Post – 2016-10-11

भारतीय रातनीति में मोदी फैक्‍टर – 5

मोदी के संघ से संबंध किसी से छिपे नहीं हैं। परन्‍तु उसमें रहते हुए, आपात काल के दौरान, भूमिगत होकर, आपात काल के विरोध में पत्र निकालने, उसे मुद्रित करा कर दिल्‍ली भेजने और वितरित कराने के अभियान में जो सक्रियता दिखाई वहां से आरंभ होता है नरेन्‍द्र मोदी की असाधारण कार्यक्षमता, रणनीतिक दक्षता और दूरदर्शिता इतिहास।

जो भी हो अपने विशिष्‍ट गुणाें का प्रदर्शन के लिए मोदी के भाग्‍य से अापात काल एक सुयोग बन कर आया। इसके बाद वह अलग से पहचाने जाने लगे। आगे का रास्‍ता उन्‍होंने संगठन के भीतर अन्‍य प्रतिस्‍पर्धियों से विनम्रता और कार्यतत्‍परता के बल पर संघर्ष करते हुए बनाया। उन्‍हें अडवानी और मुरली मनोहर जोशी की यात्राओं का सफल प्रबन्‍धन भी किया। अपनी नितान्‍त साधारण हैसियत, बड़नगर के अपने पिता की चाय की दूकान के बाद भाई के साथ बस अड्डे पर चाय की दकान पर काम करते हुए, भूमिगत हो कर एक अभियान का संचालन और उसके कई स्‍तरों की देखरेख ओर इन यात्राओं के संयोजन के अवसरों ने लोक चित्‍त को समझने का जितना विविधतापूर्ण अवसर मोदी को दिया वह विरल नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को मिलता है और इसीलिए वह जनता की नब्‍ज को जिस तरह समझते हैं, वैसा आज से पहले किसी भारतीय नेता से संभव नहीं हुआ। मोदी की जादूगरी का पूर्वरूप लालबहादुर शास्‍त्री में अवश्‍य मिलता है।

यह एक विचित्र संयोग है कि लालूप्रसाद यादव, नीतीश कुमार और मोदी आपातकाल की उपज हैं। मोदी उस नवनिर्माण आन्‍दोलन के संचालकाेेंं में सबसे तरुण थे जिसने जयप्रकाश नारायण को पूर्ण स्‍वराज्‍य के आन्‍दोलन की प्रेरणा दी थी। बिहार के नेता जयप्रकाश जी के उनकेे आन्‍दोलन से जुड़ कर प्रकाश में आए थे। उस समय इनकी किसी विलक्षण प्रतिभा का सूझ का परिचय नहीं मिला था। यह इनके कद के अन्‍तर को समझने में कुछ सहायक हो सकता है। मुलायम सिंह, पासवान, लालू और नीतीश को मंडल कमीशन की मदद और मायावती को दलित आरक्षण का लाभ मिला जिसे सभी ने अपनी जाति तक पहुंचा दिया, जब कि पिछड़े समुदाय में आते हुए भी मोदी ने उसका कभी लाभ नहीं उठाया और अपनी योग्‍यता के बल पर पटेल बहुल समाज और पटेल नेतृत्‍व के दबदबे के बीच बिना प्रतिरोधी स्‍वर बने, मोदी ने अपने वरिष्‍ठों को सादर किनारे छोडते हुए मुख्‍यमन्‍त्री पद तक पहुंचने की पहली मंजिल तय की।

वह केन्‍द्र में भी कभी पहुंच सकते हैं, यह सपना तो तब देखा ही न होगा जिसके लिए जनता की ओर से पुकार आने लगी और इसे भी अपने बड़ों का आशीर्वाद दीजिए और मुझे काम करने दीजिए और आपके निर्णायक पदों पर रहते मूझे निर्णय लेने में बाधा न हो इसलिए ऐसी नौबत न आने दीजिए का संकेत देते हुए अपने वरिष्‍ठों की लालसा के विरुद्ध अपने फैसले को मानने की स्थितियां अपनी कूटनीतिक चतुराई से पैदा कर लीे जिसमें यह तय करना तक उनके हाथ में आ गया कि वे वरिष्‍ठ चुनाव लड़ेंगे कहां से। यह कौशल साधारण नहीं है और आज वे नेता भी जो तब खिन्‍न अनुभव कर रहे थे ये मानते हैं कि मोदी ने बहुत सही काम किया।

