Post – 2016-10-14

भारतीय राजनीति में मोदी फैक्‍टर – 7 (‍क्षेपक)

मुझे मोदी से अधिक चिन्‍ता भारतीय बुद्धिजीवियों की है जो स्‍वतन्‍त्रता प्राप्ति के बाद से ही वाम के प्रति अधिक आकृष्‍ट रहे हैं और इसके लिए खतरे भी मोल लिए हैं। इनमें से वे जो पहले अपने को कम्‍युनिस्‍ट मानते थे और राेजी रोटी के लिए माफी मांग कर सरकारी नौकरी में आ गए थे, वे भी लाचारी में जो कुछ भी कर बैठे हो, भीतर से वाम से ही जुड़ाव रखते थे और कम्‍युनिस्‍टों के सौ खून माफ करने को तैयार रहते थे। कुछ तो है वाम में जिसके सपने उन विवशताओं के कारण समझौता करने वालों के मन में भी बने ही रहते थे, जिनके कारण दूसरे सुयोग्‍य होते हुए भी बेकारी और तंगहाली में जीते रहे पर हार न मानी। मेरी बेकारी के दिन थे। मेरे मित्र विष्‍णुचन्‍द्र शर्मा को यदि उनके पैतृक स्‍नेह संबंध के कारण कोई नौकरी देने को कहता, तो वह मुझे लेकर पहुंच जाते, मुझे नहीं इसे दे देा। तंगदस्‍त होते हुए भी स्‍वयं इसलिए स्‍वीकार नहीं करते कि पुलिस जांच में यह तो पता चल ही जाएगा कि मैं कम्‍युनिस्‍ट हूं। माफी मांगूंगा नहीं, नौकरी चली जाएगी, या मिलेगी ही नहीं।

वामविरोधी साहित्‍यकारों में भी ऐसे तेजस्‍वी लोग थे, जो बेकारी झेल सकते थे पर सरकारी चाकरी नहीं कबूल कर सकते थे। उन्‍होंने सरकारी नौकरी को राजाश्रय बताते हुए खासी हुड़दंग भी की, पर उनमें से कुछ प्रतिभाशाली होते हुए भी ऊर्ध्‍वमेरु नहीं थे। अनेक स्‍वाभिमानी थे और कम्‍युनिज्‍म के अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर प्रतिबन्‍ध के विरोध्‍ा के कारण सीआइए के जाल में जा फंसे थे। कुछ अपनी प्रतिभा पर अधिक भरोसा करने के कारण ऊंचे मोल और ऊंचे बोल की प्रतीक्षा में थे। इनमें से एक किसी सेठ संचालित संस्‍था में काम करने लगा तो कुछ समय तक राजाश्रय वालों ने सेठाश्रय की बहस छेड़ी। ये दोनों बहसें मुझे वाहियात लगी थीं, पर राजाश्रय का सवाल उठा कर दूसरे साहित्‍यकारों को जलील करने की कोशिश को यह जवाब मिलना चाहिए था। सेठाश्रय की भर्त्‍सना करने वालों में कई ने वही सेठाश्रय अपनाया यह भी एक विडंबना है। एक तथ्‍य अंकित कर दें कि राजाश्रय का विरोध करने वाले और बाद में सेठाश्रय प्राप्‍त करने वाले व्‍यक्ति ने उससे पहले सीआईए से आर्थिक लाभ उठाना चाहा था, इसकी विश्‍वसनीय सूचना मेरे पास है, पर प्रमाण नहीं। जिस ‘अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता’ के वह पक्षधर थे, उसे वह अपने अधीनस्‍थों को देने को तैयार नहीं थे, यह रवीन्‍द्र कालिया पर विश्‍वास करें तो सही हो सकता है। जिस तानाशाही के विरोधी थे, वह अपनी संस्‍था में वैसे ही तानाशाह के रूप में जाने जाते रहे। ये लोग आत्‍मकेन्द्रित थे और अपने को आगे बढ़ाने के लिए समझौते कर सकते थे। जिस व्‍यक्ति की बात मैं कर रहा हूं उसने शंकर गुहा नियोगी के हत्‍यारों द्वारा अपना कलंक धोने के लिए तत्‍समय सर्जित और प्रदत्‍त अ-सम्‍मान मात्र एक लाख रूपये के लोभ में स्‍वीकार कर लिया। विडंबना देखिए, अपनी प्रतिभा के मामले में ज्ञानपीठ पुरस्‍कार पाने वाले बहुतों से बहुत बड़ा था। पैसे के पीछे पागल न होता, अपनी अध्‍यापकीय आय से ही सन्‍तुष्‍ट रहता तो जो कुछ और जितना उसने सिरजा होता उसमें उसके साहित्यिक कद का आरेख क्‍या बनता यह हम नहीं जानते, जो कुछ तब तक रचा था वही कलाकारों और साहित्‍यकारों काे मुग्‍ध करता रहा। आप न जानते हों तो यह जानना उपयोगी होगा कि जिन दिनों अज्ञेय की ज्ञानपीठ से प्रकाशित सभी पुस्‍तकों की रायल्‍टी एक हजार को पार नहीं कर पाती थी, गुनाहों के देवता की रायल्‍टी सत्‍ताइस सौ थी जिसे आज के मूल्‍य में कनवर्ट करें तो सत्‍ताइस लाख मानना होगा।

