शान्ति की वह कामना टकराव और विनाश के असंख्य अनुभवों का सार तत्व है।
साहित्य रचना भी उस प्राथमिक चरण पर ही आरंभ हो गई थी और इसका उत्तराधिकार वैदिक कवियों और बाद के कथाकारों और चिन्तकों को मिला।
वैदिक काल का साहित्य उस कोटि का है जिसे हम साधुओं सन्तों की भाषा में और अलंकार विधान में पाते हैं।
मोटे तौर पर समस्त भारतीय साहित्य उन कल्पनाओं, युक्तियों और छन्दयाेजना का दाय प्राप्त हुआ और यह हमारे साहित्य का प्राण है। यह मध्यकाल तक अबाध प्रवाहित होता रहा। भाषाओं की सीमाओं को पार करके, वही भावधारा एक सिरं से दूसरे सिरे से प्रवाहित होता रहा जिसे पहली बार अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मूल्यों के दबाव ने नष्ट कर दिया, उस दिशा से अरुचि पैदा कर दी, हम विश्व की सबसे समृद्ध साहित्यिक परंपरा के स्वाभी अकिंचनों में बदल और आंख मूंद कर वैसे विचार, संस्कार, और आत्मघृणा तक का आयात करने लगे और बौद्धिक रूप में दिशाहारा या दिग्भ्रति और स्मृतिलोप के शिकार बनते चले गए। हमारे पास अपना कोई विचार नहीं है, कुछ भी ऐसा नहीं जिसे ले कर हम विश्व समाज के सम्मुख स्वाभिमान के साथ खड़े हो सकें।
हालत यह कि हम उन शब्दों का अर्थ तक नहीं जानते जिनका प्रयोग आए दिन करते हैं। यह आयोजन नेशनल इंटीग्रेशन के उद्देश्य से किया गया है। दोष आयोजकों का नहीं, सभी इसका धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं। अब आप साेचिए कि इंटीग्रेशन का अर्थ क्या होता है। जो अपनी स्वायत्ता बनाए हुए हैं, जिनके कारण हम बहुलता में एकता आदि की बात करते हैं उन सभी विचारों और मूल्यों को कूट पाीस कर, एक आदर्श के अनुरूप ढालना। इसे आप धर्मान्तरण की अनिवार्य शर्त मान सकते हैं और वह भी ऐसा जिसमें इस बात की अपेक्षा की जाती है कि यदि कहीं भी कोई कमी रह गई है तो आत्मनिरीक्षण हमारी कसौटी पर पूरे उतरो। यह एक तबलीगी मुहिम है जिसे आपातकाल के बाद इतिहास, समाजविज्ञान और साहित्य की सभी पुस्तकों का लेखन का आधिकार राज्यों से छीन कर केन्द्र द्वारा, एनसीईआरटी के माध्यम से ले लिया गया और जो पोथियां लिखवाई गई वे केवल प्राचीन इतिहास, हिन्दू मूल्यों आदि का विरूपण था जिसके परिणाम अच्छे नहीं रहे और उसी के विरोध से वह चिनगारी पैदा हुई जो तेजी से बढ़ते हुए अखिल भारतीय वर्चस्व का दल बन गया। इससे होने वाले सांस्कृतिक प्रदूषण पर चर्चा का यहां समय नहीं है।
अन्तत: हम यह दिखाना चाहते हैं कि राष्ट्रीय एकजुटता के लिए हमने जो प्रयास किस वे ढोग थे और यह ढोंग अपने को उदार हिन्दू कहने वालों ने किए जिनमें गाधी जी तक का नाम आता है। अल्ला ईश्वर तेरे नाम, यह हिन्दू गाना या हिन्दू ढोंग है क्योंकि कोई मुसलमान किसी और को अल्लाह की बराबरी पर नहीं रख सकता। यह उस कलमे की भावना से अनमेल है जिसमें ला इलाह इन अल्लाह का सिद्धान्त है। यह मुसलमानों के लिए अपमानजनक है। इसी से क्षुब्ध हो कर मोहम्मद अली ने जो गांध्ाी जी के घुटने चूमते थे, कांगेस के भरे मंच से कहा था कि गिरा से गिरा मुसलमान गांधी से अच्छा है। दूसरे क्षुब्ध हुए तो गांधी जी ने उन्हें चुप करा दिया, परन्तु अच्छा होता कि आगे से उन्होंने इस धुन का भी त्याग कर दिया होता और वैष्णवजन ते तेणे कहिए तक सीमित कर लिया होता।
ठीक इसी तरह एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति एक मुसलमान के लिए अपमान जनक है क्योंकि इस्लाम जिन्होंने कबूल नहीं किया वे जाहिलिया की अवस्था में जी रहे हैं। केवल इस्लाम ही है, जो अल्ला से सीधा रिश्ता रखता है।
मैं यह जोर देकर कहना चाहता हूं कि इस्लाम मानने वाले अपने लिए जो सही मानते हैं उस पर आपत्ति करने या अपने आदर्श थोपने का अधिकार हमने राष्ट्रीय आन्दोलन के जोम में ले लिया वह गलत था। पारसी, यहूदी सभी इस देश में अपने विश्वास और विचार के साथ जीवित रहे हा और राष्ट्रीय एकजुटता नहीं सौमनस्यता के विकास के लिए हमें उसमें बाधा डालने का तो अधिकार है नहीं, सरकार को जहां उसकी कोई बुराई दंडनीय अपराध प्रतीत हो वहीं हस्तक्षेप करना चाहिए ।
मुझे हिन्दू मुसलिम एकता नहीं चाहिए, हिन्दुओं और मुसलमानों में सहयोग और सहभागिता चाहिए जो आर्थिक हितों की समानता होने पर सहज स्थापित हो जाती है। मेरे जितने निकट के मित्र हिन्दू हैं उससे कम मुसलमान नहीं हैं। हम अपनी सीमाओं की स्पायत्तता और सामान्य सरोकारों में एकजुटता का परिचय दे चुके हैं और मैंने मुस्लिम मित्रों के सहयोग से उन मुस्लिम गुट काे सत्ता से बाहर किया है और दोनों मेरा सम्मान करते हैं। अहस्तक्षेप हमारी नीति होनी चाहिए एक नागरिक के रूप में उनकी धार्मिक स्वायत्तता के हित में।
मैं राजनीतिक दलों और साम्प्रदायिक संगठनों से परहेज रखता हूं और वर्तमान सरकार की संस्कृति और इतिहास से जुड़ी अधकचरी समझ को संस्कृति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूं परन्तु पूरे भारतीय समुदाय को आत्मीयता के तार में बांधने का जो प्रयोग नरेन्द्र भाई मोदी ने किया उसे लंबे समय से चली आरही बदहवासी का एकमात्र इलाज मानता हूं।