भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर
याद नहीं किसकी रुबाई है। शायद फिराक साहब की। उसमें उनके लफ्ज भी हैं और पढ़ने का अन्दाज भी और शायद सुना भी उनसे ही एक मुशायरे में था:
बर्वाद हो रहे है, आबाद होने वाले।
दुनिया में हैं इन्कलाब होने वाले।
जाकर के गुरूरे फलक से कह दो
जर्रे हैं आफताब होने वाले ।
यह रुबाई, पहले एक दिलफरेब लफ्फाजी लगती थी। मोदी ने उसको चरितार्थ कर दिया । वंशवाद को खत्म करने का संकल्प, कांग्रेस मुक्त भारत का संकल्प, सुन कर हंसी आती थी। सबका साथ सबका विकास चुनावी दौर का झांसा लगता था। इस आदमी के बोलने की आवाज तो हाकर की लगती थी। इसकी नाक और विवेक कोहली की नाक मेरी स्वर्गीय पत्नी केे मुखसामुद्रिक ज्ञान के अनुसार झगड़ालू स्वभाव का सूचक लगता था। संघ से इसका संबंध मन में मध्यकालीन मूल्यों, पंडोंं, पुजारियों, महंतो और संतों की दखलंदाजी की आशंका पैदा करता था। इसके द्वारा बारह साल पहलेे कारसेवकों के लिए साबरमती एक्सप्रेस की बोगियां भर कर भेजने की घटना, मन्दिर मस्जिद तनाजे की वापसी लगती थी। शायद इन्हीं सारी आशंकाओं के चलते हमारे कई मित्रों ने मोदी के केन्द्र में प्रवेश को सांप्रदायिकता के अतिरेक और भारत के भावी दुर्भाग्य के रूप में देखा था, परन्तु मेरी आशंकाओं का निवारण चुनाव अभियान का आरंभ होते ही हो चुका था, जब कि उनकी बनी रह गई थीं और वे अपनी हताशा, घबराहट को बहुत तल्ख इबारतों में प्रकट कर रहे थे।
मेरी आशंका का निवारण जिस एक वाक्य से हुआ था, वह था, जैसा कि मैं पहले भी कह आया हूं, शौचालय बनाना देवालय बनाने से अधिक जरूरी है। एक ऐसे संगठन से जुड़ाव के बाद जो चुनाव आने के साथ ‘मन्दिर निर्माण केे वादे को सर्वोपरि रखता था, मन्दिर के साथ जिसका भावनात्मक समीकरण बिल्कुल भिन्न था, यह एक तत्वदर्शी का कथन प्रतीत हुआ। देवालय के साथ शौचालय नाम का प्रयोग ही इतना चुनौती भरा, इतना दूरदृष्टि भरा लगा कि मुझे लगा, यह अब तक के किसी भी खांचे में न अटपाने वाला युगान्तरकारी व्यक्ति है, आज का इतिहासपुरूष। मोदी ने मुझे निराश न किया। जो कहा था उसे पूरा करने की दिशा में प्रयत्न जारी रखा। रामो द्विर्नभिभाषते , राम दुहरी बात नहीं करता, जो कहा वह करेगा। इतना ही बहुत है।
कम पढ़े होने का एक लाभ मुझे यह है कि मैं आचरण या भाषा की ऐसी ही अभिव्यक्तियों पर किसी के पूरे व्यक्तित्व का मूल्यांकन करता हूं और उसके विषय में अपने निर्णय लेता हूं। मेरी यह कसौटी कभी गलत नहीं सिद्ध हुई। उदाहरण के लिए यदि कोई कथन को सच साबित करने के लिए कसम खाए, उसमें भी अपने बच्चों, मां या बाप की कसम तब तो शर्तिया, मैं उसे आदतन झूठा (कंपल्सिव लायर) मान लेता हूं।
सच बोलने वाले को कसम खाने या अपना कथन दुहराने की जरूरत नहीं पड़ती। यद्यपि ऐसे लोगों में भी पचास प्रतिशत या इससे अधिक मामलों में लोग अपना वादा पूरा नहीं कर पाते, परन्तु उसमें कई घटक शामिल होते हैं, ये सत्यनिष्ठ नहीं होते, पर झुट्ठे नहीं होते।
