Post – 2016-09-16

पत्रं पुष्‍पं फलं चैव यो उद्याने विलुंचति। तं अहं सर्वपेभ्‍यो मोक्षयिष्‍यामि मा शुच ।
प्रयोग – पांच

हमें जिस संस्‍कृति पर गर्व है उसका सारसूत्र यह है कि हम जिसे प्‍यार करते हैं उसे लोभ और मूढ़ता के कारण नष्‍ट कर देते हैं। यह नियम सार्वजनिक क्षेत्र में ही काम करता है। हमसे पहले यह किसी दूसरे के हाथ न लग जाय इस चिन्‍ता के कारण इस सद्कार्य में बहुत तेजी दिखानी होती है । यही कारण है जब तक फौजी पहरे का इन्‍तजाम न हो, नीम का कोई पौदा उग तो सकता है पर पेड़ बनने का सौभाग्‍य नहीं पा सकता। पार्को में फूल के पौदे लगे हो पर फूल नजर नहीं आगए तो समझिये यहॉं हिन्‍दू नहीं रहते, या रहते हैं तो संस्‍कृति-च्‍युत हो गए हैं।

पानी का प्रबन्‍ध कई उपायों से करना पड़ा। सोच में बदलाव से क्‍या नहीं होता। मैंने सोच लिया कि यह पार्क तो मेरी सहन जैसा है तो उस पर कुछ पैसा लगाना अपनी चीज पर लगाने जैसा लगता, पर ध्‍यान यह रखना होता कि यह किसी को कब्‍जा जमाने जैसा न लगे। जो पौधे सूखने के कगार पर थे उनको बचाने के लिए स्‍वयं पानी भर कर ले जाता। पार्क के गेट पर बैठने वाले गार्ड को एक बाल्‍टी पानी पांच रूपये के हिसाब से पर किसी को पता न चले कि मेरे कहने से ऐसा किया जा रहा है। और दूसरे भी उपाय किए जिनका उल्‍लेख आत्‍मरति होगा। फिर माली की नियुक्ति भी हो गई क्‍योंकि डीडीए से एमसीडी को हस्‍तान्‍तरण की प्रक्रिया इस बीच पूरी हो गई थी। पंप भी चल पड़ा।

पौधों में जान आई तो फूल के पौधे और फूल की झाडियों ने फूल कर दिखा दिया कि हम मरी नहीं थी

इस‍की सूचना किसी तरह हिन्‍दू देवताओं तक पहुँची तो उन्‍होंने पहले प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के लिए कृतसंकल्‍प राक्षसों का संहार करने की अपनी भूमिका की याद करते हुए पहले तो अवतार लेने की सोची
:
यदा यदा च पार्कस्‍य विकास: भवति भारत ।
फुल्‍लनं च प्रसूनानां तदात्‍मानं सृजाम्‍यहम् ।।

फिर दुबारा सोचने पर उन्‍हें लगा, अवतार की झंझट में क्‍यों पड़ो। इतनी सारी मूरतें, इतने सारे मन्दिर, इतने सार भक्‍त। इनको जगा दो, उद्यान के सत्‍यानाश के लिए ये ही पर्याप्‍त हैं।

अब क्‍या था। इतना सारा सौन्‍दर्य अपने ठीक पड़ोस मे सहन न कर पाने के कारण लोगों के घरों में बैठे भगवान फूल मांगने लगे, फल मिले तो वह भी लाना और कुछ न मिले तो पत्तियॉं तक नोच लाना।

भक्‍तजन और जन‍नियॉं, उनकी सन्‍ततियां सभी पोलीथिन की पन्नियां और थैलियां ले कर इस इरादे से लेकर आने लगे कि पार्क को भले अपने छोटे से फ्लैट में रखने की जगह न हो पर फूल और खुशबू तो अट ही सकते हैं। बटवारा यह कि पार्क का भूभाग उसमें घूमने टहलने वालों का, और गंध भाग हमारा टहलने के समय को भजगोविन्‍दं भजगोविन्‍दं पर समर्पित करने वालों का।

मुझे फूल तोड़ने वालों से उससे अधिक चिढ़ है जितनी कुत्‍ता पालने वालों से । पुष्‍पलुंचक मुझे मानवता के भी शत्रु लगते हैं और सौन्‍दर्य, सुरुचि और नैतिक विवेक से भी वंचित ।