मुकाम आना था देखो मुकाम आया भी।
जब खुदाओं को भी सजदे में सर झुकाना पड़ा।

हम कह आए हैं कि गुजरात का मुख्‍यमन्‍त्री बनने के बाद अपने नवसिखुआपन में मोदी ने एक ही चूक की । वह थी अयोध्‍या में कारसेवकों को मस्जिद गिराए जाने के दस साल पूरे होने पर नारेबाजी के लिए भेजना। बाद में जो कुछ घटा उसका ही परिणाम और प्रतिक्रिया है। कारसेवकों को भेजने की जिम्‍मेदारी मोदी की थी और उनके साथ गोधरा में जो हुआ उसकी ग्‍लानि और क्षोम में गुजरात कांड में मोदी की ओर से भी शिथिलता बरती गई होगी, परन्‍तु स्थिति संभाल से बाहर होते देख कर्फ्यू लगाने और उपद्रवकारियों को देखते ही गोली मारने के भी आदेश दिए थे और केन्‍द्र से सेना की सहायता लेकर शान्ति स्‍थापित करने का जो प्रयत्‍न किया था उसमें बहुत से हिन्‍दू भी मारे गए थे। इसके बाद भी उनके ऊपर सन्‍देह का बादल घुमडते रहे। यद्यपि उन्‍होंने कई भड़कावों के बाद भी असाधारण संयम का परिचय दिया था और उनके शासन के अगले ग्‍यारह सालों में गुजरात में किसी तरह का तनाव तक नहीं पैदा हुआ।

मैं यह जानना चाहता हूं कि आखिर जब कांग्रेस शासन के दौर में सुप्रीम कोर्ट के निदेश पर स्‍थापित विशेष जांच दल ने भी यह पाया कि मोदी कसूरवार नहीं है तो, और कोर्ट ने इसे मान कर अपना फैसला भी दे दिया तो भी इस सन्‍देह को जारी क्‍यों रखा गया।

मुझे दो चीजें एक साथ नजर आती है जब कि दोनों के परिप्रेक्ष्‍य अलग हैं। पहला है जो तर्क, प्रमाण और कम्‍युनिस्‍टों के अपने बयान पर आधारित है कि उसने मुस्लिम लीग के कार्यक्रम को अपने कार्यक्रम का हिसा बना लिया। जिस बात को उन्‍होंने नहीं कबूल किया है वह यह कि उसके बाद मुस्लिम लीग का लक्ष्‍य उसका प्रधान लक्ष्‍य हो गया और कम्‍युनिज्‍म का नारा और परचम उसका ओट बन गया। हम यह भी देख आए हैंं कि जिन लीगियों ने पाकिस्‍तान बनाया था वे स्‍वयं भी पाकिस्‍तान जाने की समस्‍याओं से परिचित नहीं थे और बंटवारे के बाद उनमें से अधिकांश भारत में ही रह गए और कुछ दिनों की झेंप के बाद खादी पोशाक अपना कर, गांधी टोपी लगा कर, रातोंरात कांग्रेस में शामिल हो गए। उनके सरोकार कांग्रेस के सरोकार बनते चले गए, जिसे मुस्लिम वोटबैक की जरूरत थी।
भारत विभाजन के बाद मुसलमानों के लिए अलग बनाए गए देश पाकिस्‍तान पर मुसलमानों का राज्‍य था, पर उस बंटवारे से जो भाग हिन्‍दुओं के हिस्‍से में आया था वह भी मुस्लिम लीग की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समर्पित रहा जिसमें मुसलमानों की कट्टरता की चिन्‍ता तो थी पर विकास की चिन्‍ता न थी। इसी का परिणाम था, मुस्लिमेतर धर्मों और विश्‍वासों के प्रति जुगुप्‍सा पैदा करने का अभियान जिसमें घृृणा प्रसार की क्षमता को बौद्धिकता का प्रमाण माना जाने लगा। यह घृणा सबसे अधिक हिन्‍दुओं के प्रति थी, परन्‍तु इसे ऐसा मुखौटा दिया जाता रहा कि इसके चरित्र को समझना इस अभियान में सक्रिय लोगों को भी धोखा दे सकता था। इसकी सचाई प्राचीन भारतीय इतिहास को कलुषित करने और मध्‍यकाल को मध्‍यकालीन उत्‍पीड़नों को भी संगीतमय बनाने के रूप में सामने आई।

