Post – 2016-11-10

भारतीय मुसलमान और भारतीय बुद्धिजीवी – 7

साहित्‍य अकादमी लाइब्रेरी में सदा से सह व्‍यवस्‍था थी कि किताबोंं के वितरण और वापसी के डेस्‍क के निकट रेफरेस की पुस्‍तकें – विश्‍व कोश, कोश ग्रंथ आदि के सेल्‍फ हुआ करते थे। लाइब्रेरी तीन हिस्‍सों में विभाजित रही है – वाचनालय, आगे का हिस्‍सा जिसमें सबसे आगे अंग्रेजी साहित्‍य, अंग्रेजी में उपलब्‍ध वांग्‍मय जिसमें इतिहास, भाषाविज्ञान, विश्‍वभाषाअों की अंग्रेजी में अनुदित पुस्‍तकों आदि के रैक्‍स थे और उससे पीछे हिन्‍दी साहित्‍य और हिंदी में उपलब्‍ध वांग्‍मय । पीछे के साइड में संस्‍कृत सहित विभिन्‍न भारतीय भाषाओं के सेल्‍फ थे। इन्‍हीं में एक उर्दू भी थी। योजना की गुणवत्‍ता स्‍वत: स्‍पष्‍ट है । 2013 इसके लाइब्रेरियन एक मुस्लिम सज्‍जन बने जिनका नाम मुझ ठीक याद नहीं इसलिये शब्‍बीर अहमद मान लीजिए। उन्‍होंने आते ही पहला काम अरेंजमेंंट को बदलने का किया। अब अंग्रेजी के ठीक पीछे उर्दू और उसमें उतनी पुस्‍तकें तो थींं नहीं कि पीछे सेल्‍फों की कतारें भरी जा सकें, इसलिए उस जगह को भरने के लिए संस्‍कृत की पुस्‍तकों को पीछे से सामने लाया गया। इससे शब्‍बीर अहमद की मनोकामना पूरी होगई कि उर्दू सामने आ गई और हिन्‍दी बैकग्राउंड में चली गर्ई । प्रगतिशील आन्‍दोलन के आरंभ से आज तक मुस्लिम बौद्धि‍कों सोच और अभिव्‍यक्ति श्रव्‍य दृश्‍य माध्‍यमो से लेकर अश्रव्‍य और अदृश्‍य माघ्‍यमों तक यही रही है और इसी को हिन्‍दू वामपन्‍थी भी जोर शाेर से, उन्‍हीेें इबारतों मे दुहराते रहे हैं कि कहीं उन्‍हें हिन्‍दुत्‍ववादी न मान लिया जाय। लोगों ने अपने को सेक्‍युुलर सिद्ध करने के लिए बड़़ी कीमतें चुकाई है और आज भी चुकाते जा रहे हैं।
इसलिए अकेले शब्‍बीर अहमद को मैं इस निर्णय के लिए दोष देना उचित नहीं समझता। वह तो सेक्‍युलर धर्म का निर्वाह कर रहे थे। दुर्भाग्‍य से अभी तक काेई
सेक्‍युलर समझ का कोई लाइब्र
रिन अकादमी काे नसीब नहीं हुआ था । जो लोग इतिहास से ले कर वर्तमान तक के ऐसे अनुभवों से गुजरने वाले यह राय बना लेते हैं कि मुसलमान हाेता ही दगाबाज है,मेमने का मुखौटा लगाए रखने वाले मौका मिलते ही मुखौटा उतार कर भेडि़ए के तेवर में आ जाते हैं उनको मैं गलत नहीं मान सकता परन्‍तु इसमें उन परिस्थितियों को स्‍थान नहीं दिया जाता जिनमें इस स्‍वभाव का निर्माण होता है और उनमेंं बदलाव आने पर स्‍वभाव भी बदलता है।