प्रयोग – 11
किं कर्मं किमकर्मेति कवयोप्यत्र मोहिता:
पार्क में बच्चों के लिए पैरलल बार, ढेकी राड, मंकी बार, सरक पट्टे, झूले थे। इनका सही नाम क्या है यह मैंने जानने की कभी कोशिश नहीं की। इन्हें पांच से दस बारह साल के बच्चों के लिए बनाया गया था, जो टहलने घूमने आने वाले मां बाप के साथ आते थे। मजदूरों के शैशव से स्वावलंबी बना दिए गए बच्चे इधर उधर भटकते पार्क में कदम पड़ते ही जिस उल्लास से हाथ फैलाए इनकी ओर दौड़ते उसे देख कर फर्राटे भरते पक्षियों की याद आ जाती। कुछ देर तक एक पर, फिर स्वाद बदलने के लिए दूसरे पर और जाहिर है आनन्द को पूरा आनन्द बनाने के लिए किलकारियां। उनकी इस क्रीड़ा को खड़ा हो कर देखना भी प्राकृतिक लीला के अवलोकन जैसा लगता।
परन्तु मुस्तंडाें का एक दूसरा वर्ग था। जिनके आयुवर्ग के लिए पैरलल बार, मंकीबार लगे जिससे वे व्यायाम कर सकते थे। परन्तु इनमें से अधिकांश काे छोटे बच्चों के लिए बने उपकरण अधिक पसन्द आते, इनको तोड़ने में उन्हें जितना आनन्द आता था, उतना खेलने में नहीं। इसके साथ कई तरह की मानसिकताएं काम करतीं।
यह पार्क इन अपेक्षाकृत ‘खुशहाल लोगों का’ है अत: इसे नुकसान पहुंचाना उनसे बदला लेने जैसा है। सामाजिक-आर्थिक भेद अपने से ठीक ऊपर वालों के प्रति आक्रोश पैदा करता है जिसे कई बन्धनों के कारण लोग सीधे व्यक्त नहीं कर या बड़े भोलेपन से अमल में लाते हैं। किसी कम्युनिस्ट से पूछें तो कहेगा ये क्रान्तिकारी शक्तियां है, जिन्हें एक बार संगठित होने का अवसर मिल जाय तो ‘आकाआें की हड्डियां तक चबा सकते हैं।’ उन्हें भी हड्डियॉं चबाने की क्रिया क्रान्ति से अधिक जरूरी लगती है, पर यह भूल जाते हैं कि उनके सभी नेता उसी जमात में शामिल हैं जिनकी हड्डियां सबसे पहले चबाई जाएंगी क्योंकि निकट पड़ोस में अल्पतम सुरक्षित वे ही मिलेंगे।
शिशुओं और बालकों के सरकने के लिए बने स्लाइड बोर्ड पर ये बड़े बच्चे कुछ दूर से दौड़ते हुए आते और उल्टे सिरे से जूता पहने ऊपर तक पहुंचने का प्रयत्न करते। कुछ ही समय बाद उसमें गढ्ढे पड़ जाते, फिर वह फटने लगता और सरकने के काम का न रह जाता । एक एक कर उन्होंने तीन की यही गति की थी। इसमें एक दबी चुनौती भी थी।
झूलों पर एक साथ दो दो, तीन तीन मुस्तंड खड़े हो कर झूलने लगते, सी-सा पर एक साथ कई उसके राड तक पर बैठ जाते। इसमें कालेज के लड़के लड़कियां किसी से पीछे नहीं रहते जो शगल के लिए विचित्र लगने वाली कई दूसरे तरह के कारनामे भी करते रहते थे। नतीजा क्या होगा इसकी चिन्ता नहीं।
जिन बच्चों के लिए झूले बने थे उनको धक्का दे कर खुद एक साथ दो तीन चढ़ जाते और ऊंची पेंगे भरते । कई बार बच्चे दौड़े मेरे पास आते। मैं अखबार पढ़ रहा हूं या किताब, उनकी बात सुनूंगा ही, यह विश्वास लिए, ”अंकल वहां वो लड़के हम लोगों को झूलने नहीं दे रहे हैं।” उनकी नजर में मैं यहां का छोटा मोटा सुपरवाइजर बन चुका था। किताब संभाले छड़ी टेकता, पहुंचता। उनको आवाज दे कर पास बुलाता, समझाता, अगर आना कानी करते तो फटकारता, ”यह इन बच्चों के लिए है। तुम्हारे लिए पैरलल बार और मंकीबार है। उतरो, भागो यहां से।” एक बार