Post – 2016-09-13

आनेस्‍टी इज द बेस्‍ट पालिसी – प्रयोग 2

जिन लड़कों को दूसरे शैतान समझते थे, सोचते थे वे मारपीट कर देंगे, जो आपस में लड़ते और गाली गलौज करते रहते थे, उनके बारे में मेरा यह खयाल था कि ये बच्चे हैं जिनको सही परिवेश नहीं मिली, जिनका समुचित विकास नहीं हुआ है और समझ की कमी के कारण शैतानी करते हैं, परन्तु़ शैतान नहीं हैं। उनके डर से हमारी सोसायटियों के बच्‍चे मैदान में नहीं आते। यदि आते तो वे मारपीट कर, गाली दे कर भगा देते। बच्‍चे ही नहीं बड़े भी उनसे डरते थे यह तो हम देख ही चुके हैं। मुझे विश्‍वास था कि टइनको सही राह पर लाया जा सकता है। मैं उनके पास पहुंच नहीं सकता था। एक तो वे बिखरे हुए होते, दूसरे आप उनमें से जिसके पास पहुंचते वह बहस करने लगता और आप चल कर उसके पास पहुंचे थे, इसलिए आपका सिरा दबा हुआ होता।

मैं उनको आदेश के स्‍वर में आवाज देता, ”चलो इधर, इधर आआे। नहीं एक दो नहीं, सभी के सभी, उनको भी बुलाओ जो उधर ठिठके हुए हैं ।” वे चले आते।

मेरे पास आने के साथ ही उनके उस तनाव में कमी आ जाती जो उस दशा में होती जब मैं स्वयं उनके पास गया होता। मैं पूछता, तुम लोग पढ़े लिखे हो। मुसीबत यह कि उनमें आधे अनपढ़ या पढ़ना लिखना छोड़ चुके थे और दूसरे ऐसे जिनका पढ़ने में मन नहीं लगता। कुछ तेज भी निकलते। कम से कम बात चीत में तेज। अब एक दूसरी समस्या विभिन्न स्तरों, संस्कारों और योग्य़ताओं वाले बच्चों के साथ ऐसा संवाद जो इस बात का कुछ अनुमान करके आए हैं कि आप उनको बरजने वाले हैं इसलिए आधे अकड़े, आधे सिकुड़े और असरानी गणित से आधे सहमे हुए। वार्तालाप की एक कड़ी यह रही:

”तुम लोग जानते हो यहॉं लोग शान्ति से बैठने और थोड़ी ताजी हवा के लिए आते हैं और तुम लोगों के शाेर, धूल धक्‍कड़ से परेशान होते हैं, एक दो बार तुम्‍हारी गेंद भी लग चुकी है। उन्‍हें यह हुड़दंग पसन्‍द नहीं, फिर भी कोई बोलता नहीं।”

इसका क्‍या जवाब हो सकता था, उन्‍होंने सिर झुका लिए । एक दो यह कयास लगाते हुए देखने लगे कि यह भूमिका है किस बात की है।

”वे इसलिए नहीं बोलते हैं कि उनकी हिम्‍मत नहीं होती है। वे सोचते हैं तुम लोग गुंडे-बदमाश हो। मेरे साथ भी कोई आ कर तुमसे बात करने को तैयार नहीं। मैंने कहा, ये बच्‍चे उतने ही अच्‍छे हैं जितने आपके अपने बच्‍चे। और इसी विश्‍वास से मैं अकेले तुमको बुला कर बात कर रहा हूँ और जैसे गलती करने या शरारत करने पर अपने बच्‍चों को डॉंटता हूँ उसी तरह तुमको डॉंटने भी आया हूँ और रोकने भी। तुम यह खेल बंद करो।”

आप समझ सकते हैं इसकी क्‍या प्रतिक्रिया होती थी। उसमें सबसे अधिक घबराहट उन बच्‍चों को होती जो कुछ सयाने होते और दूसरों पर रोब दाब रखते थे।

