Post – 2016-11-06

भारतीय मुसलमान और भारतीय बुद्धिजीवी – 5

मैं आशावादी हूं पर आशावाद की अपनी सीमाएं हैं । जब मैं मुस्लिम समुदाय के साथ सद्भाव से रहने रहने की संभावनाओं पर जोर देता हूूं तो कुछ लोग मुस्लिम समुदाय का इतना डरावना चित्र पेश करते हैं जैसे वह मनुष्‍यों का समाज हो ही नहीं। मुसलमानों को इस बात पर शिकायत नहीं होनी चाहिए कि वे ऐसा सोच कर उनके प्रति अन्‍याय करते हैं क्‍योंकि उनमें जो बात बात पर कुरान और हदीस की दुहाई देते रहते हैं वे गैर मुसलमानों के बारे में ऐसा ही सोचते हैं। मेरी चिन्‍ता यह है कि मुसलमाान कुरान में रहेंगे तो हिन्‍दुस्‍तान में कैसे रह पाएंगे। हिन्‍दू यदि उन्‍हें बर्बर मान कर चलेंगे तो साथ कैसे रह पाएंगे। इसी से जुड़ा एक और सवाल है कि क्‍या मुस्लिम बुद्धिजीवियों की ही नहीं, अपने को सेक्‍युलर कहने वाले बुद्धिजीवियों की यह भूमिका नहीं बनती थी कि वे उनको शटअपनेस या बन्‍द दिमागी से बाहर लाने के बारे में सोच विचार करें । क्‍या वे जो कठमुल्‍लों से अधिक कठमुल्‍ले हैं वे इस्‍लामी परंपरा को भी समझने और उसकी सीमा में जो संभावनाएं हमें दिखाई देती हैं उन्‍हें टोहने का प्रयत्‍न कर सकते हैं। यदि अब तक न किया तो अब से या यदि वह भी न हो सके तो वे हमें, जो ऐसा प्रस्‍ताव रखना है, किसी दुश्‍चक्र या क्षुद्र समाजदृष्टि से ग्रस्‍त सिद्ध कर सकते हैं । य‍दि वे इतना भी करें तो मेरे लिए उनके विचारों का असाधारण मूल्‍य हुआ कि इसके साथ कम से कम हम गाली देने वाली भाषा से आगे बढ़ कर तर्क वितर्क तक तो आए ।

क्या यह सच हैै कि हदीस में कहीं इस बात का जिक्र है कि मुहम्म्द साहब या अरब हिन्दुस्तान को जन्ननतनिशां कहते थे ? मैंने यह बात पहली बार सैयद सुलेमान नदवी केे सन 1930 में हिन्दुहस्तािनी अकादमी में दिए गए उनके व्याख्यानों में पढ़ी थी जो भारत और अरब के संबंध के रूप में प्रकाशित हुई थी। फिर अरब व्यापारियों ने आदम्स ऐपल को उस स्थान के रूप में पहचाना जहां स्वार्ग से उतरने के बाद आदम ने जमीन पर पांव रखा था। मुहम्मनद साहब कहते थे पूरब से मीठी हवाएं आती हैं, और जैसा मैंने कहा, यह मीठी हवाएं यहां के ज्ञान और दर्शन का द्योतक है ऐसा मेरा खयाल है। मुहम्मद साहब का मानना था कि यदि ज्ञान चीन जैसे सुदूर देश से मिले तो उसे भी ग्रहण करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति का यह विचार न रहा होगा कि वह ज्ञान यदि कुरान में लिखी बातों से मेल खाए तभी उसे ग्रहण करना चाहिए। ऐसा सोचने वाला व्यक्ति ग्रंथागारों और शिक्षा संस्थानों को शैतानी ज्ञान का केन्द्र मान कर उसे जलाने का हामी नहीं हो सकता।

मुहम्मद साहब ने एक बहुत मजेदार फर्क किया जा ईसाई पापेसी में नहीं था यह मेरा अपना खयाल है जो गलत हो सकता है क्यों कि ऐसा उन्हों ने संभवत: कहीं लिखा नहीं, अपने मन के सभी विचारों को कोई लिख भी नहीं सकता। यह था जहां तक मजहबी या विश्वास के मामले हैं उसमें कुरान को मानो, जहां ज्ञान का प्रश्न‍ आता है आधुनिक और तर्क संगत ज्ञान को वह कहीं का भी हो और यदि वह कुरान की कास्माेलोजी या खगोलविद्या से अनमेल पड़े तब भी । मध्यकाल के ईसाई उन्मादियों ने ज्ञान और तर्क को मिटा दिया था, और इस पर गर्व भी प्रकट किया था यह हम देख आए हैं इसलिए वे तार्किकता के भी विरोधी थे।

