भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर- २
उस निर्वात को भरने के लिए जो कांग्रेस की खुली लूट और उसके समक्ष मनमोहन सिंह की निरुपायता से पैदा हुआ था, दो साल पहले से ही सिंहासन की बोली लगनी शुरू हो गई थी ।
कांग्रेस शासन में सुखी रहने वाले आज कल घबराहट और दिशाहीनता के कारण मोदी के काम का मूल्यांकन करते हुए कहते हैं, ऐसा तो पहले भी होता रहा है इसमें क्या नया है ? मैं भी इस विचार से सहमत होना चाहता हूं पर तभी एक सवाल खड़ा होता है, यदि सब कुछ वैसा ही हो रहा है, सिर्फ भ्रष्टाचार कम हुआ, वह भी पूरा तो मिटा नहीं है (लग जाओ कहीं लाइन में), फिर इतनी घबराहट क्यों है ? आपके अनुसार तो मोदी आपके ही काम को कुछ अधिक खूबसूरती से कर रहा है।
वे शिगूफे गढ़ना जानते हैं, कहेंगे, हम काम करते थे, श्रेय नहीं लेते थे ।
मानना पड़ेगा, ”मैंने आपको इतने दिन का काम दिया;
”मैंने इस राज्य को इतना कर्ज दिया;
”मैंने आपको खाने का अधिकार दिया ।”
और दबे सुर में ”मैंने आपको खा जाने का अधिकार हासिल किया। ” कहने वाला श्रेय नहीं लेता था। बेचार मनमोहन सिंह श्रेय लेना चाहते थे, पर उसका मौका मिल नहीं पाता था। श्रेय राजघराने का, अलामत मुहरे की, जो कोई पूछे तो कह सकते हैं कि मुझे श्रेय की जरूरत ही नहीं थी। कुर्सी ही काफी थी। सन्तोष भी कोई चीज है।
मोदी जो कहता है, मेरा तो कुछ है नहीं, मैं तो आपका सेवक हूं, होस संभाला तभी से आपकी सेवा में चाय लेकर दौड़ता। आज जो है उसे लिए दौड़ता हूं। जो आपका है वह आपको दे रहा हूं, तेरी तुझको सौंपता का लागे है मोर, इसलिए आप को लगता है, लुटेरों से बचाने के लिए ‘जन-धन योजना’ कहने वाला और जन तक धन कैसे पहुंच सकता है इसका विजन रखने वाला और उसे फलीभूत करने वाला सारा श्रेय ले कर भागा जा रहा है और आप उसे चहेंट कर उससे वह श्रेय छीन कर आपस में बांटना चाहते हो ।”
मैंने कहा, कम पढ़ा लिखा होने के कारण मैं अपनी आंखों पर विश्वास करता हूं, जनता भी किताबों तक पहुंच नहीं हो पाती; अपनी आंखों पर ही विश्वास करती है, इसलिए मेरी और उसकी समझ में काफी निकटता होती है। मुझे कभी यह शिकायत नहीं हुई कि मेरी बात जनता तक नहीं पहुंच पाती, आप को अपनी समझ के कारण रोना पड़ता है कि आप जनता से कट गए है, आपका लिखा भी जनता तक नहीं पहुंचता और बोला भी, क्योंकि आप न अपनी अन्तरात्मा के प्रति ईमानदार हो, न अपने समाज के प्रति, न अपने देश के प्रति और इसे अपने शब्दों से और कामों से सिद्ध भी करते जाते हो। आप अपने देश को सचाई से अवगत कराना तक नहीं चाहते। उस पर परदा डालते हैं। कई तरह के पर्दे, कई रंग के पर्दे आपके पास है। आप जनता को मूर्ख समझते हैं और अपने को चालाक। जनता आप को मूर्ख समझती है इसलिए आपकी बातों पर ध्यान नहीं देती या देती है तो उसे उलटबांसी समझ कर। पढ़े लिखों की ही इतनी बड़ी जमात इतनी मूर्ख हो सकती है, क्योंकि अपने को बुद्धिजीवी कहते ही यह मान लेती है कि बुद्धि तो केवल मेरे पास है। जितनी दूसरों को दूंगा उसी से वे काम चलाएंगे। नहीं दूंगा तो मूर्ख रह जाएंगे। फेस बुक न होता तो आपके अन्तर की झांकी इतनी निकटता से मैं भी न देख पाता।