घृणा प्रेम और दहशत मनुष्‍य के सबसे प्रबल आवेग हैं। ये हमारे विवेक पर इस कदर हावी हो जाते हैं कि दिमाग काम करना बन्‍द कर देता है या उसकी भूमिका घृणा को प्रखर बनाने के तरीके आविष्‍कृत करने तक सीमित रह जाता है। यह बौद्धिक सिस्‍ट फार्मेशन जैसा अभेद्य बन जाता है जिस पर
तर्क और प्रमाण इतना कम असर कर पाते हैं, कि विश्‍वास नहीं हो पाता कि स्थिति में कोई सुधार आ सकता है, फिर भी उपचार तो इन्‍ही के माध्‍यम से हो सकता है।

पहले मैं यह बता दूं कि यह दहशत या घृणा पैदा कैसे होती है। एक छोटा सा बच्‍चा है जो हम न देखें तो वह किसी तिलचट्टे को पकड़ने की भी कोशिश कर सकता है। अर्थात् उसे उस तिलचट्टे के अच्‍छे या बुरे के बारे में उसे कुछ पता नहीं, परन्‍तु आप किसी तिलचट्टे को देख कर उसकी ओर उंगली से संकेत करते हुए एकाएक चौंक कर चीखते हैं, ‘अरे तिलचट्टा।’ बच्‍चा आप की चौंक से जुड़े भय और उस कीड़े की शक्‍ल – व‍ह तिलचट्टा हो छिपकली- काेे अपनी चेतना में उतार लेता है। वह बड़ा हो जाने पर भी इससे मुक्‍त नहीं हो पाता। तिलचट्टा या छिपकली देख कर इनसे दहशत या अन्‍धभीति से ग्रस्‍त महिलाएं न केवल इनसे घ़णा करने लगती हैं अपितु इतना आतंकित हो जाती हैं कि इन्‍हें दूर भगाने तक का सासह नहीं जुटा पातीं। कोई दूसरा उसे भगा दे या मार दे तब उनको सुकून मिलता है।

कहें घृणा का तार्किक आधार नहीं होता, इसलिए यह समझानेे पर भी कि ये इतने खतरनाक या गन्‍दे या डरावने नहीं हैं, दहशत या घृणा दूर नहीं हो पाती। अब यदि आप तिलचट्टे को मारने की जगह उठा कर अपनी हथेली पर रख कर दिखाएं कि देखो, इसमें डरने लायक कुछ नहीं है, तो दहशत तुरत तो समाप्‍त नहीं होगी, पर पहले से कुछ कम होगी और अब तर्क के लिए भी रास्‍ता बनेगा। सोच विचार भी संभव हो पाएगा।

मुस्लिम लीग ने हिन्‍दुओं को कुचलने, दबाने, अपमानित और लांछित करने का काम हिन्‍दू समाज को शत्रु मान कर किया, और इसका मूर्तन उस संगठन में हो गया जो हिन्‍दुओं की सुरक्षा के लिए स्‍थापित हुआ था। ठीक वही काम ईसाई मिशनरियों नेे हिन्‍दुओं को धर्मान्‍तरित करने में बाधक पा कर इस संगठन के विषय घृणा प्रचार में किया। नाम से भारतीय या राष्‍ट्रीय होने के बाद भी हिन्‍दू समुदाय तक ही अपने सरोकार को सीमित रखने के अतिरिक्‍त संघ ने अपने पूरे इतिहास में कभी दंगे भड़काने का काम किया हो तो इसका खुलासा उन कमीशनों की रपटों के माध्‍यम से नहीं किया गया जिन्‍हें कांग्रेस के शासन में ही भड़के दंगों के कारणों की जांच के लिए स्‍थापित किया जाता रहा था। रपटों को दबा दिया गया जो उल्‍टा सन्‍देह पैदा करता है। अर्थात् छोटे या बड़े पैमाने पर दंगे भड्काने का काम दूसरे करते रहे, उनसे हिन्‍दू प्रभावित हों या मुसलमान। परन्‍तु फिर भी बिना कारण बताए, सारी घृणा संघ की ओर मोड़ दी जाती रही।

