Post – 2016-10-16

भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर – 9

मैं अपने बारे में जितनी खराब राय रखता हूँ उससे अधिक खराब राय कोई दूसरा रख नहीं सकता। जिन लोगों के लिए मतिमन्द का प्रयोग होता है, उनकी बिरादरी में अपने को क्यों शरीक करता हूं इसका कुछ आभास पीछे की किसी डाक में दे चुका हूं, पर पूरा नहीं। परन्तु इस सीमाबोध के बाद भी मैं अपने समवयस्कोंं और अग्रजों में से अधिकांश को कच्चे दिमाग का पाता हूं और अफसोस करता हूं कि जिन्दंगी भर ज्ञानकेन्द्रों की बादशाहत करने वालों तक दिमाग के इतने कच्चे क्यों हैं कि जो कुछ मुझ जैसे अल्प मति को भी दीख जाता है वे उनमें से कोई उसे देख क्यों न सका। इसका पहला बोध मुझे वैदिक इतिहास पर काम करते हुआ था और फिर सामाजिक प्रश्नों पर उनकी अधकचरी समझ से यह पक्का होती गई। इसका कारण यह है कि असाधारण प्रतिभा संपन्न होते हुए भी, उन्हों ने अपने सक्रिय जीवन के उतने घंटे उस ऊहापोह में नहीं गुजारे होंगे जितने मैंने सचाई को समझने के लिए लगाए होंगे। अधिकांश ने अपने निर्माणकाल में ही अपने को किसी विचारदृष्टि से जोड़ लिया और आगे केवल अध्ययनरत रहे, उसी दृष्टि के अनुरूप तथ्यों को अपनी ज्ञानसंपदा का अंग बनाते रहे, जब कि मैं जिसे जानता हूं या मानता हूं उसे भी कोई भी नया और अनमेल विचार या प्रमाण आने पर नये सिरे से जांचता हूं और जरूरी होने पर अपनी पुरानी मान्यता में परिवर्तन करता हूं। दूसरे लोगों के लिए जहां कुछ लोग या ग्रन्थं आप्त होते हैं, और इसलिए उनका नाम आते ही वे अपने सोच विचार को स्थगित कर देते हैं, मैं किसी को आप्त नहीं मानता। कुछ को आप्त मानने वाले उससे विपरीत दृष्टि वाले विचारक का नाम आते ही तौबा करने लगते है, मेरे लिए वह भी कभी तिरस्करणीय नहीं होता। मैंने यह गांधी जी से नहीं सीखा, पर देखा उनकी भी यही दृष्टि थी। व्यवक्ति नहीं, गुण या दुर्गुण या व्याधि के ग्रहण और निवारण का प्रयत्न हो तो हम आत्म- विजय कर सकते हैं, अपने मनोबन्धों से मुक्ति पा कर अपनी स्व को पा सकते हैं।

बौद्धिकों और सर्जकों के राजनीतीकरण ने उन्हें पैकिग बक्सों में दिया जिनमें उन उनके अकाट्य सत्य भरे मिलते हैं। वे अपने मनोलोक को अधिक और वस्तुअजगत को कम देखते हैं या मनोलोक को दृश्य जगत पर आरोपित करके देखते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वस्तुगत यथार्थ में जितना भी परिवर्तन हो जाए, उनके निर्णय नहीं बदलते। मतलब बौद्धिक अचलता का यह भाव उन्हें जड़ बनाए रहता है। मैं इसे तीन उदाहरणों से समझने-समझाने का प्रयत्न करूंगा।

पहला यह कि जैसा कि हम प्रमाण देते हुए बता आए हैं कि कैसे वामपंथी दलों और कांग्रेस में लीग की मानसिकता का प्रवेश हुआ। यदि उसका कोई निषेध कर सके तो उसका अनुग्रह मानूंगा। परन्तु कुछ तो उनकी निगाह काफिर थी कुछ हमें भी खराब होना था। हिन्दू या मुस्लिम में जो परहेज का भाव है और इसके कारण इनमें आरंभ से ही एक दूसरे से बचने का ही नहीं, अनिष्ट चाहने तक का भाव घर कर जाता है उससे न मुस्लिम लीग को मुक्त माना जा सकता है, न संघ को, न हिन्दूस महासभा, या उसकी संतान विश्व हिन्दू् परिषद को [कभी आपनेे गौर किया कि विश्वल हिन्दू‍ परिषद क्यास है? मुझे लगता है, यह पान इस्लामिज्म की ललक का हिन्दू संगठन में प्रवेश है। जिसे सचमुच विश्व पूर्वपद का प्रयोग करने का अधिकार है, वह है ईसाइयत। पर, यहां पर बातेंं ही बातें, ईसाई काम करता है।] मुक्त माना जा सकता है। और जिन दलों और संगठनों की आत्मा‍ में मुस्लिम लीगी सरोकारों ने प्रवेश पा लिया वे हिन्दू संगठनों और हिन्दू शब्द से उसी तरह का विरोध रखने की आदत डाल चुके हैं जैसे लीग, अन्य‍था आज के हिन्दू संगठनों के प्रति अपने असंतोष को प्राचीन इतिहास पर प्रक्षेपित न करते।