परन्तु यह न समझें कि जनता जात बिरादरी के बहकावे से भी मुक्त होती है। भुलावे में जनता भी आ जाती है और मैं भी आ सकता हूं क्योंकि बहकी बहकी बातें करने वाले तो अपने यार दोस्त ही हैं। कुछ तो असर पड़ेगा ही । इसलिए मुझे आपको भी जांचना, परखना और बताना पड़ता है कि आप कहां से कहां पहुंच गए हैं। आप ज्ञान की सिद्धावस्था में पहुंच चुके हैंं। कम्युनिस्ट होने के साथ ही व्यक्ति उसी सिद्धावस्था में पहुंच जाता है जिसमें अतिअनुशासित संगठन पहुंच जातें हैं। मजहबी लोग होते और मजहब अपनाने वाले अपनाने के साथ पहुंच जाते हैं।
एक मजेदार घटना याद आ गई । आज से पचीस साल पहले की बात है। शायर का नाम याद नहीं, शायरी भी कुछ खास नहीं, लेकिन उसकी एक नज्म की टेक थी, ‘बदलेगा जमाना लाख मगर, कुरआन न बदला जाएगा।’ और इस पर श्रोता लहालोट हुए जा रहे थे। लोग जोश में थे और मुझे हंसी आ रही थी। कारण तीन थे। पहले तो उस महाशय को यह पता नहीं था कि कुर आन के भी कई संस्करण मिलते हैं जिनमें कुछ अंतर है इसलिए सभी प्राचीन कृतियों की तरह कुरान में भी कुछ फेेर बदल हुआ है। दूसरे उसे यह नहीं मालूम कि कुरआन ही नहीं, दूसरे ग्रन्थ भी यथातथ्य ही रखे जाते हैं और रहते हैं। उसमें कोई दूसरा बदलाव नहीं करता। इस मानी में कुरआन का जानबूझ कर बदलने वाला या उसके पाठ से छेड़छाड करने वाला या तो मूर्ख होगा या पागल। टेक्स्ट की अपनी सैेक्टिटी होती है। उसका धर्मग्रन्थ होना जरूरी नहीं। हंसी इस बात पर खास तौर से आ रही थी वह कुरान शरीफ के प्रति सम्मान का इस्तेमाल करते हुए कह रहा था कि हम अपने समाज में कोई प्रगति, कोई परिवर्तन आने नहीं देंगे। जो ऐसा करेगा उससे निबट लेंगे। समय गुजरता जाय, कुरआन जिस काल और परिस्थितियों में लिखा गया था, वे बदल जाएं, परन्तु हम उसी काल में पड़े रहेगे, आगे बढ़ेंगे नहीं, न अपने को बदलेंगे न किसी दूसरे को बदलने देंगे। इबारत कुछ कह रही थी इशारत कुछ। इसका पाठ बनता था, बदलेगा जमाना लाख मगर मुसलमान न खुद को बदलेगा। डार्विन के कथन के अनुसार जो बदले हुए समय, चुनौतियों या परिस्थितियों के अनुसार अपने को बदल नहीं पाता वह अनफिट हो जाता है, सरवाइव नहीं कर पाता। हंसी इस बात पर आ रही थी कि इतनी नासमझी की बात पर इतने सारे लोग झूम रहे है। कविता का अर्थ शब्दों में नहीं, उनके विपर्यय में भी होता है और युगसन्दर्भ में भी। यह परिवर्तनशीलता ही कविता को अगाध बनाती है। इनके संदर्भ में उन्हीं उक्तियों के नये अर्थ खुलते जाते हैं और नई व्याख्यायें होती जाती हैं।
अब यदि कोई पूछें कि भई, तुम्हें इस कविता पर तीन कारणों से हंसी आ रही थी तो क्या तीनों के लिए तुमने तीन बार हंस कर दिखाया? तो कहूंंगा
कि हंसी की कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि हंसने चलो तो रोना आता है। पर मैं हंसना तो दूर रो भी न सका था, क्योंकि रोता भी तो किसी पर असर तो होने वाला न था।
यह प्रसंग इसलिए याद आ गया कि तुम उसी सिद्धावस्था को पहुंच चुके हो जिसमें न कुछ ऐसा नया जानना रह जाता है जो तुम्हारे माने से अनमेल पड़े, न सोचना रह जाता है, इस डर से कि सोचना फंडामेंटल से अलग जाना है, रिविजनिज्म है और ऐसों को अपमानित करके निकाल दिया जाता है कि वे किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहते। यह व्यक्ति, विचारधारा और संस्था के एक जीवन्त सत्ता से फॉसिल, जीवाश्म में बदलने का सूचक है।
इसके फलस्वरूप पचास साल से ऐसे लोग जो कुछ दुहराते जा रहे हैं और यह तक नहीं देख पाते कि इस बीच बहुत कुछ बदला है, कि देश काल भेद से कोई भी परिघटना, उसकी नकल करो तो भी वही नहीं रह जाती वह उतनी ही दृढ़ता से शिखर पर बने हुए हैं।
