संचार भी हथियार है: समस्या की पहचान- 2
क्या हम हितबद्ध लोगों के अपने स्वार्थ के विरुद्ध खड़े हो कर उनको परास्त कर सकते हैं। यहॉं हम हितबद्धता के उन रूपों को छोड़ दें जिनको हम नैतिक मूल्यों या दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण दूसरे को अपनी मान्यता का कायल बनाना चाहते हैं, जैसे आपकी लड़की या लड़के के आपकी मान्यता से भिन्न प्रेमप्रसंग के मामले में आता है। यहाँ दोनों के पास अपना तर्क और औचित्य होता है और इसमें जीत अक्सर नई पीढ़ी की होती है, और कुछ मामलों उसमें ‘समझ’ भी पैदा हो जाती है और वह ‘सही’ रास्ते पर आ जाते हैं। यहाँ हम उस स्थिति की बात कर रहे हैं जिसमें एक व्यक्ति जानता तो है कि वह गलत कर रहा है, कम से कम ठीक तो नहीं ही कर रहा है, और इससे प्रभावित लोग खिन्न अनुभव कर रहे हैं फिर भी वह इसे तब तक छोड़ना नहीं चाहता जब तक इसके लिए बाध्य न कर दिया जाय। यह बाध्यता ऐसी हो जिससे वह भी सहमत हो जाए कि जो हुआ वह ठीक ही हुआ है और आगे उसकी भूमिका उसको विफल करने की न हो ।
यह विचार को नैतिक सहभागिता के स्तर पर पहुँचाने की समस्या है। मैं इसे जीवन में लगातार प्रयोग करता रहा हूँ और इसका इतना लाभ मिला है जो चालाकी करने वालों को भी नहीं मिलता। उदाहरण मैं इस पार्क का ले रहा हूँ परन्तु अकेले उन विकारों को दूर करने के साहस के पीछे मेरा पुराना अनुभव था। दूसरों को साथ खड़ा रखने के प्रयत्न के पीछे मेरी आकांक्षा इसे लोकतान्त्रिक बनाए रखने की थी, क्योंकि इससे सशक्त आज तक कोई दूसरा तन्त्र नहीं। इसकी बुनियाद ही नैतिकता, समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व पर है। यह दूसरी बात है कि नैतिकता या औचित्य को फ्रांसीसी नारे में शामिल नहीं किया गया इसलिए हम इसे भूल जाया करते हैं।
हमारे सामने तीन हितबद्ध कोटियॉं थीं। वे बच्चे जिनको खेल से नहीं, ऊधम मचाते हुए अपना समय थ्रिल में गुजारना था। वास्तव में ये दल्लूपुरा के उन परिवारों के बच्चे नहीं थे जो यहॉं की जमीन पर अपना खयाली कब्जा छोड़ना नहीं चाहते थे। उनकी अलग समस्या थी और अलग से निपटायी जानी थी। ये लड़के सामान्यत: उन परिवारों के थे जो पढ़ाई लिखाई में रुचि न ले पाने, या शिक्षा के माध्यम के कारण यह सोच बैठे थे कि वे कुछ भी कर लें मुकाबले में ठहर नहीं सकते। उनका कोई भविष्य नहीं है इसलिए वे अपनी किशोर वय काे मौजमस्ती का एकमात्र दौर मान कर खेल में भी कोई भविष्य न देख कर, हुड़दंग मचाते है, परन्तु सभी दृष्टियों से लक्ष्यहीन हैं।
मुझे इनके विषय में दृढ़ता अपनाने के साथ एक नैितक अन्तर्द्वन्द्व से गुजरना पड़ा । ये हमारे ही दरबानो, ड्राइवरों, घरों में मदद करने वाली महिलाओं के बच्चे हैं, जिनके भविष्य को हमारी शिक्षाप्रणाली ने बन्द कर रखा है, जिनको उल्लास और आत्मविश्वास का कोई अवसर उनकी जिन्दगी देने वाली नहीं है, क्या हमें जिनके पास औचित्य के विरुद्ध बहुत कुछ है, इन्हें इस सुख से वंचित करने का अधिकार है ? स्वार्थ हो या दर्शन, मुझे ऐसे अवसरों पर बीए के समय से ही मेरे जीवनादर्श कांट और उनके सिद्धान्त याद आ जाते । गीता की इस उलझन का कि क्या करें क्या न करें इस पर समझदार लोग भी भ्रमित हो जाते हैं – किं कर्मं किं अकर्मेति कवय: अपि अत्र मोहिता: – इसके दो जवाब मुझे सुझते थे, कांट का कि जिस क्रिया को सर्वसुलभ न बनाया जा सके वह अनैतिक है। अर्थात् यदि इसी आर्थिक और सामाजिक स्तर के सभी बच्चे इसका लाभ नहीं उठा सकते तो इसका औचित्य नहीं। और इसका भारतीय पाठ ‘महाजना: येन गत: स पन्था’ महान लोगों या आदर्श लोगों के आचरण के अनुरूप हो तो इस का पालन किया जा सकता है। यह दोनों कसौटियों पर गलत सिद्ध हाेता था और हमारे लिए समस्या तो था ही इसलिए इससे निपटना था।
दूसरी समस्या कुत्ता पालकों से निपटने की थी। वे ट्रैक को चलने के योग्य रहने ही नहीं देते थे। पर वे अपने कुत्तों को घुमाने कहॉं ले जायँ ? समस्या उनको समझाने की थी कि पार्क कुत्तों के लिए नहीं आदमियों के लिए होते हैं। मानता मैं तब भी था कि सोहबत के असर से बचना आसान नहीं और जो कुत्ता पालते हैं उनपर कुत्तों के स्वभाव का असर होगा ही, इसलिए इनको समझाते समय कुत्तों से अधिक उनके व्यवहार से ही डर लगता था।
और तीसरी समस्या, पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति से प्रेरित फूल के पौधों और झाडि़यों से ऑंचल भर ही नहीं टोकरी भर फूल उतारने के प्रयत्न में उनकी डालियॉं झुकाने अौर झुकाने के साथ उन्हें तोड़ देने वालो की थी। इनमें उत्साह महिलाओं का ही अधिक होता है और उन्हें समझाने के बारे में जो कहावतें है मैं उन्हें दुहराए बिना भी सही मानता हूँ और इसके लिए यदि महिला आयोग बुलाए तो उसके सामने अपने बयान देने के बाद, उसकी सन्तुष्टि न होने पर दंड झेलने को तैयार हूँ पर यह टिप्पणी वापस लेने के लिए तैयार नहीं। मणिका माहिनी के यह चीखने के बाद भी कि यह क्या कर दिया आपने, इसके लिए तो हम तैयार नहीं थे। यह लिंगभेद और वह भी आपके द्वारा जिन्हें हम नारी सरोकारों का समर्थक मानते आए थे। बालहठ राजहठ त्रियाहठ में समानता है, यह तो मुझे फूल की टोकरियॉं भरने के बाद भी टहनियों को झुकाने वाली महिलाओं और समझाने के दायरे से ऊपर पड़ने वाली महिलाओं के माध्यम से ही जाना।
इन सभी पर न तो एक तरीका काम कर सकता था न किया। क्या किया और कितना सफल हुआ यह कल बताएंगे।yy