उमैया ने धर्मसत्ता और राजसत्ताम हासिल करने के लिए मुहम्माद साहब में धेवतों हसन और हुसेन को धोखे से घेर कर कर्बला में मार डाला। पहले उन्हों ने कुछ लोगों से उन्हें कुछ विद्रोहियों के नाम से यह पैगाम भेजा कि वे आयें तो वे उनका साथ देंगे और ऐन मौके पर उनका साथ नहीं दिया, या यह एक साजिश थी जिसके वे शिकार हुए बल्कि उन्हें तड़पा कर मारा गया। यह क्रूरता यही तक सीमित न थी। इस्ला‍म को विचार के आधार पर फैलने की छूट देने की जगह तलवार के जोर से एक विशाल साम्राज्य कायम किया गया। उनकी राजधानी दमिश्कक थी और यहां से शासन करते या साम्राज्य विस्तार करते हुए वे 661 से 750 अर्थात नब्बे सालों में ही अरब के बाकी हिस्सों, ईराक, सीरिया, लेबनान, फिलिस्तीन, मिस्र, अफ्रीका के उत्तरी भाग, मध्य एशिया, स्पे न तक अपना विस्तार कर लिया और भारत तथा चीन के पड़ोस में पहुंच गए।

इस्लामी जगत में सभ्यता का आरंभ अब्बासी खलीफाओं के साथ आरंभ हुआ जिन्हों ने बगदाद को मेरे अनुमान से उसी रास्तेर पर आगे बढ़ाया जिसका पूर्वाभास मुहम्मद साहब के ऊपर के दोनों कथनों में मिलता है। यह भौगोलिक स्थिति के कारण भी हुआ और उनके दृष्टिकोण के कारण भी। बगदाद ईरान, बख्त्र जो ग्रीक प्रभाव में लंबे समय तक रहा था, और भारत के भी निकट था और उस वणिक्पथ से भी जुड़ जाता था जिसे सिल्‍क रूट कहा जाता है। यूरोप के लोगों को अरबों के माध्‍यम से जो कुछ भी मिला उसका स्रोत स्‍वाभाविक है कि वे अरब को मानते, अत: उनके लिए शून्य, दाशमिक अंक प्रणाली तक अरबी था, इसी तरह गणित, ज्योेतिष, चिकित्सा, ज्यामिति, त्रिमिति, दर्शन के भारतीय अवदान को भी वे नहीं समझ सकते थे। भारतीय विशेषज्ञों का एक शिष्ट‍मंडल अल मामू रशीद ने आमन्त्रित किया था और पूरब से आने वाली मीठी हवाओं को अरब ने अपना मालो जर बना लिया था इसलिए एक अर्थ में आधुनिक यूरोप की जड़ों में उस भारत का चिन्तन और ज्ञान बरास्ता अरब पहुंचा था।

सुनते हैं अलमंसूर के साथ ही ज्ञापपिपाशा को तलवार से अधिक महत्‍व‍ दिया जाने लगा। तलवार को वक्त जरूरत इस्तेमाल के लिए तो रखा पर अर ज्ञान की शक्ति को तरजीह दी। अल मंसूर कहते है मुहम्मपद साहब के चाचा के पोते थे और इस दृष्टि से वे उस परंपरा के अधिक विश्वससनीय वाहक हो सकते थे जिसकी योजना मुहम्मद साहब के मन में थी। अब्बासी खलीफाओं ने ज्ञान, विज्ञान, विमर्श के लिए और दूसरे देशों के ज्ञान को जुटाने और उनका अरबी में अनुवाद करने का, विचार स्वावतन्त्र्य का और उस ज्ञान संपदा पर आगे अनुसंधान और प्रयोग करने का जो अवसर दिया उससे विश्व सभ्यता का केन्द्रू बगदाद बना रहा और सबसे आधुनिक समाज अरबों का बना रहा जिसकी प्रेरणा से आधुनिक यूरोप का जन्‍म हुआ।