मैं सिद्धावस्था से डरता हूं इसलिए यह बोध मुझमें बचा रह गया है कि सचाई तो स्थान, काल के साथ, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक परिवर्तनों के अनुसार बदलती रहती है, इसलिए एक ही काल में कोई एक मूल्यांकन सभी पर घटित नहीं होगाा। चिन्ता केवल यह कि, पचास साल तक सर्वसन्दर्भ निरपेक्ष भाव से एक ही मुहावरा दुहराने वाले अश्मीभूत विचारों के लोगों से संवाद कैसे स्थापित हो।
एक ही रास्ता है, तर्क, प्रमाण, और औचित्य का। उसका वे ध्यान नहीं रखते। गालियों को तर्क बना लेते हैं। अभी कल की पोस्ट पर किसी ने कहा, ”मोदी पुराण।” कुछ कह सकते हैं, मोदी भक्त। मैं याद दिला दूं, मैं मोदी का वकील हूं। मैं तो उस आदमी को जिसे तुम गालियां देते रहे हो इतिहास पुरुष मानता हूं, जरूरत पड़ेे तो अतिरंजना भी कर सकता हूं। उनके खिलाफ जहर उगलने वालों के पास माेदी के वकील की जिरह का जवाब क्यों नहीं देते बनता। चोर चोर चोर चिल्ला कर लोगों की भीड जुटा कर खुद ही उसे फांसी देने का प्रयास करने वालों को, बचाव पक्ष का जवाब तो देना चाहिए। उसका साहस आज तक कोई जुटा नहीं पाया और किसी कोने से किसी के बयान को मोदी का बयान सिद्ध करकेे उसे फांसी पर चढ़ाने का फन्दा लिए ऐसे कमअक्ल भी घूम रहे हैं कि कोई पूछे कि ये है तो बता भी न सकें।
जिन दिनों के केवल भ्रष्टाचार और देश के संसाधनों की लूट की ही कहानियां लोगों को याद रह गई है, और सब कुछ भूल गया है, उनके विषय में याद दिला दें कि मैं और मुझ जैसे बहुत से लोग, शायद पूरा देश, इस दहशत में जी रहा था कि लो चीन हमें चारों ओर से घेर रहा है, उसने अंडमान के निकट पहुंच बना ली है, श्री लंका से उसका रब्त जब्त बढ़ रहा है। प्रचंड के आने के बाद नेपाल का झुकाव चीन की तरफ अधिक हो गया है। पाकिस्तान से उसकी दोस्ती गहरी हो रही है। अमेरिका पाकिस्तान का पुराना मित्र है, वह भारत और पाकिस्तान के हितों के बीच टकराव हो तो पाकिस्तान का साथ देगा। हमारे पास तो सारे हथियार भी पुराने हैं। हमारे जनरल उसके हमले से डरे हुए थे। गिनाते थे कि हम तो उसके सामने कुछ हैं ही नहीं, यदि उसने हमला किया तो हम कहीं टिक न पाएंगे।
भारत के नागरिक के रूप में हम विदेशों में किसी सम्मान और सुरक्षा के अधिकारी न थे। हमारी खाना तलाशी कुछ अधिक सख्ती से ली जा सकती थी। यहां तक कि वाजपेयी सरकार के दौरान भी एक मंत्री तक के साथ यही सलूक किया जा सकता था। विदेशों में बसे भारतीयोंं को थोड़ी राहत वाजपेयी युग में दुहरी नागरिकता से मिली थी, लेकिन भारतीय होने का गौरवबोध नहीं।
इस माहौल में जो पस्ती, निराशा और किंकर्तव्यता का माहौल था, उसमें जनता का मन टटोला जाने लगा कि इस अहसासे कमतरी से उसे कौन उबार सकता है? उसका जवाब ऊहापोह से गुजरते हुए जिस व्यक्ति के या व्यक्तियों के करीब पुंजीभूत होता गया उनमें सबसे ऊपर मोदी थे और उससे काफी नीचे नीतीश और अडवानी । भाजपा के एक सहयोगी घटक ने अपनी निर्णयकारी भूमिका न देख कर कुछ खीझ कर, गृहकलह पैदा करने के लिए, सुषमा का नाम ले लिया तो कुछ दिन वह भी चर्चा में रहीं।