अपने चुनाव अभियान के दौरान ही जब दिल्ली के मतदातओं का मन जीतने के लिए अनावश्यक परन्तु अपने को दूसरों से ऊपर दिखाने के लिए कुछ अव्यावहारिक प्रतिज्ञाएं अरविंद केजरीवाल ने कीं – हम सरकारी गाडि़यां नहीं लेंगे, बंगले नहीं लेंगे, मेट्रो से चलेंगे, सुरक्षा नहीं लेंगे – तो उसे मैं अतिउत्साह मान सकता था, परंतु जब उसने अपने बच्चों की कसम खा ली तो मैंने अपने सनातन झगड़ालू दोस्त से कहा, ”यह आदमी जालसाज है, आदतन झूठ बोलने वाला है, इसे विश्वास है कि यह झूठ बोल कर दूसरों को बेवकूफ बना सकता है और इसी के बल पर अपने को अधिक बुद्धिमान समझता है, इसलिए यह अपना कोई वादा पूरा नहीं करेगा। जो कहा है उससे उल्टा करेगा।” तो उसका जवाब था, यह तो समझ में आता है, पर तुम चाहो कि मैं भाजपा को वोट दे दूंगा तो यह तो कभी हो नहीं सकता। पार्टी का निर्णय है ‘आप’ को वोट देना है तो देना है।”
मैं उसे मतदान करने के लिए यह नहीं सुझा रहा था, बल्कि इसलिए कि वह मेरे आकलन को ध्यान में रखते हुए आगे की गतिविधियों को जांचता रहे और अंत में मुझसे कहे कि ‘हां, यार तुम्हारी बात तो सच निकली।’
दुर्भाग्य देश का है कि अरविन्द केजरीवाल ने मुझे निराश नहीं किया। अगला दुर्भाग्य यह कि मेरे मित्र ने आज तक वह वाक्य नहीं कहा जिसकी अपेक्षा में मैंने उससे अपना निर्णय और उसका आधार भी प्रकट किया था।
कांग्रेस में सोनिया प्रभाव के बाद से कुछ भी ठीक नहीं चल रहा था। पर वह बहुत दूरदर्शी हैं। वह अंग्रेजी राज्य की जगह ईसाई राज्य स्थापित करने के कार्यक्रम पर काम कर रही थी जिसका सार सूत्र था कि प्रचार शक्ति से सब कुछ हो सकता है। उस दौर में ईसाइयत को आगे बढ़ाने और उसके एकमात्र प्रतिरोधी हिन्दू संगठनो और हिन्दू समाज पर जिस तरह के घातक और सुनियोजित कार्यक्रम बनाए गए उसका अलग से अध्ययन होना चाहिए। पर मेरे मन में उसको लेकर पहले से ही विरोध था इसलिए मैं उसकी वापसी किसी कीमत पर होने का विरोधी था और इसलिए राहुल गांधी के मूल्यांकन में यदि कोई कहे कि इसमें मेरे पूर्वाग्रह का हाथ्ा रहा हो सकता है, तो मैंं चाहूंगा कोई तर्कश: मेरे विचारों को ध्वस्त कर दे। इससे
मुझे भी तोष मिलेगा। यदि यह संभव नहीं तो बचाव तो आप कर ही सकते हैं। इसका दृष्टान्त नहीं मिला इसलिए यह सोचने की विवशता है।
मुझे राहुल गांधी के उस कथन पर पहली बार यह आभास हुआ कि या तो यह दिमाग से कोरा है- इन्दिरा जी इंटर पास और शान्तिनिकेतन की उपाधि फेल होते हुए भी कांग्रेस की सबसे दिमागी, राजनीति में नेहरू से भी कम गलतियां करने वाली नेता थीं। गो गलतियां भी काम करने वाले ही करते हैं। जो कुछ नहीं करता वह कोई गलती नहीं करता, इसलिए सोनिया के दौर में सोनिया और परिवार ने कोई काम नहीं किया सिवाय अपनी मरजी प्रकट करने के। सारे काम उनकी मरजी से टकराते हुए जिन्होंने किया, सारी गलतियां उन्होंने कीं, अपना अपमान तक हो जाने दिया। कुरसी इतनी लुभावनी हो गई थी उनको, कि वह अपना अपमान, सिख समुदाय के अपमान का मोल चुकाते हुए भोले बने सत्ता से चिपके रहे, ऐसा आत्महीन और मेरुहीन व्यक्ति क्या देश के सम्मान की रक्षा कर सकता था। मनमोहन सिहं के शासन में भ्रष्टाचार के स्रोत तो उनके नियन्त्रण से बाहर थे, उनको गोट की तरह बैठा कर, इस्तेमाल करने वालों के पास। परन्तु साहसिक निर्णय उनके ही पास हो सकते थे। उनका गणित अच्छा था और दिमाग भी। कलेजा था ही नहीं या वह भी दिमाग का हिस्सा बन चुका था। हाैसला आगे जाता और दिमाग उसे पीछे खींच लेता, इसलिए सेना के सुझाव के बाद भी उन्होंने वह जाखिम नहीं उठाया जो मोदी ने उठा लिया।