”अंकल, बस थोड़ा सा खेल लें । बस पॉंच मिनट।” वे ही रिरियाते।

”नहीं, एक मिनट भी नहीं। अगर कोई चीज गलत है तो पॉंच मिनट भी क्‍यों। बिल्‍कुल बन्‍द ।”

आप मानेंगे विश्‍वास कायम रखना और विश्‍वास पैदा करना बल प्रयोग से अधिक कारगर हथियार है ? मानेंगे कि आनेस्‍टी इज द बेस्‍ट पालिसी मुहावरा केवल शब्‍दों का खेल नहीं है, अनुभव का निचोड़ है । परन्‍तु इस पालिसी का एक अगला मंत्र यह कि आप सब कुछ बक न दें । किन्‍हीं परिस्थितियों में दूसरा व्‍यक्ति अभी या देर से जो कुछ जान सकता, या अनुमान कर सकता या जिसका उसे तनिक भी सन्‍देह हो सकता है, उसे छिपाइये नहीं, स्‍वयं कह दीजिए । प्रथम दृष्टि में वह आपके लिए अहितकर प्रतीत हो तो भी। इसके बाद जो आत्‍मविश्‍वास का सेतु बनेगा उससे होने वाला लाभ इससे कई गुना होगा।

दूसरे, दूसरों की भलमनसाहत पर किताबी ढंग से मत सोचिए कि किसी को अच्‍छा समझेंगे तो दूसरा आपके साथ अच्‍छा ही व्‍यवहार करेगा। यह भोलापन आपको खतरे में डाल सकता है। लोग कितने अच्‍छे होते हैं और किन स्थितियों में अच्‍छे लोग बुरे हो जाते हैं, और कितनी चालाकी से एक दुष्‍ट आदमी अच्‍छे होने का फरेब रच सकता है यह जीवन के अनुभवों से हम सभी जानते हैं। जिस आधार पर दूसरे उन बच्‍चों को दुष्‍ट, झगड़ालू, जंगली समझ रहे थे वह उसके घरेलू परिवेश का हिस्‍सा था। उसी में वे पूरे सुकून के साथ रह सकते हैं। परन्‍तु परिवेश बदल दीजिए तो उनके आचरण में बदलाव अवश्‍यंभावी है। मेरी नजर में कोई समुदाय, कोई जाति, किसी धर्म के लोग जिनको सतही सूचनाओं, अफवाहों और अपने एक आध बार के बुरे अनुभवों के कारण हम भी दुष्‍ट मान लेते हैं, वे उतने ही अच्‍छे या बुरे होते हैं जितने वे जिनके बारे में हमारे खयाल बहुत अच्‍छे होते हैं। इसके पीछे किसी दार्शनिक का सूत्र नहीं, यह अनुभव है, कि यदि दो चार उपद्रवी तत्‍व हों तो पूरे इलाके का जीना हराम हो जाता है, यदि ये सारे लोग दुष्‍ट हों तो समाज एक पल भी चल नहीं सकता। चल रहा है यही इस बात का प्रमाण है कि हमारी पुरानी सोच में कहीं गड़बड़ है और इसी सोच का परिणाम था कि जहां वे दल बल के साथ, संख्‍या में अधिक होने पर भी जाने से डरते थे, वहाँ मैं अकेले उनकी सामूहिक ताकत के सामने खड़ा हो कर अपनी बात मनवा सकता था।

एक और मंत्र बता दूं। सबको एक साथ जुटा लेने के पीछे मेरी एक चाल भी थी। अकेला आदमी अधिक मीनमेख निकालता है, बहस करता है, भीड़ बन जाने के बाद उसमें पैसिविटी बढ़ जाती है। प्रत्‍येक इस प्रतीक्षा में रहता है कि कोई दूसरा कुछ कहेगा, फिर यह सोच कर चुप रह जाता है कि जब दूसरा कोई नहीं बोलता तो मैं ही क्‍यों बोलूँ। इसलिए यदि आपकी बात तर्क संगत लगती है तो वे सभी चुपचाप मान लेते हैं। परन्‍तु यदि आपसे तनिक भी चूक हुई और किसी में भी उत्‍तेजना पैदा हुई तो वही पैसिविटी उन्‍मत्‍त व्‍यवहार में बदल सकती है और यदि आप बल प्रयोग पर आमादा है तो अपना सिर फोड़वा कर ही वापस आएंगे जैसा कि इससे पहले हुआ था।

