भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर – 3
खुद नहीं जानता लिखा क्या है ।
जिस बात को किसी ने लक्ष्य नहीं किया, या किया तो कहीं उस पर चर्चा मेेरे देखने में नहीं आई वह था लोकतन्त्र पर से जनता का विश्वास उठ जाना। पहली बाद दलों के नाम पर नहीं व्यक्ति के नाम पर चुनाव लड़ा जा रहा था और अपने को सेक्युलर कहने वाले सभी दल खड़े तो एक साथ थे परन्तु यदि जोड़ तोड़ से बहुमत की गुंजायश हो तो बाद में चल कर उन्हें प्रधानमंत्री का चुनाव करना था। भाजपा के घटक दल ही नहीं, स्वयं भाजपा फोकस से अलग हट गई थी। संघ तक हाशिये पर लग रहा था, यद्यपि मोहन भागवत ने खुल कर मोदी के नाम का समर्थन किया था। कौन कहां से खड़ा होगा, टिकट किसे दिया जायेगा, यह सारा फैसला अकेल मोदी जी कर रहे थे और यह सोचकर कर रहे थे कि जनता ने उनको देश का नेतृत्व सौंपने का संकल्प लिया और सारी जिम्मेदारी उन्हीं पर होगी। आपात काल के बाद से लोकतन्त्र के साथ जिस तरह का खेल आरंभ हुआ था, यद्यपि आरंभ कांग्रेस की ओर से हुआ था, परन्तु गिरावट बढ़ती गई थी। मनमोहन सिंह की विवशता ने किसी तानाशाह या मजबूत इरादे के व्यक्ति की खोज का रूप ले लिया था।
मोदी की जीत उनकी जीत नहीं थी। भ्रष्टता और मनमानेपन से पैदा हुई रिक्तता को भरने वाले और कठोर फैसले लेने वाले व्यक्ति का चयन था। दूसरे सभी दलों का गठजोड़ भी उन्हीं विकृतियों का शिकार था फिर भी कुछ समीकरण तो तब भी बने रह गए थे। इसमें एक और तत्व जुड़ा रहा हो सकता है। 2002 में हुए गुजरात कांड के बाद यह एक मोटी धारणा देश के सामान्यबोध का हिस्सा बन गया था कि इसमें मोदी की मौन सहमति थी। गोधरा कांड के बाद यह आस्वाभाविक भी नहीं लगता। आखिर जिनका यातनावध किया गया था वे मोदी के उत्साह के कारण उनकी पहल से भेजे गए युवक थे । इसकी ग्लानि और क्षोभ आरंभिक उदासीनता – जो होता है हो जाने दो – के मूल में रही हो सकती है।
2014 से ठीक पहले तीन गलतियां मनमोहन सिंह ने संभवत: आला कमान के निर्देश पर और एक गलती राहुल गांधी ने की थी जो इस समझ का परिणाम था कि हिन्दू तो स्वभाव से सेक्युलर है, उसकी कितनी भी उपेक्षा हो राजनीतिक दलों से अपने जुड़ाव के अनुसार काम करेगा। यदि मुसलमानों का अधिकतम वोट हासिल किया जा सके तो अगला चुनाव भी जीता जा सकता है। ये गलतियां थीं, यह दावा कि भारत पर पहला हक मुसलमानों का है । पहले इस तरह के बयान दिए जाते थे तो मुसलमान की जगह अल्पसंख्यक का प्रयोग किया जाता था जो अर्थत: वही होते हुए भी इतना चौंकाने वाला नहीं लगता था। दूसरा था केवल गरीब मुसलमानों के लिए पन्द्रह लाख तक का लोन जिसे इस तरह प्रचारित किया जाता था कि तुमने अपना हक लिया कि नहीं, मानों यह कभी न लौटाया जाने वाला कर्ज हो। तीसरा था अल्पसंख्यकों के लिए अलग से आइआइटी खोलने का इरादा । राहुल गांधी ने अपनी ओर संयुक्त राज्य अमेरिका में जाकर एक मंच से कहा था कि हिन्दू आई एस से अधिक उपद्रवी हैं। इसमें सोनिया जी का अपना योगदान था मोदी को ‘मौत का सौदागर घोषित करना।