पर इस बीच आप को यह तो मालूम हो ही गया होगा कि मुझे न अच्छा बोलना आता है न लिखना। वह स्थापत्य मुझमें है ही नहीं जिससे विचारहीनता के बावजूद काक्कौशल से वक्ता स्तंभ की तरह तना रहता है पर उसकी छाया बन ही नहीं पाती, प्रभाव महिमा से जुड़ता है, बोध से नहीं। मैं कहना ताे यह चाहता था कि ऐसे ही कतिपय उदाहरणों से सोनिया और राहुल ने और पूरे परिवार ने स्वयं यह प्रमाण देना आरंभ किया कि हमारे दिन लद चुके हैं। अन्तिम बाजी चलनी है। देश जहां जाए जाए, पर यदि रहे तो हमारे पारिवारिक नियंत्रण में । जितना लूटना था लूट लिया, भगा दिए गए तो दूसरा ठिकाना बना लिया है। राहुल का एक ब्रिटिश कंपनी में इतना धन निवेश, या कहें, उनके ही धन से खड़ी कंपनी जिसके वह निदेशक या ऐसा ही कुछ थे और जिसके लिए उन्होंने ब्रिटिश नागरिकता ले रखी थी, देखा तो सभी ने, इसका निहितार्थ यदि समझा गया तो क्यों छिपा दिया गया और न समझा गया तो हमारे बुद्धिजीवी किस चरागाह के घसियारे हैंं।
यह सब तो बाद में पता चला, परन्तु भारतीय समाज का जितना बड़ा अपमान उन्होंने अन्तिम पासा फेंकते हुए किया कि मैने आपका सौ दिन का काम दिया। मानहानि के डर से मैं इस आदमी को उल्लू नहीं कह सकता पर लोगों ने सुना, वह उनकी प्रतिक्रिया में अव्यक्त रह गया, ‘यह तेरे बाप का पैसा था जो तूने दिया है।’ राहुल ने भारतीय निर्धनों का अपमान करते हुए जो कहा, मैंने तुम्हें इतने दिनों का खाने का प्रबंध किया है, उसका वैसा ही पाठ बना, ‘अभागे, तूने मुझे भिखारी समझ रखा है क्या। यह रियायत जो दी वह मुझे पहुंचेगी। तूने मुझे दिया या अपने काडर को जो भ्रष्टाचार पर ही पला है। यह सब मेरा अनुमान है और इसके आधार पर ही मैंने कांग्रेस के भाग्य के विषय में अपने मत बनाए थे जो आज भी सही हो सकते हैं। अाप असहमत हो सकते हैं। पर यह बताएं कि आपकी अपनी व्याख्या क्या है।
जर्रे को आफताब बनना अकेले जर्रे में भरी असाधारण ऊर्जा पर निर्भर नहीं करता, समय की मांग पर भी निर्भर करता है और उस निर्वात पर भी जिससे जर्रा जमीन से उठ कर आफताब बनने की ऊंचाई, प्रभा और आभा प्राप्त कर ले।
चमत्कार उसे कहते हैं जो आपके सामने घटित हो रहा हो आप फिर भी विश्वास न कर पाएं । इतनी छोटी हैसियत का आदमी इतना बड़ा कैसे बन गया? बन तो गया पर मैं नहीं मानता। दुनिया की सारी डिग्रियां मेरे पास, यह पता नहीं हायर सेकंड्री से आगे बढ़ा भी है या नहीं, और मेरे रहते इसे इतने बड़े दायित्व के लिए कैसे चुन लिया गया? चलो भाजपा ही सही, उसमें इतने बड़े और अनुभवी नेता थे और प्रधानमंत्री बनने की पूरी तैयारी करके अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, उनके रहते यह हमें स्वीकार कैसे हो सकता है? चुनाव अभियान के दौर से ही एक समाचार चैनल ऐसा था जो जाता तो था उसकी रैलियां कबर करने और मंच या मंच के सामने का मजमा दिखाने की जगह मंच के पीछे खड़ा हो कर लोगों की समस्यायें पूछता था मानो निर्वाचन से पहले ही वह उन समस्याओं के लिए जिम्मेदार हो। बुद्धिजीवी जब अपने को इतना चालाक समझता है कि वह सभी को बेवकूफ बना सकता है, तब उसका श्राद्धलेख तैयार करना आरंभ कर दिया जाना चाहिए। लोगों ने अपने समाधिलेख स्वयं लिखे पर वे टंगेंगे कहां, यह पता न किया।
मेरा दुर्भाग्य यह कि आपका यह फिकरा हमेशा सही सिद्ध होता है कि यह आदमी हमारा समय बर्वाद करता है, कहने को इसके पास यदि कुछ है तो उसे कल कहेगा पर आज जो हाल है, कल भी वही हाल होना है। क्या धीरज हैं आपमें इसे सुनने का?