इसलिए उस सात्विक दौर से अपरिचित आज के दक्षिणपंथी सोच के लोग जब वामी कह कर किन्‍हीं लोगों को उसी तरह गालियां देते हैं जैसे वे इन्‍हें चुनिन्‍दा गालियां देते हैं तो मुझे अन्‍धे अन्‍धा ठेलियां की याद आती है। सचाई यह है कि हम अपने क्षेत्र की मर्यादाओं को भूल जाते हैं। अपने घर का बादशाह दूसरे के घर में चेरा या सेवक बन कर ही जगह पाता है। स्‍वामी बन कर घुसना चाहे तो निकाल दिया जाएगा। घर की अपनी पवित्रता उसकी अपनी आवश्‍यकताओं का पुंजीभूत रूप होती है। कोठे पर मनचलों का स्‍वागत और सम्‍मान है, पर ब्रह्मचारी जी घुस गए और ज्ञान बघारने लगे तो धक्‍का दे कर निकाल ही नहीं दिए जाएंगे, उनके प्रति कोई सहानुभूति भी नहीं दिखाएगा।

एक सदाचारी व्‍यक्ति यदि कोई पद्य रचना कर दे तो उसकी सदाचारिता के कारण क्‍या हम उस पिटी पिटाई तुकबन्‍दी को कविता मान लेंगे? अच्छी कविता मानने का सवाल ताे बाद में आता है। कविता का कविता होना, और कविताओं में उत्‍कृष्‍ट कविता होना, नैतिकता से संबंध नहीं रखता, किसी अन्‍य कार्यक्षेत्र की सेवा से संबंध नहीं रखता। नैतिकता, सौन्‍दर्य और पांडित्‍य चिकित्‍सा के लिए विजातीय मानक है। चिकित्‍सक के लिए उसके रोगी की नैतिकता का नहीं, उसके रोग की प्रकृति का प्रश्‍न ही केन्‍द्रीय होता है। नैतिकता के तकाजे कार्यक्षेत्र के अनुसार बदलते रहते हैं। हमने आरंभ में ही साहित्‍य की स्‍वायत्‍तता को क्‍यों साहित्‍येतर सरोकारों को समर्पित कर दिया, इसका फैसला करने की योग्‍यता यदि मुझमें हो भी तो इस पर जितने गहन अध्‍ययन की आवश्‍यकता है वह सुविधा और समय और तामझाम मेरे पास नहीं है, परन्‍तु कई लोगों द्वारा कई साहित्‍यकारों काे खारिज करने और अपने कार्यक्षेत्र से आगे बढ़ कर किसी दूसरे के घर में काम करने वालों को मैं उन घरेलू सहायिकाओं, या मेड सर्वेंट से अधिक नहीं आंक पाता जो न स्‍वयं उनकी समकक्षता का दावा कर सकती हैं जिनकी सेवा उन्‍हें करना पड़ता है, न ही उनके मालिक उनको वह सम्‍मान और उनके श्रम का उचित प्राप्‍य देना चाहते हैं। साहित्‍यकार जब साहित्यिक स्‍वाभिमान, जिसका एक नाम स्‍वायत्‍तता होता है, त्‍याग कर किसी भी दूसरे क्षेत्र की सेवा करने लगता है, वह धर्म हो या राजनीति या सदाचार, तो वह अपने क्षेत्र की सीमा में रह कर काम करने वालों की तुलना में उनके घरेलू सहायिका या मेड सर्वेंट की हैसियत में आ जाता है। यही वह बिन्‍दु है जहां मुझे अपने साहित्‍य की राजनीति करने वालों से भी शिकायत हुई और राजनीतिज्ञों की मांग पर साहित्‍य रचने वालों से भी शिकायत हुई और मैंने उस वाक्‍य को दुहराया जिसकी महिमा यह है कि मुझे यह तक याद नहीं कि यह किसकी पंक्ति है : यह पथ यहां से अलग होता है।