पर दाेे बातें ध्यान देने की हैं। पहली कि कांग्रेस का कोई नाम नहीं था या खानापूरी करते हुए बहुत नीचे था। दूसरा यह कि समय के साथ सारे नाम छंटते गए। मोदी केन्द्रीयता पाते गए। फिर भी जनता के मन का सही पाठ कोई न कर सका। सभी आकलनों में मोदी के नेतृत्व में भाजपा के जीतने की संभावना के बाद भी कांटे की टक्कर मानी जा रही थी और भाजपा के विरुद्ध सभी दलों के एकजुट हो जाने के कारण नीतिश ने भी भाजपा से किनारा कस कर उस खेमे से अपने को जोड़ लिया था। आशा में गैर एनडीए गठबंधन के प्रधानमंत्री के दो दावे दार थे नीतीश जिन्होंने भाजपा से संबध तोड़ कर, अपनी सुथरी छवि पर भरोसा किया था, दूसरे मुलायम सिंह यादव जिन्होंने मुख्यमंत्री का कार्यभार अपने पुत्र को सौंप कर अपने को खाली कर लिया था और सही अवसर के लिए अपने को सुलभ बना लिया था। आखिरी मौके पर केजरीवाल को लगा यदि काशी में मोदी को चुनौती दूं और लोगों को उसी तरह झांसे में ले लूं जैसे दिल्ली के लोगों को ले लिया और उसके बाद भाजपा से इतर समस्त पार्टियों के गठबंधन से सरकार बनने की गुंजायश पैदा हुई तो लायन किलर मान कर हो सकता है सर्वमति से मुझे ही प्रधानमन्त्री का पद सौंप दिया जाय और उन्होंने अपनी सरकार को डेढ़ महीने बाद भंग कर दिया। अंधे को अंधेरे में बहुत दूर की सूझी।
यह वह माहौल था जिसमें मोदी ने अपने संगठन के अपने से वरिष्ठ लोगों को जिस भी तरह समझाया हो, पर वे जो प्रधान मंत्री बनने का सपना देखते हुए ही जीवित थे, वे मन मसोसते रहे पर मान गए, चल भई तू ही सही। अपने दल के भीतर मोदी की विजय दल के बाहर की विजय से कम रोमांचक नहीं थी। उसने अडवानी, जोशी जैसे वरिष्ठों को उनका चरण छूकर उनको निर्णायक पदों से भी दूर रहने को तैयार कर लिया, जिनमें उनके रहने से, उनके हस्तक्षेप के बाद, आगे कुछ कर पाना संभव न होता। मुझे अपने निर्णय के अनुसार काम करने दें। और मानने वाले यह जानते थे कि यदि वे अपनी दावेदारी पेश भी करें तो वे जीत नहीं पाएंगे। जनता का फैसला मोदी के पक्ष में आ चुका है। दूसरे यह कि अधिक हठ करने पर चरणस्पर्श उपेक्षा में बदल सकता है, जो अधिक पीड़क होगा।
अब यदि उसके ठीक बाद अपने को अधिक चालाक समझने वाले और स्वयं को भी प्रधान मंत्री बनने को आतुर अरविन्द केजरीवाल के अपने संगठन के अधिक आयु, योग्यता, कर्तव्यनिष्ठा और अनुभव केे लोगों को, जिनकी महिमा और समर्थन का उपयोग उसने अपनी विश्वसनीयता स्थापित करने और स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए किया था, उनके निष्कासन की तुलना मोदी द्वारा दरकिनार किए जाने वाले वरिष्ठों से करें तो अन्तर समझ में आ जाएगा। एक उनके आशीर्वाद लेने के लिए प्रयत्न करता हैं और देने के लिए बाध्य करता है, परन्तु उनके गौरव की रक्षा करते हुए। दूसरा जिनके कंधे पर चढ़ कर बड़ा बना था उनकाेे लात मार कर बाहर कर देता है ।
क्षमा करें, आज का समय भी भूमिका में खत्म हो गया। लगता तो यही है कि यह पुराण बन कर रहेगा, उनके लिए जो पुराण और यशोगाथा का भेद नहींं जानते। पुराणकार से छोटा दर्जा है यशोगाथाकार का। मैं वहां हूूं। परन्तु इसका श्रेय उन लोगों को जाता है जो मानते हैं कि तोहमतें तर्क का स्थान ले सकती हैं और मैं मानता हूं तर्क की भाषा से हट कर लांच्छनों और तोहमतों की भाषा फासिज्म और नाजिज्म की भाषा है। मेरे मोदी का वकील, बिना वकालतनामा, बनने से पहले, दोनों आेेर से गाली गलौज ही चल रहा था। मैं आया ही इसलिए और आया बुद्धिजीवियों को चुनौती देते हुए कि मैं मोदी का पक्ष लेता हूं, तुम मेरे सवालों का जवाब दो, क्या किसी ने कोई जवाब दिया।
जो भी हो, एक दिन और बर्वाद गया।
पर
मंजिल का हर कदम ही एक मंजिल है सोचिए।
हम कल जहां थे अाज वहां पर तो नही हैं ।