Post – 2016-09-20

यदि तुम्‍हें लगे कि ‘भविष्‍य का रास्‍ता इतिहास से हो कर गुजरता है’ एक वाग्‍वृत्ति है तो देखो, आधुनिक विज्ञान की नवीनतम खोजों का आलोक उस विश्‍वब्रह्मांड के आदि और विकास की पहेली को समझने के प्रयत्‍नों से मिल रहा है और इस ऊहापोह से हमारे चिन्‍तक ऋग्‍वेद के समय में गुजर रहे थे – नासदीय सूक्‍त। यह नहीं कहूंगा कि उनकी सोच आज की खोज के कितना निकट है, परन्‍तु मैं अपनी कृतियों में कई बार कई तरह से यह प्रमाणित कर चुका हूं कि ऋग्‍वेद के ओजस्‍वी दौर में भारत जिस ऊंचाई पर पहुंच चुका था उस तक फिर कभी नहीं पहुंचा और इसका कारण हमारा वर्णविभाजन और योग्‍यताओं और अभिरुचियों का सीमांकन और उससे बाहर की प्रतिभाओं के योगदान का निषेध था। इसलिए यदि भारत को पुन: अपने उत्‍कर्ष पर पहुंचना है तो सभी को इस दिशा में प्राणपण से अवर्ण समाज के निर्माण के लिए प्रयत्‍न करना चाहिए और जो ऐसा किसी कारण से न कर सके उसे राष्‍ट्रनिष्‍ठा से शून्‍य और आज का अन्‍त्‍यज मानना चाहिए। इसमें ऐसे दलित भी आ सकते हैं जो तात्‍कालिक और तुच्‍छ लाभ के लिए वर्णवाद को जारी रखना चाहते हैं और अपने ही समाज के वंचितों और पिछड़ों से विश्‍वासघात करते हैं साथ ही पुरातनपंन्‍थी ब्राह्मण भी जो अपने खोखले और स्‍वपोषित दंभ के कारण इसके महत्‍व को समझ नहीं पाते। दलित, अस्‍पृश्‍य और ब्राह्मण कभी एक दूसरे के इतने हमराज, हमदम और हमसुखन कभी न रहे होंगे जितने आज हैं। जो इसे नहीं समझता वह भारतीय यथार्थ और यथार्थवाद को नहीं समझ सकता पर बुद्धिजीवी का हंटर फिर भी पकड़े रहेगा।