Post – 2016-11-08

भारतीय मुसलमान और भारतीय बुद्धिजीवी – 6

हम जो कुछ भी करते या कहते हैं उससे पहले हमारे मन में यह स्‍पष्‍ट होना चाहिए कि हम क्‍या कर रहे हैं, इसे पूरा करने का साधन या वातावरण तैयार है या नहीं, और इसके क्‍या परिणाम होंगे। मोटी बात यह कि क्रिया से पहले सोच विचार जरूर हो। मन्‍त्रपूर्वा समारम्‍भा: ।

विफलता की स्थिति में या एक पिछड़े हुए समाज में लोग दूसरों काे गलत सिद्ध करके अपने को सही सिद्ध कर लेते हैं या इसका प्रयत्‍न करते हैं। दूसरों पर दोषारोपण करके अपने को सही सिद्ध करने से दूसरा गलत नहीं हो जाता, उसके पास भी अपने बचाने के लिए वैसे ही बहाने होते हैं। दोनों की नोकझोंक उस समय की बर्वादी है जिसमें वे उस विफलता के कारणों की पड़ताल करके उनसे भविष्‍य में बचने का तरीका निकाल सकते हैं। मुझे अपनी पिछली पोस्‍ट की सबसे बड़ी उपलब्धि यह लगी कि एक मुस्लिम अध्‍येता सबीह अहमद ने मुझे चुनौती दी कि मैं कुरआन शरीफ को पढ़ कर यह बताऊं कि उसमें मानवता के विरुद्ध क्‍या है। यह एक शुभ संकेत है कि चुप्‍पी की जगह बात तो आरंभ हो। वह कुरआन शरीफ से इतने अभिभूत हैं कि उन्‍हें उसमें कोई दोष दिखाई नहीं देता, मुझे बहुत सारे दोष दिखाई देते है।

हम प‍हले यह समझ लें कि हमारा देखना, सुनना, सोचना सब सेलेक्टिव होता है। अपनी आंखों के आगे के उस परिदृश्‍य को जिसे हमारा कैमरा देखता है, हमारी आंखें देखती तो है, परन्‍तु यदि उस समग्र को अपने अवधान बिन्‍दु में लायें तो हम बहुत कुछ देखते हुए भी कुछ देख न पाएंगे। यही हमारी श्रुति के साथ है। हमारे कान में एक ही समय में जितनी ध्‍वनियां पहुंंचती हैं उनमें से हम अपनी जरूरत के अंश को ही सुनते हैं, बाकी श्रवणग्राह्य कूड़ा होता है जिसकी ओर ध्‍यान तक नहीं देते। हम किसी विषय पर सोचते हुए उसके विषय में अधिकांश जानकारी को छांट कर अलग कर देते है। इस छंटाई में कभी कभी कुछ चूक भी होती है। कई बार तो ऐसा कि जो कथ्‍य था वह रह गया जो वागाडंबर था उसने सारा समय या सारी जगह घेर ली। इसे हम मानवीय बोध की सीमा मान सकते हैं और यह चतुर सुजान लोगों से ले कर मुझ जैसे बौड़म में भी पाया जाता है।

हिन्‍दू समाज और मुस्लिम समाज में अन्‍तर यह है कि हिन्‍दू समाज में तर्क के लिए जगह बची है। तर्क के लिए यह छूूट मामू अल रशीद ने दी थी और इस हद तक कि तर्क विरुद्ध बातों के लिए सार्वजनिक दंड दिया जाय। पर तर्कशास्‍त्री लाेगों ने तो अपने यहां भी स्‍वप्‍न, अध्‍यास या भ्रान्ति के सहारे ब्रह्म सत्‍यं जगन्मिथ्‍या सिद्ध कर ही दिया था। और यह काम शंकराचार्य जैसे उद्भट आचार्य ने किया था। जीवन निस्‍सार है, परलोक ही सार है यह विश्‍वास पैदा करने में आंशिक सफलता तो मिली ही है। जो बिधना ने लिख दिया छठी मास के अत, राई घटे न‍ तिल बढ़े रहु रे जीव निशंक। अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम । भगवान की मरजी के बिना एक पत्‍ता तक डोलता तो हवा धरी रह गई, पत्‍ती में कंपन पैदा करने वाला भगवान हो गया हवा तो उसी के प्रताप से बहती है। अपनी चिन्‍ता प्रणाली में इस तरह की तर्कविरुद्ध बातें जिस तरह हमें नहीं दिखाई देतीं, उसी तरह से सबीह अहमद को अपनी भक्तिधारा के कारण यह दिखाई नहीं दिया कि कुरआन शरीफ में कुछ बातें मानव द्रोही, कुछ नारी द्रोही और कुछ पर्यावरण द्रोही हो सकती हैं। इस पर चौंकने की जरूरत नहीं है समझने की जरूरत है।