संघ से और इसलिए भाजपा से बृतत्तर हिन्दू समाज परहेज सा करता था। यह परहेज गांधी जी की हत्या के बाद पैदा हुआ। संघ भले अभियोग से मुक्त हो गया हो, परन्तु हिन्दू समाज के मन में मैल बनी रह गई थी। यह पहली बार इन्दिरा जी के आपात काल से बदलना आरंभ हुआ जिसमें नागरिक अधिकारों की बहाली के लिए संघ ने, विशेषत: गुजरात में बहुत संगठित और सूझबूझ से, भूमिगत पत्र निकालते हुए अभूतपूर्व अभियान चलाया था। यह आरंभ तो कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री की भ्रष्टता और उनके द्वारा इंजीनियरी कालेजों की फीस और मेस चार्ज में डेढ़गुना की वृद्धि से था परन्तु जल्द ही मध्यवर्ग का आन्दोलन बन गया जिसमें पुराने कांग्रेसियों और भारतीय जनसंघ ने बढ़ कर हिस्सा लिया। आगे यह आपात काल के विरोध में बदल गया। ऐसा अभियान आपात काल का विरोध करने वाले किसी दूसरे दल ने नहीं किया था और जयप्रकाश जी ने इससे प्रेरित हो कर ही अपने दम पर बिहार में ऐसा ही अभियान चलाया था। गुजरात के आन्दोलन के पीछे नरेन्द्र मोदी की जो उन दिनों चौबीस पचीस साल के रहे होंगे, असाधारण कर्मठता थी। वह उसी आन्दोलन के साथ लोगों की नजर में उभरे थे और फिर अपने विनय, अनुशासन और कर्मठता से वरिष्ठतम नेताओं के स्नेह और संरक्षण के पात्र बने थे। जयप्रकाश जी के आन्दोलन की उपज लालू प्रसाद यादव और नीतीश्ा कुमार थे। संघ की दूसरे ऐसे दलों में स्वीकार्यता बढ़ी या कुछ समय के लिए उदासीनता कम हुई थी जो आपात काल का विरोध कर रहे थे। इसका ही परिणाम था भारतीय जनसंघ का संयुक्त सरकार में सहयोगी बनना और अटल बिहारी वाजपेयी का विदेशमंत्री बनाया जाना। विदेशमंत्री के रूप में अटल जी ने जिस उदारता और दक्षता से काम किया वह एक उदाहरण था और इसके बाद संघ से परहेज करने वालों की उदासीनता में कमी आना।
जैसा हम देख आए हैं, संघ से और इसलिए भाजपा से बृतत्तर हिन्दू समाज परहेज सा करता था। यह परहेज गांधी जी की हत्या के बाद पैदा हुआ। संघ भले अभियोग से मुक्ते हो गया हो, परन्तु हिन्दू समाज के मन में मैल बनी रह गई थी। हिन्दू समाज का यह भाषातीत, तर्कातीत, सहज बोध प्राय: अचूक होता है। संघ स्वतन्त्र भारत में अपना औचित्य और प्रासंगिकता खो चुका था ठीक वैसे ही जैसे कांग्रेस जिसका गठन अधिक स्वतन्त्रताएं पाने के लिए और फिर पूर्ण स्वतन्त्रता के लिए समर्पित था, उसका स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद औचित्य और प्रासंगिकता समाप्त हो गई थी। वाम घोषित रूप में मुस्लिम लीग के उददेश्यों को अपने कार्यक्रम का प्रधान मुद्दा बना कर अपना औचित्य और प्रासंगिकता खो चुका था। जैसा कि बेनीपुरी जी ने लक्ष्य किया था और खेद के साथ दर्ज किया था, जो कल तक मुस्लिम लीग के नेता थे, वे सभी पाकिस्तान न जा सकते थे, न गए। वे रातोंरात खादी और गांधी टोपी अपना कर कांग्रेसी बन गए और कांग्रेस की आत्मा में भी इस तरह मुस्लिम लीग और उसके सरोकारों का छद्म दबाव बढ़ता गया।