Post – 2016-09-15

न विश्‍वसेत अविश्‍वस्‍ते
अर्थात् कुत्‍तोंं की संगत में रहने वालों पर भरोसा न करें
प्रयोग – 4

उपेक्षित पड़े पार्क की केवल कुत्‍ता पालने वाले उपेक्षा नहीं करते। उनकी दिलचस्‍पी के कारण ऐसे छोटे पार्क का, जिसका एक पूरा चक्‍कर लगाने के लिए 450 डग ही काफी होते है, नजारा कुछ ऐसा हो जाता है जिसके रास्‍ते पर या तो कुत्‍ते आराम से चल सकते है या उनके मालिक जो कुत्‍ता प्‍लस आदमशक्‍ल प्राणी होते हैं। आप कुत्‍तों की भाषा नहीं जानते तो कुत्‍ता पालने वालों से बात नहीं कर सकते। कुत्‍तों की संगत में रहते रहते वे इन्‍सानों की भाषा भूल चुके होते हैं । कुत्‍तों की भाषा इस हद तक समझ लेते हैं कि यदि कुत्‍ता उनकी गोद में सर रख कर गर्दन ऊपर किए उनकी ऑंखों में ऑंखें डाल दे तो वे तुरत समझ जाते है यह गुदगुदी करने को कह रहा है और उसकी उंगलियॉं उसके गले पेट, पीठ पर बड़ी नजाकत से उसे स्पर्शसुख देते हुए घूमने लगती है और मात्र इस बोध से कि उसे स्‍पर्श सुख अनुभव हो रहा है ये स्‍वयं स्‍पर्शसुख अनुभव करने लगते हैं और यदि अपने परिवार के साथ बैठे हों तो पूरे परिवार को स्‍पर्शसुख की अनुभूति होने लगती है। आप यह नहीं समझ सकते कि कुत्‍ता हंसता भी है, वे समझते हैं, क्‍योंकि कुत्‍ते के दीनता में दॉंत चियारने और पुलकित भाव से हॅसने की सूक्ष्‍म भेदरेखा को वे लक्ष्‍य कर लेते हैं, दोनों अवस्‍थाओं में उनकी पुतलियों की धुंध और चमक में भी जाे अन्‍तर होता है, उसे वे जानते हैं। हम नहीं जान पाते। गरज कि कुत्‍तों की सोहबत में रहने के कारण कुत्‍ते की आत्‍मा उनमें प्रवेश कर जाती है, जिसे वह नहीं समझ सकता जो मनुष्‍य है और मनुष्‍यता से कोई पाशविक समझौता नहीं करना चाहता।

समस्‍या हमारी यह थी कि हम किससे बात करें, कुत्‍तों से या उनके मालिकों से। कुत्‍तों की भाषा जानते होते तो उन्‍हें समझा लेते। उनसे कहते अजीजों, तुम जो यह जान चुके हो कि यह तुम्‍हारे भी घूमने टहलने की जगह है और इस पर तुम्‍हारा भी हक है । उस पर हम कुछ नहीं कहते। जब तक तुम्‍हारे साथ एक आदमी है, तुम्‍हारा सोचना ठीक हो सकता है। आओ, पर घर से फारिग हो कर तो आया करो। या यह नहीं कर सकते तो तब तक जब्‍त तो रखो जब तक तुम्‍हारा मालिक थक कर बैठ नहीं जाता और उसके बैठेने के बाद उसकी गोद में बैठ कर तेरी तुझको सौंपता गाते हुए जो करने के इरादे से लाए गए थे वह कर दिया करो। मेरे आत्‍मविश्‍वास का स्‍तर पिछले अनुभवों से इतना बढ़ा हुआ था कि मुझे पूरा विश्‍वास था कि कुत्‍ते उसी तरह मेरी बात मान लेते जैसे वे बच्‍चे मेरे समझाने से मान गए थे, जब कि उनके अभिभावकों को समझाने में मैं नाकाम रहा था।

विवशता थी कि हमें उनसे बात करनी थी जो मनुष्‍यों की भाषा ही नहीं, कभी कभी कई भाषाऍं जानते थे परन्‍तु कुत्‍तो की सोहबत में स्‍वभाषा की जगह श्‍वभाषा में बात करना अधिक पसन्‍द करते थे। श्‍वभाषी संख्‍या में नगण्‍य होने के बाद भी पूरे स्‍वभाषी समाज को इस हद तक आतंकित कर चुके थे कि वह न उनके सामने आने का साहस नहीं कर सकता था।