यदि इनमें कोई भी सर्वसमावेशी होता तो मोदी के पक्ष में खड़े हो कर दूसरों की इतनी तीखी आलोचना न करनी होती, जिसे सुनने की उन्हें आदत नहीं है। मेरी इस पक्षधरता के मूल में यह तथ्य है कि संकीर्णता और कुछ अन्यू सीमाओं के बावजूद जिनका दूसरों को पता तक नहीं है, मैं यह पाता हूं कि सर्वसमावेशिता का दर्शन न ईसाई समाज में था, न ही इस्लाम में। यह केवल हिन्दू मूल्यों में एक विचित्र अन्त र्विरोध के साथ रहा है । हम तुम्हें अपने में मिलाएंगे नहीं, तुम्हेंं अपने ढंग से रहने देंगे। असमावेशी समुदायों में रहा है कि हम तुम्हें सहन नहीं कर सकते, परन्तुं अपने में मिला सकते हैं।

ईसाई जगत में सोलहवीं शताब्दी तक भिन्ने को सहन करने की क्षमता नहीं रही। या तो उसे मिटा देते थे या धर्मान्तंरित कर लेते थे। यह दूसरा भी बहुत बाद में आरंभ हुआ अन्यथा रंगभेद के कारण पहले वे उन्हें इस योग्य भी नहीं समझते थे। कम से कम इस मानी में इस्‍लाम उनसे बहुत आगे था।

जिन कारणों से उनमें विगत कुछ शताब्दियों में अपने से भिन्न को सहन करने की उदारता आई उसका एक प्रधान कारण भारतीय सभ्यता से उनका परिचय था। व्यवहार में भी हिन्दू संगठनों ने दंगे नहीं भड़काए हैं और इसके कारण कई बार इनका उपहास करते हुए हिन्दू समाज को कायर तक बताया जाता रहा है जिससे बड़ा प्रमाण मेरे कथन का नहीं हो सकता। फिर भी इस समस्या पर निर्णायक रूप में कुछ कहने के लिए जितनी गहरी जानकारी चाहिए वह मेरे पास नहीं है।

गोधराकांड की प्रतिक्रिया में गुजरात का घट जाना हिन्दू संगठनों और मूल्यों से परहेज करने वालों के लिए अन्धे के हाथ में बटेर आने जैसा था। इससे पहले और बाद में भी गुजरात में कई बार अकारण, निरपराध लोगों की हत्या और उपद्रव के कांड होते रहे हैं। हिन्दू चेतना में अपराधी को दंडित करने और निरपराधों को अपराधियों के किए का दंड न देने का विवेक अनेक कटु अनुभवों के बाद भी बना रहा है, जब कि दूसरे समुदाय अंधो की तरह निरपराधों की हत्या और आगजनी पर जुट जाते रहे हैं। यदि कुछ लोगों का यह दावा मानी रखता है कि पुलिस बल का सांप्रदायीकरण हुआ है तो इसके कारण अन्यत्र तलाशे जा सकते हैं। यदि पुलिस बल की तरह अधिकांश हिन्दू जगत सांप्रदायिकता का शिकार हो चुका होता तो वोट बैंक की राजनीति करने वालों के बुरे दिन कबके आ चुके होते।

हिन्दू समाज में वह समावेशिता आज भी है, दूसरों में नहीं है, इसके बाद भी सारे आक्रमण हिन्दू मूल्यों मानों और इसकी सांस्कृतिक उपलब्धियों पर होते रहे। इस बोध ने मेरे चित्त को कई रूपों में पिछले चालीस सालों से मथना और विनाशवादी व्याख्यााओं का खंडन करने को प्रेरित किया, यह बता चुका हूं।

जिन्हें यह भ्रम हो कि मैं मोदी का समर्थन करता हूें उन्हें यह जान लेना चाहिए कि मैं मोदी को अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप पा कर उनकी उस समावेशी सोच को देखने की शक्ति रखता हूं जब कि दूसरे इसे खो चुके हैं।

देका ने कहा था ”मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं।’ इसी सूत्र को ले कर मैं मानता हूं कि जो सोचते नहीें, जो संगठनों और दलों की सोच से बंधे हुए हैं, जो भीड़ की मानसिकता से ग्रस्त हैं, वे असंख्य हो कर भी शून्य’वत होते हैं। वे अपना आपा, अपना बजूद, खो चुके होते हैं और इसलिए उनकी मान्य ताओं में अन्तर नहीं आता और उनकी मान्‍यताओं से लोक प्रभावित नहीं होता। वे आपस में ही सही गलत होते रहते हैं।