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि जमीन से जुड़ा आदमी जो अपनी आंख से काम लेता है, अपनी पहुंच से दूर और ऊंचे स्तर पर होने वाले इन परिवर्तनों को लक्ष्य न कर सका इसलिए उसकी उदासीनता केवल संघ के प्रति बनी रहीं, जब कि इनके कारण ही संघ की प्रासंगिकता पुन: पैदा हो गई थी। देश के बंटवारे के बाद हिन्दुओं के हिस्से में आए भारत पर हिन्दुओं का अधिकार नहीं था। इसके बावजूद कसीदे उल्टे पढ़े जा रहे थे जिनका सही अर्थ लगाएं तो आप अपना सर पीटते पीटते लहू लुहान हो जाएंगे:
हमीं से रंगे गुलिस्तां, हमींं से रंगे बहार ।
हमें ही नज्मे गुलिस्तां पर अख्तियार नहीं ।
इसलिए यदि कानून बनना है तो हिन्दू तक सीमित रहेगा – हिन्दू कोड बिल जिसमें केवल हिन्दू को बहुविवाह की कुरीति से बचाया जाएगा, दूसरों को नहीं। उनकी महिलाओं को भारतीय कांग्रेस वह सम्मान और सुरक्षा देने को तैयार नहीं कि वे हैं तो पर उसके अधिकारसीमा से बाहर है। राजेन्द्र प्रसाद ने दो बार इसी भेदभाव पर बिल को लौटाया था और तीसरी बार तो लौटाने का अधिकार रह ही न जाता था।
जो लोग मनमाेहन सिंह को साहस की कमी के लिए दोष देते हैं, वे यह नहीं जानते कि ऊपर से शूरमा भोपाली दीखने वाले नेहरू जी सचमुच शूरमा भोपाली ही थे। निर्णायक क्षणों पर उन्होंने मनमोहन सिंह से अधिक कायरता दिखाई और देश का जितना अधिक नुकसान उनके कारण हुआ वह तो मनमोहन सिंह कर ही नहीं सकते थे, बिना हाइकमांड की सहमति के। नेहरू स्वयं हाई कमान थे। पर अपने हर कारनामे से गालिब की उस पंक्ति की याद दिलाते रहे, जिसे कुछ बदल कर रखना होगा – रौ में है नेहरूतन्त्र कहां देखिए थमे, ने बाग हाथ में है न पा है रकाब में।
शास्त्री जी ने लोकतन्त्र को पहली बार सही आधार दिया। इन्दिरा जी ने अपने पिता से अधिक दृढ़ता, दक्षता और निर्णयशक्ति का परिचय दिया और आपात काल एक ब्लंडर तो था, परन्तु उन्होंने देश का नेहरू की तुलना में कम अहित होने दिया। मेरे आकलन में राजीव गांधी के विषय में भी यही बात कही जा सकती है, गो तुलनात्मक रूप में ही।
इन विविध कारणों से हिन्दू हितों को लीग के छद्म प्रहारों से बचाने के लिए एक संगठन की आवश्यकता तो थी परन्तु वह लंठई (लाठी के बल) से नहीं चल सकता था। संघ ने अपने चरित्र में बदली परिस्थितियों में कोई गुणात्मक परिवर्तन किया ही नहीं और पीछे जो बात हम अपने हिन्दुत्वद्रोही संगठनों के विषय में अौर मजहबपरस्त मुसलमानों के विषय में कह आए हैं, वही बात संघ पर भी लागू होती है। सर्वोपयुक्त की अतिजीविता के डारविनियन नियम से संघ भी अश्मीभूत संस्था बन गई जब कि यही बात मैं मुस्लिम लीग के विषय में नहीं कह सकता। उसने अपनेे लक्ष्य