को छोड़ कर यह आदेश कभी विफल नहीं हुआ और उस बार मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इसे समझाऊं तो कैसे, ”तुम्हारे पास अक्ल नहीं है।” ”नहीं है।” ”मैं तो नहीं उतरता, आप चाहे पुलिस बुला लो।” ”पुलिस बुलाऊंगा तो मैं ही हार जाऊंगा, अभी तुम उतर जाओ तो तुम भी जीत जाओगे, मैं भी ये बच्चे भी।” मैं किसी से उलझा हूं यह देख कर लोग इकट्ठा हुए तो बड़े अनमने पन से हटा । यह धमकी देते हुए कि कल फिर आएगा, देखें कौन भगाता है।” अगले दिन क्रिकेट की टीम बना कर आया। मैंने उसकी उपेक्षा कर दी, यह भी नहीं समझाया कि यह खेलने की जगह नहीं है। उसका अहं तुष्ठ हो गया, शायद । उसके बाद न वह दीखा न उसका दल ।
पर झूलने का प्रलोभन तो छोटे बच्चों जैसा ही चौकाबर्तन करने वाली महिलाओं से कुछ उपर की हैसियत रखने वाली अधेड़ औरतों में होती। वे घूमने आतीं, मौका पा कर उस पर लद जातीं। बचपन से अतृप्त आकांक्षाएं। झूले के गीत तो उन्होंने जितने भी गाए हों, झूलने का अवसर शायद ही मिला हो। पेंग बढ़ा कर नभ को छू लें वाली पेंग भरने लगती। क्या कर सकते हैं आप। जो होना हो सो हो। और पहले उसका पटरा टूटता और जंजीर रह जाती फिर जंजीर बांध कर उस पर खड़े हो कर झूलते और उसे तोड़ कर ही दम लेते।
अगर विफलता का लेखा रखना हो तो इसमें तीन बार उसी अनुभव से गुजरना पड़ा। पहले डीडीए ने लगवाए थे जिनकी गुणवत्ता भी अच्छी थी। फिर शिकायत करने पर एमसीडी ने लगवाए जो घटिया थे और इनके टूटने के बाद एक बार अनुरोध करने पर एमसीडी ने फाइबर की सीट वाले झूले और फाइवर के ही घुमावदार स्लिपबोर्ड लगवाए, परन्तु जब उसको भी तोड़ डाला गया तो मैंने तय कर लिया था कि अपनी ओर से छोटे बच्चों के मनोरंजन के लिए कोई उपकरण लगाने पर जोर नहीं डालूंगा। पर लीजिए इस संकल्प के साथ ही, ‘हम छोड़ आए वो गलियॉं’ और गार्डन के पड़ोस से हटकर गार्डेनिया में पहुंच गए जहां गमले दिखाई देते हैं, पेड़ नहीं ।
2
समस्यायें पहले से होती हैं। जब तक उनसे अधिक गंभीर समस्यायें हमारा ध्यान खींचती रहती हैं, तब तक हम उनको देख नहीं पाते। हम कभी समग्र को नहीं देख पाते, उदग्र को ही देखते हैं और मान लेते हैं हम समग्र को जानते हैं। इस इलाके की संस्कृति और वस्तुव्यापार जैसा था, उसमें जब यह पार्क उजाड़ सा था उस समय भी स्कूल जाने वाली बालिकाएं इससे हो कर ही गुजरती थीं। उस दौर में वे यहां किसी न किसी बहाने ठहरती थीं या नहीं इस पर कभी ध्यान नहीं दिया जब कि आदतन आते तो चक्कर लगाने उस समय भी थे।
जब लक्ष्य किया तब वे या उनमें से बहुतेरी इस प्रतीक्षा में टहलती रहतीं कि उनका कोई दोस्त आएगा और उसके साथ घूमेंगी। कुछ अपने मित्र के साथ आतीे। इनको उतनी छोटी आयु में भी किसी लड़के के साथ की अपेक्षा करना मुझे विस्मित नहीं करता क्योंकि मनोविज्ञान में अपनी कुछ गति होने के कारण जानता था कि काम भावना और स्पर्शानुभूति बहुत कम उम्र में ही पैदा हो जाती है जिसे माताएं अपनी सन्तान के माध्यम से जानती है, पुरुष अपने बारे में भी मूर्ख रह जाता है। परन्तु यहॉं उनकी आयु का अन्तर कभी कभी विचलित करता। आप देखते हुए भी, बहुत कुछ जानते