फूल देखते ही यह आकर्षण तो स्‍वाभाविक है कि उसे अधिक निकट से देखा जाय – ज्‍यों ज्‍याें निहारिए नेरे ह्वै नैन‍नि त्‍यों त्‍यों खरी निखरी सी निकाई – और इसकी गंध को अपने प्राणों में भर लिया जाय। अगर आप विश्‍वास कर सकें तो इस पर अज्ञेय जी की एक कविता भी है जो इस समय आधी याद और आधी याद से परे रह गई है। सौन्‍दर्य को आत्‍मसात् करना सत्‍य और आनन्‍द दोनों को आत्‍मसात् करने का पर्याय है। आ तू आ, मेरी अनगढ़ता को ढक ले और मेरे रूप को अपने योग ने निखार दे।

फूलों को आभरण बनाना और फिर टिकाऊ आनम्‍य धातुओं और फिर मूल्यवान और चमकदार धातुओं से फूल बना कर अपने को सजाया जाय यही तो अलंकरण का इतिहास है। काया को कांचन या रजत पुष्‍पगुच्‍छों से सजाते हुए पुष्पित वृक्ष में बदल कर इतराना इसी पर तो इतनी नाजुक इबारतें लिखी गई हैं कि साहित्‍य जिन्‍दगी की जरूरत बन जाता है। इस निकटता के साथ तो हमारी सौन्‍दर्यचेतना जुड़ी है।

परन्‍तु भगवान के नाम पर उस सौंदर्य का सत्‍यानाश करने वाले जिस तरह फूल तोड़ते है और जिस तरह उसे थैलों में भरते हैं उसमें सौन्‍दर्य चेतना का स्‍पर्श तक नहीं होता। केवल एक भाव प्रबल कि मुफ्त का है अधिक से अधिक नोच लो ।
फूल नोचे नहीं जाते, लोढ़े जाते हैं। लोढ़े से आपको सिलबट्टे की याद आएगी, पर सिलबट्टे को यह नाम इसके उस वर्तुल वेलनाकार के कारण मिला है। आशय है स्‍पर्शमात्र से या अल्‍पतम आयास से उसका अपने दंड भाग से अलग हो कर लुढ़कते हुए आपके हाथ में आ जाना। लढिया और लढ़ा इसी अल्‍पतम प्रयास से चक्रगति से आगे बढ़ने के कारण कही जाती है जौर जहां रलयोरभेद: की छूट मिलती है यह लढ़ा रेढ़ा और रेढू या रोलर बन जाता है।

अनायास, छूटे ही लुढ़क कर आपकी हथेली में आ गिरना पूर्णविकच फूलों के मामले में ही संभव है जिनका पुष्‍पदंड से संबंध कमजोर पड़ने लगा है। जो अपना जीवन लगभग पूरा कर चुके हैं। दंड से आने वाला दूध सूखने वाला है और यदि उन्‍हें लुढ़काया न जाय तो वे स्‍वत: अपने गंधभार सहित नीचे आ गिरेंगे। यदि इसका चयन किया जाय तो सर्वोत्‍तम। फूल का अवतरण कराया जाता है, उतारा जाता है, चयन किया जाता है, लोढ़ा जाता है, उसे तोड़ा या नोचा नहीं जाता । तोड़ना और नोचना क्रूरता है। इसलिए किसी को एक दो फूलों से अधिक उतार कर जेब में या थैले में भरते देख कर मुझे बेचैनी होती है। यह मेरे उसी स्‍वभाव का हिस्‍सा है जिसे मैंने आयासपूर्वक अपनाया नहीं, किसी अज्ञात प्रक्रिया से बन गया है।

पार्क के सौन्‍दर्य को नष्‍ट करने के इरादे से तड़के भोर से ही हमला करने वाले अपने काम पर जुट गए हैं। झोलियॉं थैलियॉं लिए पौधों को झुका झुका कर फूल तोड़ रहे हैं । महिलाऍं भी, बच्‍चे भी, कुछ वृद्ध भी। कुछ अपनी सोसायटियों के शिक्षित और देखने में सुसंस्‍कृत लोग और पार्क हमारा है इस अधिकार बोध से भरे हुए और कुछ सुना है उस पार्क में फूल बहुत हैं की शाेहरत सुन कर पास पड़ोस की बस्तियों के लोग जो इससे पहले इधर रुख नहीं करते थे। अजीब असमंजस की स्थिति ।

अपने को रोक नहीं पाता, ”यह क्‍या कर रहे हैं आप?”

”फूल तोड़ रहे हैं’, कहना चाहते, ऑख फूट गई है, देखते नहीं, लेकिन उम्र का खयाल करके कहते, ”देख तो रहे हैं, फिर पूछने का मतलब?”

