प्रयोग – 12
अंधेरे के बीच राेशनी
पार्क है तो प्रकाश की व्यवस्था भी होनी चाहिए। प्रकाश व्यवस्था के साथ अंधेर न हो तो चिराग के नीचे अंधेरा का मुहावरा गलत हो जाएगा। डीडीए को भी इसका ध्यान था, इसका पता तीन तरह के खाली पड़े खंभों से चलता था जिनकी रख रखाव की जगह एक दूसरा ठेका दे दिया जाता था। पहले के खंभे उस ऊंचाई के थे जिस के वे गैस के लैंपपोस्ट पुराने समय में हुआ करते थे जिन्हें सीढ़ी कंधे पर लादे एक आदमी शाम को आता और जलाता था और सुबह को बुझाता था। पार्क में रोशनी के लिए यह सबसे उपयोगी था क्योंकि पेड़ों की छाया के नीचे भी इसकी रोशनी पहुंच सकती थी। इसके हंडे अंधकार प्रेमियों ने तोड़ दिए थे, नीचे के तार खींच का काट डाले थे । इसके बाद सड़कों को रौशन करने के लिए जिस तरह के ट्यू्बलाइट उसी उँचाई पर लगवाए गए थे। उनकी भी वही गति हुई थी। अब हार कर पार्क के लगभग बीचोबीच तीसेक फुट की ऊंचाई पर एक खंभा लगा जिसके विषय में यह विश्वास था कि ढेला पत्थर का निशाना उस ऊंचाई पर न पहुंचेगा। इसके पांच बाजू पांच दिशाओं में बढ़े हुए थे जिनमेंं नियोन बल्ब लगे रहे होंगे यह कल्पना की जा सकती थी। जिस समय मैंने इस पार्क से रिश्ता जोड़ा, यह खंभा भी खड़ा था, पर कहीं न कोई बल्ब था न रोशनी की कल्पना। आरंभ में पार्क उजाड़ था। इसपर हमारे सतमंजिले कालम के ऊपर सुरक्षा के खयाल से पीछे की ओर जो तेज रोशनी की व्यवस्था थी उससे जो रोशनी फैलती थी उतनी ही थी। लोग अधिक समय तक बैठना घूमना पसन्द नहीं करते थे इसलिए राेशनी की ओर विशेष ध्यान गया ही नहीं। हाल यह था कि आरंभ में मोटरपंप ही चालू नहीं था, उस तक बिजती अश्वय पहुंची हुई थी पर वह एक कमरे में थी। हरियाली के साथ रौनक लौटी तो चहल-पहल शुरू हुई और खास तौर से उस ओर जिधर बरगद के पेड़ों की कतार सी थी इसलिए दिन ढलते ही अंधेरा हो जाता, लोगों को गुजरते हुए कुछ दिक्कत होती। यह इसलिए भी कि बरगद की छाया में पड़ी चार बेंचों में से पता नहीं किस पर कौन बैठा हो और जाने क्या कर बैठे।