यदि हमें वर्तमान गिरावट का बोध नहींं है तो जरूरी है यह बोध पैदा हो। यह समझ पैदा हो कि अब्‍बासी खलीफाओं के शासन में न्‍याय, मानवीय मूल्‍यों के साथ तार्किक असहमति के लिए छूट दी गई थी जिससे तीन शताब्दियों तक अरब विश्‍व सभ्‍यता के शिखर माने जाते थे तो ही हम अपनी प्रगति के रास्‍त तलाश सकते हैं । मै इस ओर ध्‍यान दिलाने की कोशिश कस्‍ंगर कि इस्‍लामी जगत किस गिरावट को पहुंच गया है कि यदि दयालु अल्‍लाह ने उसके बालू के नीचे संपदा का ऐसा भंडार दे दिया तो वह योग्‍यता क्‍यों न दी कि वह अपनी दौलत को संभाल पाता । उसे संभालने वाले दूसरे आ गए है जो असे लंबे अरसे तक जाहिल बना कर रखना और इस्‍लामी जलत मध्‍यकाल से बाहर निकलने ही नहीं देते। इसलिए यदि अपने भले की सोचना है तो उस हालत से बाहर निकलना होगा जिसमें घेर कर रखने के लिए कुरआन का इस्‍तेमाल किया जा रहा है।

हमारे मित्रों में काफी संख्‍या ऐसों की है जो समझते है यदि दूसरा गिरावट के दिनों से गुजर रहा है तो यही इस बात का प्रमाण है कि हमारी दशा अच्‍छी है। ऐसा है नहीं पर यह जबह उस पर बात करने की नहीं है इसलिए हम नीचे एक विवेचन परक लंबे लेख के एक अंश को यहां दे रहे हैं जिसकी रोशनी मुसलमान अपने हालात पर पुनर्विचार कर सकते हैं ।
Today, however, the spirit of science in the Muslim world is as dry as the desert. Pakistani physicist Pervez Amirali Hoodbhoy laid out the grim statistics in a 2007 Physics Today article: Muslim countries have nine scientists, engineers, and technicians per thousand people, compared with a world average of forty-one. In these nations, there are approximately 1,800 universities, but only 312 of those universities have scholars who have published journal articles. Of the fifty most-published of these universities, twenty-six are in Turkey, nine are in Iran, three each are in Malaysia and Egypt, Pakistan has two, and Uganda, the U.A.E., Saudi Arabia, Lebanon, Kuwait, Jordan, and Azerbaijan each have one.
There are roughly 1.6 billion Muslims in the world, but only two scientists from Muslim countries have won Nobel Prizes in science (one for physics in 1979, the other for chemistry in 1999). Forty-six Muslim countries combined contribute just 1 percent of the world’s scientific literature; Spain and India eachcontribute more of the world’s scientific literature than those countries taken together. In fact, although Spain is hardly an intellectual superpower, it translates more books in a single year than the entire Arab world has in the past thousand years. “Though there are talented scientists of Muslim origin working productively in the West,” Nobel laureate physicist Steven Weinberg has observed, “for forty years I have not seen a single paper by a physicist or astronomer working in a Muslim country that was worth reading.”
Comparative metrics on the Arab world tell the same story. Arabs comprise 5 percent of the world’s population, but publish just 1.1 percent of its books, according to the U.N.’s 2003 Arab Human Development Report. Between 1980 and 2000, Korea granted 16,328 patents, while nine Arab countries, including Egypt, Saudi Arabia, and the U.A.E., granted a combined total of only 370, many of them registered by foreigners. A study in 1989 found that in one year, the United States published 10,481 scientific papers that were frequently cited, while the entire Arab world published only four. This may sound like the punch line of a bad joke, but when Nature magazine published a sketch of science in the Arab world in 2002, its reporter identified just three scientific areas in which Islamic countries excel: desalination, falconry, and camel reproduction. The recent push to establish new research and science institutions in the Arab world — described in these pages by Waleed Al-Shobakky (see “Petrodollar Science,” Fall 2008) — clearly still has a long way to go.
Given that Arabic science was the most advanced in the world up until about the thirteenth century, it is tempting to ask what went wrong — why it is that modern science did not arise from Baghdad or Cairo or Córdoba. We will turn to this question later, but it is important to keep in mind that the decline of scientific activity is the rule, not the exception, of civilizations. While it is commonplace to assume that the scientific revolution and the progress of technology were inevitable, in fact the West is the single sustained success story out of many civilizations with periods of scientific flourishing. Like the Muslims, the ancient Chinese and Indian civilizations, both of which were at one time far more advanced than the West, did not produce the scientific revolution.
Nevertheless, while the decline of Arabic civilization is not exceptional, the reasons for it offer insights into the history and nature of Islam and its relationship with modernity. Islam’s decline as an intellectual and political force was gradual but pronounced: while the Golden Age was extraordinarily productive, with the contributions made by Arabic thinkers often original and groundbreaking, the past seven hundred years tell a very different story.