परन्‍तु मैंने जो यह विवरण दिया है वह विस्‍तार से बचने के लिए एक संक्षेप है ।इस समस्‍या का समाधान न उतना आसान था न ही किसी भी अन्‍य समस्‍या का समाधान उतना आसान होता जितना हमारे विवरण में आया है। फिर जिस जत्‍थे को समझा चुका खिलाडि़यों में केवल वही नहीं होता। एक ही नुस्‍खा हर बार काम नहीं करता। मेरे सामने जो निरुत्‍तर हो जाते वे मन से ऐसा मान ही नहीं लेते। मेरे आंख से ओझल होते ही वे फिर लौट आते और कई बार मुझे दुबारा आना पड़ता। बात केवल उन उजड्ड लड़कों तक सीमित न थी। उनके विदा होन के बाद जो उनके रहते खेल के लिए आने का साहस नहीं करते थे उनका शौक जाग जाता। वे पढ़ लिखे और जब तक सुशिक्षित भी होते ।

मैं कहता, तुम गलत काम कर रहे हो, यह खेलने की जगह नहीं है। वे बताते पार्क में नहीं खेलेंगे तो कहॉं खेलेंगे। मैं बताता, खेल का मैदान अमुक जगह है। यह पार्क है। खेल के मैदान में पेड़ पौधे नहीं होते जिस पर गेंद या शटल जा कर टंग जाय। बेंच या ऐसा कोई अवरोध नहीं होता जिससे भागते समय टक्कतर लगे। और फिर गाडी पार्क करने की जगह का हवाला दे कर समझाता कि यह ठहरने या बैठने की जगह होती है। उनसे ही पार्क का मतलब पूछता। वे उलझन में पड़ते तो बताता कि पार्क पर्च शब्द से निकला है। चिडि़या जब थक कर किसी डाल या झाड़ी पर आराम से बैठती है उसे पर्च कहते हैं। यह सिर्फ बैठने की जगह है, दौड़ लगाने, टहलने की जगह है, पर गेंद खेलने की जगह नहीं जिससे चलते फिरते लोगों को चोट लगे।

एक आध बार पुलिस की भी मदद लेनी पड़ी, पर वह भी बेकार। पुलिस को आते देख वे भाग खड़े होते, उसके चले जाने के बाद फिर इकट्ठा हो जाते। पर मैं अपने प्रयत्न में लगा रहा और वे मित्र जो इस हुडदंग से चिन्तित रहते थे, उन्हें अब भी मेरे साथ खड़े होने में संकोच होता। अब समस्‍या दूसरी थी। साथ खड़े होने का मतलब मेरा वर्चस्‍व स्‍वीकार करना। कुछ को वातावरण में इस सुधार से भी कुछ शिकायत बनी रहती, लगता सारा श्रेय इस आदमी को मिल रहा है, जब कि मुझे मिलने को एक ही चीज मिल सकती थी, उन बच्‍चों की बददुआएं और गालियां जिनको समझा बुझा कर भगा देता था या जो बाद में मेरे पार्क में पहुंचते ही बिना मेरे कहे ही खिसकने लगते थे।

लुका छिपी का यह खेल लंबे समय तक चलता रहा। जब तक इस पर रोक नहीं लगती तब तक खुली जगह को धूल धक्‍कड़ से बचाया नहीं जा सकता था । इसके लिए मुझ उसके बीच में एक वृत्‍ताकार घेरे में फाइकस के बारह पौधे लगवाने पड़े ।