मिडिल स्कूल में मैंने दूसरी भाषा के रूप में उर्दू को चुना था। उर्दू की किताब का
नाम निगार उर्दू था। उसमें मुहम्मद साहब के जीवन पर एक नज्म थी। पहली पंक्ति भूल रहा हूंं अगली थी
वह नबी जिसका मुहम्मद नाम था
घर से जब मस्जिद को होता था रवां।
रास्ते में एक पड़ता था मकां ।
नामुहमडन उसमें रहता था कोई
जिसको थी उस नूरे हक से दुश्मनी ।
जमा कर रखता था कूड़ा घर का सब
फेकता था फर्कश: पर बेअदब ।
आग के वर्णन में आता है कि एक दिन उसने कुड़ा नहीं फेंका। मुहम्मद साहब को चिन्ता हुई कि आज माजरा क्या है। घर में गए और देखा कि वह एक बुढि़या थी। वह बीमार पड़ गई थी। उसकी देख भाल करने वाला काेई था । उन्होंंने उसकी तीमारदारी की और जब वह ठीक हो गई तो अपने पिछले कारनामें पर इतनी लज्जित हुई कि इस्लाम कबूल कर लिया। इस अहिंसा मार्ग की तुलना जब कुरान शरीफ के उन तमाम हवालों से करता हूं जिनमें विधर्मियों का सर कलम करने के विधान है तो मेरी समझ में नहीं आता कि उनका वास्तविक चरित्र क्या था। इससे लगता है कि वह रक्तपिपाशु अरब समाज में अहिंसा और भाईचारा का वह दर्शर्न प्रचारित करना चाहते थे जो वहां के समाज को कबूल न था और इसलिए उनके इस मानवतावादी दर्शन कुरान को लिपि बद्ध करने वाला पचा नहीं सका था। उसने हिंसा और बलप्रयोग को कुरान का कार्यदर्शन बना दिया।
जैसे दूसरे विशाल ग्रन्थों मे पाया जाता है, उनकी पकृति धार्मिक हो या नहींं, सभी में कुछ मिलावट की गई है। कुर’आन केे विषय में तो जहां कोई असुविधाजनक स्थिति आए और उस विषय में उसे उद्धृत किया जाय तो मुसलमान ही यह कहते है कि यह प्रामाणिक संस्करण नहीं है या प्रामाणिक पाठ नहीं। यह एक ऐसा खुला रहस्य है कि इसे कोई भी लक्ष्य कर सकता है। मिसाल के लिए यह माना जाता है कि कुरान की आयतों का मुहम्मद साहब को अन्तर्ज्ञान या इलहाम हुआ था। परन्तु यह पुराने टेस्टामेंट के उन अंशों पर लागू नहीं हो सकता जिनको कुरान में समेट लिया गया। अब इसके दो भाग हो गए एक वह जिसका मुहम्मद साहब को इल्हाम हुआ था, एक वह जो उसके लेखकों सा संंपादको उसे भारी भरकम बनाने के लिए उसमें पुराणशास्त्र से सीधे ले कर भर दिया। इसका एक और पाठ बनता है मुहम्मद साहब के सामान्य स्वभाव से अनमेल पड़ने वाले अंश विशेषत: जो क्रूरता, दमन और असहिष्णुता प्रकट करते हैं, वे बाद के शासकों के आदेश से या वहां की रक्तपिपाशु संस्कृति के दबाव में अन्त:क्षेप था जिसके लिए बाद के लेखक उत्तर दायी माने जा सकते है।ये क्रूर विधान ‘खुदा बहुत क्षमाशील है की टेक से भी मेल नहीं खाते और मुहम्मद साहब के उस स्वभाव से भी जिसकी झलक ऊपर की नज्म में मिलती है।
अब प्रश्न उठता है कि कुर’आन को कब लिपिबद्ध किया गया और इसकी प्रतिलिपियां करने वालों ने चूक से या इरादतन क्या बदलाव किए कि कुर’आन के प्रामाणिक पाठ और अप्रामाणिक पाठ का सवाल उठाया जाता है। इसके विषय में इंटरनेट पर एक प्रश्नोत्तरी में जो विवरण मुझे पढ़ने को मिला वह निम्न प्रकार है:
There are three prevailing views concerning the compilation of the Qur`an:
1. It was compiled during the lifetime of the Prophet (ص). The compilation took place under his supervision—which is tantamount to divine inspiration—although he himself neither wrote the text of the Qur`an nor collected the verses directly.
2. The Qur`an that we have today was compiled by Imam ‘Ali b. Abi Talib (ع) after the Prophet’s death but before people finally accepted him as a caliph.
3. The Qur`an was compiled after the Prophet’s death by a handful of the Prophet’s companions (other than Imam ‘Ali b. Abi Talib (ع)).
Most Shi’i scholars—especially contemporary scholars—accept the first view. Some Shi’i scholars have taken the second stance. However, many Sunni scholars have accepted the third view. Orientalists have also accepted this view and have added that the Qur`an written by Imam ‘Ali b. Abi Talib (ع) was virtually ignored by the companions.
Obviously, on the basis of the first two opinions, the compilation of the Qur`an, its division into surahs (chapters), and the order within and among the surahs can be attributed to the divine will. In particular, based on the verse that reads,