को हासिल करने के लिए जिस तरह की लोच दिखाते हुए कम्युनिस्ट आन्दोलन को अपने अपने कार्यक्रम से जोड़ लिया, कांग्रेस और समाजवादी दलों की धर्मनिरपेक्षता को मुस्लिम वोट बैंक बन कर इस हद तक प्रभावित किया कि यदि हिन्दु अपने देश में ही उत्पीडि़त हों तो उसकी पीड़ा को मुखर करने तक का साहस किसी को न हो, क्योंकि मात्र इस चिन्ता के कारण ही उसे संकीर्ण हिन्दू सांप्रदायिकता से ग्रस्त मान लिया जा सकता था और किसी मुसलमान का नाखून भी कटे तो उसका गला कटने का प्रयास मान कर आर्तनाद आरंभ हो जाता था। जहां हिन्दू बहुल क्षेत्र है वहां सभी सुरक्षित रहें परन्तु जहां आबादी का आन्तरिक बदलाव मुस्लिम बहुलता की ओर झुक जाय तो आन्तरिक पाकिस्तान बनना आरंभ हो जाय और हिन्दुओं का वहां सम्मान से और सुरक्षित रहना असंभव हो जाय। यदि हिन्दू अपनी पीड़ा व्यक्त करें तो जिन्होंने अभी तक पलायन नहीं किया है उन्हें ‘शान्ति है कहीं कुछ नहीं हुआ’ का जुलूस निकाल कर पीडि़तों को अपमानित भी किया जाय। इतनी असुरक्षा के माहौल मैं जो रह गए है वे यह कह कर कि हम इसमें शामिल न होंगे, अपनी शामत बुलाएंगे।
मेरी यह बुरी आदत है जिधर मुड़ गया, मुड़ गया, जो सुन रहा है उसकी पीड़ा का भी ध्यान नहीं रखता, परन्तु मैं उनसे क्षमा मांगते हुए यह कहना चाहता हूं कि यदि संघ ने बदली हुई परिस्थितियों में अपने को अनुकूलित और समायोजित किया होता तो वह अप्रासंगिक न होता । उसने बुद्धिर्यस्य बलं तस्य के अपने सनातन आदर्श को समझा होता और डंडाधारियों की जगह पुस्तकधारियों की जमात पैदा की होती, उसका चरित्र बदला होता और भारत के सांस्कृतिक मूल्यों का एकमात्र रक्षक बन कर हिन्दू समाज में अपनी स्वीकार्यता इतनी बढ़ा ली होती कि सेक्युलरिज्म का नारा लगाते हुए लीग के कार्यक्रमों को अंजाम देने वालों का पर्दाफाश हाेता गया होता। संघ लीगियों द्वारा प्रायोजित हमलों से हिन्दुओं को बचाने के लिए स्थापित हुआ था, और ब्रिटिश शासन काल में उसकी प्रासंगिकता थी। यह अपनी चुनौतियों के समकक्ष सिद्ध हो पाया या नहीं, यह दूसरी बात है। पर स्वतन्त्र भारत में कांग्रेस और कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट संगठनों नेे सेक्युलरिज्म के नाम पर जिस कार्ययोजना को अपना ध्येय बना रखा था वह मुस्लिम लीग का था और यदि उसी तरह की अनुकूलन और समायोजन दक्षता संघ ने दिखाई होती तो गांधी की हत्या के अभिशाप से मुक्त होने के बाद वह एक जरूरी भूमिका सफलतापूर्वक निभा पाता। परन्तु इतने युगान्तरकारी परिवर्तन के लिए जिस कद और सोच का व्यक्ति चाहिए वह संघ के संकरे दिमाग के लिए ग्राह्य नहीं था। अटल बिहारी वाजपेयी में वह समायोजन क्षमता थी, संघ के लोग उनका समर्थन भी करते थे और उनसे नफरत भी करते थे, यह मैंने माइक्रो स्तर से लेकर मैक्रो स्तर तक अपनी परिचय परिधि में लक्ष्य किया था, जब कि अटल जी की नीति और कार्यशैली ने भारतीय जनमानस में संघ के प्रति परहेज को हिन्दू मानस से पहली बार कम किया।