मेरी जैसी विवशता में ही कवि ने यह पंक्ति लिखी होगी । उसे नमन।

विचार को साहित्‍य से अलग नहीं किया जा सकता। सच तो यह है कि जिसे हम अपना सर्वोत्‍तम साहित्‍य मानते हैं, जिसमें रामायण, महाभारत की गणना होती है उनकी लोकप्रियता और महिमा का प्रधान रहस्‍य यह है कि वे ज्ञानसागर भी हैं। सचाई यह नहीं है कि मार्क्‍सवाद आज तक के किसी दर्शन से साहित्यिक उपयोग के लिए घटिया दर्शन है, अपितु यह कि यह कतिपय विडंबनाओं का शिकार रहा है। जिस कम्‍युनिज्‍म का लक्ष्‍य लेकर यह चला था उसकी संभावना मार्क्‍सवाद और गांधीवाद के सम्‍यक संतुलन से ही संभव है। बडे पैमाने पर उत्‍पादन करने वालेे कारखाने और उपक्रम जो बहुतों को बेरोजगार बनाते हैं, कम्‍युनिज्‍म की प्रकृति से मेल नहीं खाते। पर मेरी जानकारी इस विषय में इतनी कम है कि मेरा इस विषय में ज्ञान बघारना हास्‍यरस की भी सृष्टि कर सकता है।

मुझे जिस बात का खेद है वह यह कि भारत में अपने प्रवेश के बहुत जल्‍द बाद ही कम्‍युनिज्‍म के अाटोप का इस्‍तेमाल करके इसे उस चिन्‍ता केे लिए इस्‍तेमाल किया जाने लगा जो मुस्लिम समाज में अपनी सांस्‍कृतिक श्रेष्‍ठता बोध और अल्‍पसंख्‍यता के मेल से पैदा हुई थी और जिसे साम्यवादी मुखौटा सबसे अधिक सुरक्षित और भव्‍य लगा था। केवल हिन्‍दू कम्युनिस्‍टों को ही नहीं, मार्क्‍सवादी मुसलमानों को भी उसकी असलियत और ब्रांडनेम के बीच का यह अन्‍तर समझ में नहीं आया और इसलिए उन्‍होंने इसे मुस्लिम लीग के कार्यक्रम का हिस्‍सा न मान कर सेक्‍युलरिज्‍म का हिस्‍सा मान लिया और इसपर मुग्‍ध रहे। कम्‍युनिज्‍म किसी भी देश में शहीदों का सपना रहा है और अपना बहुत कुछ उत्‍सर्ग करके भी यहां तक कि प्राण का संकट मोल ले कर भी दुनिया से अन्‍याय और विषमता की समाप्ति रोमानी तरुणों को आकर्षित करती रही है। रोमानी और यथार्थवादी का अन्‍तर अपनी समझ से समझा दूं तो जो आदर्शों से अभिभूत हो कर इस बात का ध्‍यान किए बिना जोखिम उठा लेते हैं कि इसे इन सीमाओं में हासिल किया जा सकता है या नहीं, वे रोमानी होते हैं, परन्‍तु जो उन्‍हीं परिस्थितियों में यह आकलन भी करते हैं कि यह संभव है या नहीे, और अधिक विचार की मांग करते हैं, रोमानी उनसे भी नफरत करने लगते हैं, परन्‍तु जब तक उस परिपक्‍वता का बोध हो, वे शिकार बन चुके होते है या यदि यह शब्‍द बुरा लगे तो वे शिकारी बन चुके होते हैं जिनका लक्ष्‍य व्‍यवस्‍था को निर्मूल करके अराजकता पैदा करना होता हैा