यदि श्‍वभाषा के साथ स्‍वभाषा को भी चलने दिया जाय तो भी श्‍वभाषा के आतंक से स्‍वभाषा उठ ही न पाएगी, चलने की तो बात ही अलग। साे, यह देश्‍ा श्‍वभाषियों के नियन्‍त्रण में है, स्‍वभाषियों को उन्‍होंने इतनी ही रियायत दे रखी है कि साल में एक दिन स्‍वभाषा दिवस मना लो या अधिक से अधिक स्‍वभाषा पखवाड़ा जिसमें तुम श्‍वभाषियों को गालियॉं देने की छूट तो पा सकते हो, परन्‍तु उन दिनों पर भी पूरे तन्‍त्र को श्‍वभाषा ही सँभाले रहेगी।

श्‍वभाषा का सीधा संबंध हैसियत से है। जो कुत्‍ता पालते हैं, कुत्‍ता लेकर चलते हैं वे अपनी हैसियत कुत्‍ते से ही ऑंकते हैं, गरज कि किसका कुत्‍ता कितना दुर्लभ, कितना मँहगा है, और उसके रख रखाव पर कितना खर्च करना पड़ता है, उसकी सेवा के लिए कितने आदमी लगे हैं। इसलिए श्‍वभाषियों के बीच भी हैसियत का अन्‍तर बना रहता है, परन्‍तु जिसने कुत्‍ता पाला ही नहीं उसे वे अपने आगे इतना तुच्‍छ समझते हैं कि वह कुछ कहे तो वे सुनते तक नहीं, यह आभास देना तक अपनी तौहीन समझते हैं कि उसकी आवाज उनके कानों तक पहुँच गई है। इन्‍हें समझाने की समस्‍या आसान नहीं थी, परन्‍तु इस बार दो तीन लोगों ने इससे निबटने में सहयोग किया अत: उनके प्रवेश का आभास मिलते ही उनके सामने उपस्थित हो कर करबद्ध हो जाते। महानुभाव यह पार्क आदमियों के लिए है। उन्‍हें कुत्‍तों से डर लगता है। कुत्‍ते जाे कुछ कर गुजरते हैं उससे रास्‍ता चलना मुश्किल हो जाता है । वे समझाते, नहीं, यह काटेगा नहीं।

काटेगा तो नहीं लेकिन उनके डर को तो दूर नहीं करेगा। यहां पहुंच कर यह कुछ भी करेगा, वह पार्क के हित में तो नहीं ही होगा। धीरे धीरे उनकी भी समझ में आ गया परन्‍तु सबसे विलंब से समझ में आया उस सज्‍जन के जो सीबीआई में किसी पद पर थे और जिन्‍होंने जुड़वॉं कुत्‍ते पाल रखे थे । आश्‍चर्य यह कि उन पर भी एक वाक्‍य काम कर गया, ”यदि आप भी नियम कायदे का ध्‍यान नहीं रखेंगे तो अपने विभाग में आप क्‍या करते होंगे।”

इतनी बड़ी सफलता, पर सफल हुए क्‍या ! टहलने के लिए आने वाले एक दंपति ऐसे जो स्‍वभाव से खासे शालीन, किसी से बात भी नहीं करते, उनकी पत्‍नी उठतीं बाहर चली आतीं और आवारा कुत्‍तों को दूध पिलातीं। फिर उनके पूरे दल को इतनी पसन्‍द आने लगीं कि वे उनको घेरे हुए पार्क तक चले आते और यहां भी कुछ बिस्किट वगैरह मिल जाता। अब दूध पिलाने का काम भी यहीं होने लगा। जीवदया का यह प्रसंग संभवत: किसी मनौती से जुड़ा था परन्‍तु इसके बाद जो आवारा कुत्‍तों का प्रवेश हुआ तो वे तो समझाने पर मान गये और फिर बाहर जा कर ही उन्‍हें दूध बिस्‍कट देतीं, पर उनका अधिकार पूरे पार्क पर हो गया। उनको बाहर निकालने का कोई उपाय हमारे पास भी नहीं रह गया। गनीमत इन कुत्‍तों के साथ यही कि ये कभी रास्‍ते पर विसर्जन नहीं करते, इसके लिए उन्‍हें गन्‍दी जगह ही पसन्‍द है। रास्‍ते पर दौड़ भाग भी नहीं लगाते । किसी को इनसे डर भी नहीं लगता। इनकी संख्‍या में कमी तब आई जब हमारे फुटपाथ पर एक आदमी ने पर्दा लगा कर सामने लिखा ‘चाइनीज रेस्‍त्रॉं।” कुत्‍तों की संख्‍या घटने लगी और अब वे नहीं दिखाई देते। यदि आप भी इस समस्‍या से परेशान हैं तो अपने इलाके में चाइनीज रेस्‍त्रां लिखवा कर टॉंग दीजिए । इस नाम में ही कुछ ऐसी विशेषता है कि कुत्‍तों की संख्‍या कम हो जाती है ।