जहां मुस्लिम सक्रियता के प्रमाण मिलते थे वहां भी कम्‍युनिस्‍ट नेता और बुद्धिजीवी उसका समर्थन करते थे, अल्‍पसंख्‍यक सांप्रदायिकता सांप्रदायिकता नहीं होती, अल्‍पसंख्‍यक उपद्रव किसी न किसी बहुसंख्‍यक उकसावे का परिणाम होता है। संघ शासित किसी प्रदेश में ऐसा कोई दंगा नहीं हुआ था जो कांग्रेस शासन में होता रहता था। मोदी के शासन पहली बार गुजरात कांड हुआ और इसके कारणों की पड़ताल किए बिना ही उस घृणा को एक तार्किक आधार देने का अवसर मिल गया जिसे लेकर जाने कितने आयोजन किए गए, कितनी कविताएं और कहानियां लिखी गई और पत्रों पत्रिकाओं में लगातार ऐसी टिप्‍पणियां की गई जिससे यह ध्‍वनि निकले कि यह सब मोदी की सक्रिय भागीदारी से संभव हुआ। मुस्लिम पक्षधरता का हाल यह कि गोधरा कांड के विषय में भी यह समझाने का प्रयत्‍न किया गया कि इसे किसी ने भड़काया नहीं था, अपितु यात्रियों में से किसी ने स्‍टोव जला कर कुछ पकाने की कोशिश की और उसी से आग लगी और फैलती चली गई और इसकी पराकाष्‍ठा यह कि यह कहने में भी संकाेेच न किया गया कि यह कांड गुजरात कांड कराने के लिए स्‍वयं मोदी ने कराया था। जहां दोषारोपण के प्रयास इतने जोरदार हों वहां कोई भी संस्‍था या व्‍यक्ति सन्‍देह की उस छाया से मोदी को मुक्‍त नहीं कर सकता जो आज भी मुसलमानों के मन में बना रह गया है। इसमें सबसे प्रधान भूमिका मुस्लिम बुद्धिजीवियों की हो सकती थी, परन्‍तु मुस्लिम बुद्धिजीवी भी इस मिथ्‍याप्रचार के इतने शिकार हैं कि वे मोदी को हटाने के प्रयास में छोटे से छोटे बहाने से असुरक्षित अनुभव करने लगते है और इस तरह असुरक्षा के विस्‍तार में स्‍वयं सहयोगी की भूमिका प्रस्‍तुत करते हैं।

जरूरत ईमानदारी से वस्‍तुस्थिति का विश्‍लेषण करने की है जिससे आपको खींचतान करने की जरूरत न पड़े। होता यह है कि अपनी कलाक्षमता या बौद्धिकता पर अधिक विश्‍वास करने के कारण व्‍यक्ति पहले से बनी धारणा को सही सिद्ध करने की ताक में रहता है और घालमेल करता है कि अधिक से अधिक लोगों के मन में दहशत पैदा की जा सके। इसका सबसे ताजा उदाहरण वह था जिसमें एक मुस्लिम कलाकार को जो पहले से रामलीला में भूमिका प्रस्‍तुत करता आया था शिवसेना के किसी स्‍थानीय ‘नेता’ ने मारीचि की भमिका करने से रोक दिया।

शिवसेना हिन्‍दू संगठन नहीं है, मराठा मानुस का हुड़दंगी संगठन है। इसने अपने उदय के साथ मराठियों की बेरोजगारी दूर करने के नाम पर दक्षिण भारत के मजदूरों और कर्मचारियों को भगाया था, बाद में बिहारियों को, और उसके बाद असमियों को। वह भड़काने वाली कोई कार्रवाई करके अपनी पहचान बनाने का आदी है। उसकी भाजपा से तनातनी भी है और मोदी की सफलता उसे सुहाती नहीं। उसने मोदी से अच्‍छा सुषमा स्‍वराज्‍य को बताया था और इधर इस प्रयत्‍न में है कि मोदी को सफलता न मिले। ऐसी स्थिति में यदि उसका कोई नेता ऐसे अवरोध डालता है और बाद में जनमत उसे अपना विचार बदलने को बाध्‍य कर देता है, कलाकार केे मन से भी मलाल इतना तो दूर हो ही जाता है कि वह अगले साल से उसमें भाग लेने को सहमत हो जाता है तो फिर इस घटना को भाजपा के सिर मढ़ने की कारीगरी करते हुए अपने को असुरक्षित अनुभव करने की बात किसी बडे लेखक के द्वारा की जाए तो अटपटी तो लगेगी ही, गैरजिम्‍मेदाराना भी लगेगी। परन्‍तु समस्‍या वही है, लोग मोदी के कार्यों की सफलता के अनुपात में इस बोध से कातर हो कर कि अब तो दूसरे प्रतिस्‍पर्धी नेता भी अस्‍त होते सितारों जैसे होते जा रहे है, इस घृृणा को अधिक प्रखर बनाने के प्रयत्‍न किए जा रहे हैं और इनमें सभी मर्यादाओं का उल्‍लंघन किया जा रहा है। इससे देश का नुकसान तो होता ही है, उन योजनाओं को गति देने में भी अवरोध पैदा होता है जिनकी सफलता हमारी वर्तमान अधो‍गति से उबरने के लिए जरूरी है।