पहली बात, जिन सांसदों ने और इसी तर्ज पर बहुत चमकदार प्रतीत होने वाले बुद्धिजीवियों के दल ने हस्ताक्षर अभियान चलाते हुए गुजरात कांड की आड़ ले कर मोदी पर और संघ पर हमला बोल दिया, क्या उनमें से किसी ने गोधरा के कर्ताओं और उसकी नृशंसता की निन्दा की ? नहीं। उल्टे उन्हों ने अपनी अकल्पनीय संवेदनहीनता का परिचय देते हुए उसका बचाव करने की कोशिश की।

क्या उनमें से किसी में यह बोध बना रहा जिसे हमने ‘शूच्यग्रा हि अनर्थका भवन्ति’ के माध्यम से याद दिलाने का प्रयत्न किया था ? नहीं।

याद दिलाने के बाद भी किसी के विचार में परिवर्तन आया ? नहीं।

क्या उनमें से किसी ने उसका तार्किक खंडन किया? नहीं ।

क्या इस कांड से पहले संघ के बारे में उनके मन में कम जुगुप्सा थी? नहीं।

क्या किसी ने अपनी चर्चाओं में इस बात पर ध्यान दिया कि सांप्रदायिक दंगों से बचने का सबसे अधिक श्रेय माकपा के शासन को दिया जा सकता है, परन्तु उसमें भी उसके एक घटक दल के नेता ने किदिरपुर कांड कराया तो इसके नियन्त्रण में तीन दिन लग गए थे और तीन दिन में ही मोदी ने गुजरात के इतने भीषण कांड पर नियंन्त्रण पा लिया और इसके लिए हिंसा या आगजनी में लिप्त किसी व्यक्ति को गोली मारने के विकल्प का प्रयोग तक किया? नहीं।

क्या जांच पड़ताल की सभी प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद, केन्द्र में कांग्रेस शासन के दौरान सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांच दल की पड़ताल के बाद मोदी को दोष मुक्त करार देने के बाद आप में से किसी ने दोष मुक्त माना ? नहीं।
मानते तो 2013 के अपने मूर्खतापूर्ण ज्ञापन में गुजरात को ले कर वही हो हल्ला न मचाते।

अब आगे देखें कि जो लोग अमेरिकी राष्ट्रपति को मोदी को वीजा देने से इन्कार करने की अर्जी दे रहे थे, उसके कारण उनकी घरेलू लोकप्रियता घटी या बढ़ी? घटी, यह तो उन भर्त्सनापूण टिप्पणियों से ही प्रकट है जिनमें एक भी उनके समर्थन में न थी।

मोदी को इसका लाभ मिला या हानि हुई ? लाभ मिला, सीमित ही सही, यह तो वह भी मानेंगे, पर यह नहीं मानेंगे कि उन्हों ने कुछ गलत किया।

उसी ओबामा ने मोदी की ‘ताजपोशी के समारोह में स्वयं शरीक हो कर और बन्धु्त्व के स्तर पर व्यवहार करते हुए उनके मंसूबों पर पानी फेरा, और बाद में मोदी ने मोदी मोदी मोदी कोरस के बीच अमेरिका को एक सिरे से दूसरे सिरे तक मापा, इससे मन में कोई अपराध बोध पैदा हुआ? नहीं । मोदी के सूट पर दूरबीन से नजर रखने वालों को यह तो दिखाई दिया कि उसकी धारियों में मोदी का नाम अंकित था, पर पूरे आयोजन में अपनों को, पड़ोसियों को, और दुनिया को शान्ति प्रयास और पारस्परिक सहयोग से आगे बढ़ने का जो अपूर्व कूटनीतिक कदम उठाया उसकी महत्ता भी दिखाई दी या नहीं? उत्तर नहीं में मिलेगा।

भारत का आम आदमी और भारत से बाहर पूरी दुनिया को जो कुछ दिखाई दे रहा था वह उन्हें दिखाई दे रहा था? नहीं ।

आज तक के कारनामों में मोदी का कोई कारनामा उन्हें ठीक लगा? नहीं।

उनके विचारों में आज तक कोई परिवर्तन आया? नहीं ।

वे जहां थे वहीं खड़े हैं । ऐसे लोगों को जड़मति कहना उचित नहीं लगता, किसी और शब्द की तलाश करनी होगी जिसमें अरविन्द कुमार जी और अजित वडनेरकर हमारी सहायता कर सकते हैं । कारण मैं पहले ही बता आया हूं, जो सोचते नहीं वे होते नहीं। वे जो कुछ थे वही बने रहते हैं।