नक्‍सल आदि संगठनों में अपराधी मनोवृत्ति के तरुण नहीं खिचते चले गए थे, अपितु हमारे समाज की सबसे कीमती विभूतियां अपनी जिन्‍दगी जोखिम में डाल कर इससे जुड़ती रही हैं। एेसे सभी लोगों को व्‍यक्ति के रूप में किसी से घटकर नहीं माना जा सकता। परन्‍तु इसके बाद भी उन सबका इस्‍तेमाल कर लिया गया और वे न तब इस विषय में सचेत हुए न आज ही सचेत हैं कि वे गलत रास्‍ते पर हैं। मैं स्‍वयं भी इस विषय में सचेत न था, यद्धपि मैं कभी कम्‍युनिस्‍ट नहीं बना न किसी पार्टी गतिविधि में शामिल हुआ पर विचारों में मैं सदा मार्क्‍सवाद को सबसे उपयुक्‍त दर्शन और समतामूलक समाज के स्‍वप्‍न को अवश्‍यंभावी लक्ष्‍य मानता रहा हूं और वह सपना आज भी क्षीण नहीं हुआ है।

मेरे लेखन पर सहमति प्रकट करने वाले या प्रशंसा करने वालों में अधिकांश यथास्थिविवादी हैंं और उनका वश चले तो वैदिक समाज को आदर्श मान कर आगे की अपेक्षा पीछे की ओर चल पड़ें जिस पर अपार श्रम तो बर्वाद हो सकता है पर कुछ पाया नहीं जा सकता। यह मुस्लिम समाज के हिजरत काल में वापसी की ललक से भी बुरा है।

भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन के पूरे चरित्र का अध्‍ययन करने या उधर ध्‍यान देने की मुझे आवश्‍यकता ही न होती यदि एकाएक यह आभास नहीं होता कि यह तो भारतीय सम्‍यता और संस्‍कृति को ही नष्‍ट करने के अभियान का दूसरा चरण है, पहला मन्दिरों, कलाकृतियों, वास्‍तुकृतियों, पुस्‍तकालयों, विश्‍वविद्यालयों और शोधकेन्‍द्रों का विनाश करने से जुड़ा था जिसकी याद आने पर मन अवसाद से भर जाता है। न जाने कितनी अकूत ज्ञानसंपदा का विनाश हो गया । वे विद्वान जो स्‍वयं चलते फिरते कामचलाऊ ग्रन्‍थागार बन जाते थे, उनके संहार ने उन कृतियों को भी बचाने से रोक दिया जिनका उनके माध्‍यम से संकलन, संपादन किया जा सकता था। परन्‍तु जिन का मन उन कांडों की याद से खिन्‍न हो जाता था उनमें भी कुछ विद्वान पैसे के लोभ में भारतीय सांस्‍कृतिक मूल्‍यों को नष्‍ट कर रहे थे।

यथास्थितिवाद और प्रगतिशीलता की परिभाषाएं परिस्थितियों के अनुसार बदल जाती हैं। जहां संहार किया जा रहा हो वहां जो हमारे पास है उसे बचाना या यथास्थिति की रक्षा करना भी प्र‍गतिशील कदम हो जाता है, और प्रगतिशीलता विनाश का पर्याय बन जाती है। दो बुराइयों के बीच अल्‍पतम का चुनाव करना होता है। मैंने बचाने और समझने और उसके विश्‍लेषण के बाद जो त्‍याज्‍य है उसे त्‍यागने का रास्‍ता अपनाया, दूसरों ने अपना विनाशकार्य करते हुए तालियां बजाने और झूमर नाच नाचने का वरण किया।

मुझे खिन्‍नता इस बात से होती है कि मैंने फेसबुक के माध्‍यम से अपनी बात ही इसलिए आरंभ की थी कि मुझे तत्‍समय व्‍यवस्‍‍था पर प्रहार करने वालों की लोक‍तांत्रिक समझ पर सन्‍देह हुआ था। मैं चाहता था कि फतवे देने, गालियां देने, कोसने के परिणाम जो मिले हैं, उन्‍हें हम देख चुके थे। मैंने वह पक्ष लिया था जिसकी लगातार भर्त्‍सना होती आई थी और यह सुझाया था कि मेरे प्रस्‍तावों का खंडन करते हुए मेरे मित्रगण तर्क और प्रमाण के साथ मुझे गलत सिद्ध करेंगे।अब तक उन्‍होने मुझे निराश किया। आज शाम इस उदासीनता पर सोच रहा था तो कुछ पंक्तियां उभर आईे। क्‍या हम सचमुच इतने नि:सत्‍व हो चुके हैं तार्किक बहस न चला सकें:
सवाल दर सवाल हैं, जवाब है ही नहीं ।
सवालियों के पास कोई ख्‍वाब है ही नहीं।
न ऐसी आग कि तासीर गर्म हो जिसकी
धुंआ तो है मगर रौशन दिमाग है ही नहीं ।