हुए भी कुछ नहीं कर सकते। जीवन में सर्वत्र यह हाेता है। देवालयों और न्यायालयों में भी। मकतबों और मद्रसों में भी। शायद वहां सबसे अधिक जहां हम इसकी अपेक्षा नहीं करते इसलिए उसकी पड़ताल नहीं करते। मैं अपने हस्तक्षेप को हस्तक्षेप न मान कर एक प्रयोग मानता था इसलिए यह जानना चाहता था कि यदि इसमें ऐसा किया जाय तो परिणाम क्या होगा। बीच में कूद पड़ता, स्कूल जाओ तुम लोग। यहां क्यों चक्कर लगा कर अपना समय बर्वाद कर रहे हो। वे खिसक लेते और उनमें एकाध जो कहतीं, स्कूल एक घंटे बाद लगेगा तो फटकारता, ‘तो यहां समय क्यों बर्वाद कर रहे हो जाओ अपने घर।’
इसका असर पड़ता। वे भाग खड़े होते। जो रुके रह जाते उनका फोटो लेने का अभिनय करता, क्योंकि दिन की रोशनी में मुझे मोबाइल के संकेत तक दिखाई न देते, पर इसका असर होता और वे भाग खड़ी होतीं।
जब कालेजों के लड़के लड़कियां मौज मस्ती के लिए आने लगे उनके पारस्पर्य के प्रचार के बाद इन लड़कियों में भी यह अधिकार बोध जागा कि हम अपने फ्रेंड के साथ क्यों नहीं घूम सकते और मेरा पुराना प्रभाव कम हुआ । खाप पंचायतों के प्रभाव की तरह।
पर इसका एक सबसे चिन्ताजनक रूप यह उभरा कि शाम से ही आवारा लड़कों और लड़कियों का जमावड़ा आरंभ हो गया जो पहले नहीं था। वे आ कर उन बेंचों पर बैठ जाते जिन पर हम टहलने के बाद आराम के लिए बैठते थे। उन्हें मैं उठा देता, ‘यह आप लोगों के लिए नहीं है।’ वे चुप उठते और मुझे यह जानने की जरूरत न होती कि वे कहां गए, क्योंकि वे वहां बैठे ही इसलिए थे कि सघन वृक्ष की छांव में उन्हें जगह न मिल पाती थी।’
हाल इससे बुरा था गुलशन का । पता चला कि इसे प्रेमीजन जोड़ापार्क कहने लगे हैं। और इसे समझने के क्रम में पता चला कि यहां कुछ लड़कियां धन्धा करने के लिए बैठने लगी हैं और तकलीफदेह यह कि उनमें कुछ अल्पवय बालिकाएं भी थी जो सज संवर कर आतीं और ग्राहक की प्रतीक्षा में बैठी रहती।
ऐसी विक्षोभकारी स्थितियों के समर्थन में नारी संगठन या नारी मुक्ति या नारी स्वातन्त्र्य के समर्थक क्या कहेंगे यह मैं जानता हूँ क्योंकि मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलें विरंचि सम । वे मुहावरे बोलते हैं और मुहावरों के माध्यम से यथार्थ का निर्माण करते है, परन्तु यदि उन्हें भी इसका सामना करना पड़े तो उनमें कोई इतना जाहिल नहीं है कि वह उन्हीं नतीजों और चिन्ताओं के आसपास न पहुंचे जिस पर मैं पहुंचा था।
समस्या एक और थी जो पहले लक्ष्य नही की गई थी, और जिसके लक्षण पहले देखने में न आए थे। रात के अंधेरे में यहां जो कारोबार चलता था उसका पता फटी हुई चोलिया, टूटी हुई जूतियां, और छोड़ी हुई चद्दरों, शराब की खाली बोतलों, सोडा की बोतलों और खान पान के कुछ के जूठनों से मिलता जिनको गन्दगी का हिस्सा मान कर अपने को सम पर रखा जाता, क्योंकि इस सचाई का साक्षात्कार करने का साहस किसी में न था। मैं नहीं जानता कि पेशेवर लड़कियों का जमा होना इससे कितना प्रेरित था, पर बैठने वालों की ऐसी गतिविधियां बढ़ गई थीं और संचार माध्यमों की चीख के बीच किं कर्मं किं अकर्मेति कवयोप्यत्र मोहिता वाली स्थिति में थे ।