वाजपेयी जी को जो जनमत मिला था वह संघ के प्रयास से अधिक प्राचीन भारतीय इतिहास और इसकी उपलब्धियों को मध्यकालीन मूर्तिभंजन, मंदिर ध्वंस और ज्ञान विज्ञान के संस्थानों के विनाश केे समान मान कर इसके प्रति शिक्षित भारतीयों के मन में आई जुगुत्सा का परिणाम था। इस बीच संघ ने किसी क्षेत्र में ऐसा कुछ नहीं किया था जिसके कारण यह अन्तर आ सके। दूसरे शब्दों में कहें तो, यह अवसर भी मार्क्सवादी इतिहास के नाम पर हिन्दू संस्कृति विनाशी इतिहासकारों ने दिया था। इनको खरीद लिया गया था। भौतिकवादी के पास आत्मा नहीं होती, मुक्तिबोध के शब्दों में वह अनात्म होता है, और इस सोच के साथ वह व्यक्ति से माल में परिवर्तित हो जाता है जिसे कोई खरीद सकता है। धरम न पूछो ज्ञान का, ज्ञान बिकाऊ माल, को कितना दे सोचिए काके हाथ बिकायॅ। बिक गए लोग और वैभव के कारण बड़े भी हो गए, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वे अपने पांवों पर तन कर खड़े हो गए, क्योंकि जो अपना दिमाग बेच देता है वह अपने पांंव की ताकत भी बेच देता है। रीढ़ भी बेच देता है। यह एक अलग कहानी है।
परन्तु इसका बोध शिक्षित हिन्दू समाज तक सीमित रहने के कारण, संघ से विमुख रहने वालों का इतना विचलन उस समय भी नहीं हुआ था जो हा्ई कमान, हाई दिमाग और लो ब्लड प्रेसर के नेतृत्व के कारण उपस्थित हुआ। मोदी जीते नहीं, उन्हें कांग्रेस और सेक्युलर कहे जाने वाले दलों की अपनी मूर्खताओं ने एक मात्र विकल्प के रूप में पेश किया। पहले भी वाजपेयी जीते नहीं थे, उस पागलपन का एक छोटे से पढ़े लिखे समाज के बीच अपने सांस्कृतिक विनाश के प्रति पैदा हुई सचेतता ने उनको स्वीकार्य बनाया था।
लाालबहादुर शास्त्री सेे बड़ा लोकतन्त्रवादी नेता इस देश ने पैदा नहीं किया। इन्दिरा जी में जो राष्ट्रभक्ति और उसके लिए उत्सर्गभावना और दृढ़ता थी उसकी मिसाल नहीं। मेरे आकलन मे पहली बार यह लगता है कि इन शिखरों से अधिक ऊंचाई हासिल करने वाला व्यक्ति माेदी हो सकता है, परन्तु मैं तो पहले ही कह आया हूूं कि लेख्ाक सताए हुए आदमी के साथ होता है और इसी कर्तव्य के कारण, उस जिम्मेदारी को समझते हुए जिसमें अपराधी का यदि कोई वकील न हो तो उसका पक्ष रखने के लिए सरकार वकील नियुक्त करती है और वह पूरी शक्ति से उसे निर्दोष सिद्ध करने का प्रयास करता है, मैंने घोषित रूप से उसका पक्ष लिया। जिन्होंने उसे अपराधी सिद्ध किया था उन्हें अभियोजन में भी कठिनाई हो रही है। अभियोग की जगह वे इल्जाम लगाते हैं और अपेक्षा करते हैं कि न्याय भी वे ही करें। अन्यथा तो अभियुक्त निर्दोष सिद्ध होगा और वे स्वयं अपराधी सिद्ध होंगे।
मैं जानता हूं, मैं अपनी बात ठीक से नहीं रख पा रहा हूं, परन्तु मैं प्रयत्न करूंगा कि कल आपको समझा सकूं कि मोदी न होता तो दुर्गति होती सबकी ।