बाद्धिक विकलांगता अौर वस्तुसत्य
हम जानते हैं कि रतौंधी से ग्रस्त व्यक्ति को धुंधलका होते ही दीखना बन्द हो जाता है, वर्णान्ध व्यक्ति को कुछ रंग नहीं दीखते, परन्तु हम इस विषय में सचेत नहीं होते कि कुछ दशाओं में प्रखर बुद्धिवालों को भी कुछ बातें समझ में नहीं आतीं, या कुछ बातों को सुनने समझने से उसे घबराहट होती है। इसलिए नशाखोर को नशे की लत से होने वाली क्षति की बात करे तो वह छूट कर भागना चाहेगा। उर्दू कविता में नासेह या नसीहत देने वाले को ले कर बहुत तंज कसे गए हैं, यद्यपि वह तन्ज इस बहाने कठमुल्लेपन पर भी तंज हुआ करता है।
एक स्थिति होती है जिसमें अच्छी चीज बुरी और बुरी चीज अच्छी दिखाई देने लगती है। इसके चलते एक जमाना था जब ईसाई कठमुल्लों को सोचने विचारने वाले या अनुसंधान करने और नए सत्य उजागर करने वाले शैतान नजर आते थे और इस शैतान की कल्पना सामी पुराण में शैतान या सांप के रूप में की जिसे देखते ही खत्म न किया गया तो वह खुराफात करेगा और ईसाइयों ने न जाने कितने विद्वानों को मौत के घाट उतार दिया और मूर्खों का महिमा मंडन करते रहे, असंख्य सुन्दरियों काे मनमोहिनियां या एनचैंट्रेस कह कर जिन्दा जला दिया। यह सोच शताब्दियों तक यूरोप में हावी रही और इसके विरुद्ध आवाज उठाने वाले दिखाई ही नहीं देते । इसलिए यदि किसी दौर में किसी कारण से ऐसे लोगोंका बाहुल्य हो जाय, चारों ओर से उनकी ही आवाजें आने लगें तो यह नहीं समझना चाहिए कि जब इतने सारे लोग कुछ मानते हैं, तो वह सही ही होगा। ऐसा भी हो सकता है कि किन्हीं रहस्यमय कारणों से देश के देश शताब्दियों तक बौद्धिक विकलांगता का शिकार बने रहें और उनको इससे बाहर लाने का प्रयास करने वालों को इतना लांछित कर दिया जाय कि न केवल उनकी बात अनसुनी रह जाय, अपितु उन पर होने वाले अन्याय, उपहास का पूरा समाज गर्व से समर्थन करता रहे।
इसकी परीक्षा कठिन नही है कि आप सचमुच ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं या नहीं। आप देखिए विचार सत्ता पर अधिकार रखने वाले तर्क की भाषा में बात करते हैं या आरोप और अभियोग की भाषा में। वे वस्तुसत्य को देख पाते हैं या किन्हीं विचारधाराओं, विश्वासों के मंत्रोपचार से केवल उतना ही देख पाते हैं जिसकी उसमें अनुमति दी गई है, शेष को देखने समझने की जरूरत नहीं समझते, या दिखाने पर देख नहीं पाते और जिसे दिखाना चाहते हैं उसके विषय में भी तर्कसंगक ढंग से गुणदोषपकरक विचार नहीं कर पाते। यदि हम चाहते हैं कि इस मानसिक विकलांगता से समाज को मुक्त किया जाय जो हमारे बौद्धिक उत्थान और आत्मावलंबन के लिए जरूरी है तो इसे समझना होगा और इससे लड़ना होगा। लड़ने का औजार भी तर्क और विचार ही हो सकता है, हथियार नहीं।
विचार हथियार से अधिक ताकतवर होता है, क्योंकि यही असंख्य लोगों को हथियार उठाने काेे भी प्रेरित करता है और प्रतिरोध के दूसरे रूपों को भी उभारता है, इसलिए तानाशाह सबसे पहले निडर विचारकों का सफाया करता है, तानाशाही का समर्थन करने वाले अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को प्रतिबन्धित करते हैं, और इसके दमन के लिए हथियारों और निर्वासन या बहिष्कार तथा उपेक्षा द्वारा उत्पीडित करते हैं।
विचारशून्यता में भी कुछ इबारतों काेे बदल बदल कर दुहराया जाता है जिनसे वैचारिकता का भ्रम पैदा होता है पर कारण या तर्क नहीं प्रस्तुत किए जाते और वे इबारते भी लांछन का विस्तार होती हैं।
इस स्थिति का सामना करने के लिए किसी भीड़ की आवश्यकता नहीं होती। अकेला चिन्तक ही आधारहीन आक्षेपों, विश्वासाें और मान्यताओं का खंडन कर सकता है और उसके बाद पहले की उससे अनमेल मान्यताएं और विश्वास सभी को बदलना होता है। विज्ञान में यही होता है, समाजविज्ञान में उसके विरोध में भीड़ को खड़ा कर दिया जाता है और मुख्यधारा और उससे असहमत धारा के रूप में उसे पेश करते हुए घटाटोप तैयार किया जाता है, पर तर्क और प्रमाण वहां भी गायब होते हैं या लचर।