यूरोप के ज्ञान विज्ञान के नींव की एक एक ईंट अरबों से हासिल की गई थी और अरबों ने अपने ज्ञान और सभ्यता की नीव की एक एक ईंट भारत से ली थी परन्तु चरखा और कागज और रेशम बनाने की कला चीन से ली थी। अरबों ने उस नींव पर अपने ज्ञान के महल बनाए और यूरोप ने उन महलों को अपनी नींव में डाल लिया और उस पर गगनचु़ंबी शिखर बनाए। सच कहें तो उन्होंखने पहली बार संचित ज्ञान या इल्म को विज्ञान बनाया, उसे परिभाषित किया और जो भी उनके संपर्क में आया उसका दोहन तो किया पर लाभान्वित भी किया।

मेरी जो समझ बनती है, वह अधकचरी होते हुए भी यह है कि मुहम्मनद साहब के दृष्टिकोण के कारण अरब दुनिया के सबसे रौशनदिमाग लोग माने जाते थे। तार्किकता पर सुनते हैं अल मामू रशीद ने इस हद तक आग्रह किया कि यदि कोई तर्कविरोधी बात करे तो उसे सार्वजनिक रूप से कोड़ा मार कर दंडित किया जाय। यह वह दौर था जिसमें यदि तार्किक हों तो नास्तिक विचारों के लोगों का भी सम्मान हुआ करता था। शर्त यह कि तर्कपूर्ण ढंग से किसी बात का समर्थन किया जाय इब्ने सिना, ख्वारिज्मी, अलबरूनी, आदि दर्जनों चिन्तकों ने ज्ञान, दर्शन और तर्कशास्त्र को जो ऊंचाई दी उससे आधुनिक यूरोप का, उसकी आधुनिकता का जन्म हुआ इसे दबारा कहने की जरूरत है।

दुर्भाग्य से इन्हीं में एक दार्शनिक अल गजाली भी थे जाे अंधविश्वा‍स को तार्किक सिद्ध कर सकते थे। जिन्हें हम सुन्नी कहते हैं वे उमैया खलीफाओं की तौर तरीकों और अल गजाली के चिन्तन से प्रभावित हैं जिसमें तार्किकता के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता।

विज्ञान काे और कार्यकारण संबंध को अगर हम मान लें तो अल्लाह की जगह तो विज्ञान ले लेगा। इसलिए जो चीजें तर्क या कार्य-कारण की परिधि में आते हैं यदि उनकाे मान लिया गया तो इस्लााम ही खत्म हो जाएगा, इसलिए किसी भी घटना या क्रिया का उसके कारण से कोई संबंध नहीं। ये सब खुदा की मरजी से हैं। भूख लगती है और वह कुछ खाने से शान्त हो जाती है इसमें कोई तुक नहीं, दोनों में कोई संबंध नहीं। खुदा चाहेगा तो बिना कुछ खाए ही बंदे का पेट भर जाएगा। आग जलती है उससे गर्मी पैदा होती है, इसमें कोई संबंध नहीं, ये दोनों कार्य और कारण से जुड़ी बातें नहीं है, खुदा चाजे तो बिना आग के गर्मी पैदा हो सकती है।

खुदा परस्ती यदि इस सीमा तक पहुंच जाय तो क्या ऐसे समाज से कोई बात की जा सकती है। वे नेकदिल हो सकते हैं, समझदार नहीं। यह सोच कर मुझे घबराहट होती है। मेरा अब तक विश्वास कि बदलाव तो सभी में लाया जा सकता है, धराशायी हो जाता है। पर आशावादी बार बार धराशायी होने के बाद उठता है, सोचता है कि मैं क्यों गिरा था और आगे संभल कर चलता है।

मेरा यह ज्ञान बहुत अधूरा है, परिपक्व तो कहा ही नहीं जा सकता। बहुत से पहलू छूट गए हो सकते हैं। मुस्लिम विद्वानों में अधिकांश मेरी गलतियों पर हंस सकते हैं, पर क्या वे मुझे और मेरे पाठकों को यह समझाने की भी कोशिश कर सकते हैं कि गलती क्या है और इसे कहां से सुधारा जा सकता है।