”ये फूल पार्क की सुन्‍दरता के लिए लगाए गए हैं, इसे उजाड़ने वालों के लिए नही।”

”फूल तो होते ही तोड़ने के लिए हैं, नहीं तोड़ेंगे तो दो दिन बाद खुद ही झर जाऍंगे।”

जी में आता कहें, ”आपको किसी न किसी दिन मरना है, यह सोच कर उससे पहले आपका गला तो नहीं उतारा जा सकता, पर इसका अनुकूल असर तो पड़ता नहीं, झगड़े का शौक हो तो बात अलग। इसलिए चिन्तित स्‍वर में कहता, ”क्‍या करेंगे इतने फूलों का।”

”भगवान को चढ़ाने के लिए । पूजा के लिए ।”

चाहता समझाऊं कि यदि भगवान सचमुच है तो वह इतना मूर्ख नहीं हो सकता है कि कहे जिसे मैंने सिरजा है उसका सत्‍यानाश करके मेरे चरणों में अर्पित कर, परन्‍तु भावुक लोग दिमाग से कोरे होते हैं, कोई लाभ न होता, कहता, ”इन वृक्षों को ही भगवान मान लीजिए । हमारे यहां तो वृक्षों को सूर्य (नीम), वासुदेव (पीपल), शिव (वट) मानने की परंपरा है ही, इन फूलों को उन्‍हें अर्पित मान कर यहीं ध्‍यान लगाइये और मन्‍त्र पढ़ कर नमस्‍कार कीजिए। मैं तो यही करता हूँ।”

वे अनसुनी कर देते ।

”पूजा के लिए तो ध्‍यान और भक्तिभाव चाहिए फूलों की क्‍या जरूरत । और फिर इतने फूलों का क्‍या करेगे। श्रद्धा के लिए तो एक दो फूल ही काफी है।”

”बड़ेे नास्तिक हैं आप। लोगों की भावना तक को नहीं समझते।”

पार्क में पांच तरह फूल थे । एक चांदनी जिसमें गन्‍ध नहीं होती और जिस फूल में गन्‍ध न हो उसे देवता को नहीं चढ़ाया जाता, परन्‍तु इसको ही सबसे अधिक झेलना पड़ता। इसकी झाडि़यां फूलों से लद जातीं। पूरी पॉंत थी इनकी । एक डेढ़ घंटे के भीतर फूल गायब और टहनियॉं तुड़ी, मुडी, झुकी हुई ।

दूसरा कनेर इसके पौधे दस बारह ही थे पर इसकी टहनियों को उछल उछल कर पकड़ते हुए नीचे लाते और उछाल की पहुंच की टहनियों पर फूल तो रह नहीं जाते, टहनियां भी टूटी, ऐंठी मिलतीं।

तीसरा कटीली चंपा इसने जो सहा वह किसी दुश्‍मन को भी न सहना पड़े।

चौथा अड़़हुुुल इसके पौधों की परिक्रमा करते हुए इसकी कलियां तक उतार ली जाती। उस पार्क के इतिहास में कलियां तो अनगिनत दीखी होंगी पर फूल एक भी नहीं।

पांचवां हरंसिंगार जिसका एक ही पौधा था परन्‍तु उसके विषय में सबको पता है कि तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाने की सोचें उससे पहले ही वह नीचे आ गिरता है, इसलिए उसे नीचे से ही चुना जा सकता है।

बेगुन बेलिया को तो कागजी फूल की नकल पर प्रकृति ने कांटे सजा कर बनाया था । कॉंटों के कारण कठिनाई होती पर उसे भी हाथ लगाने से बाज न आते।

यह केवल हमारे देश में होता है कि हम सार्वजनिक जगहों की ऐसी कोई चीज जो वहां से हटाई जा सकती हो, वह हमें पसन्‍द आ जाय तो हम उसे ले न मरे। जो ऐसा करना उचित नहीं समझते वे लोग इतने सभ्‍य हैं कि उनके सामने यह हो रहा है पर कुछ बोलते नहीं, ‘जाता है तो जाय, अपना क्‍या जाता है।’ रोकने वाले को बहुत नम्र उत्‍तर मिलेगा, ‘तुम रोकने वाले कौन होते हो, यह तुम्‍हारे बाप का है। जो चीज आपके बाप की नहीं हो सकती वह स्‍वयं सिद्धि से ही उसके बाप की हो जाती है।

यदि महाव्‍याधि हो तो आपको यह सोच कर घबराहट होती है कि किस मुर्दे को हाथ लगाऍं और किसे सड़ने दें। किसी विकार का बड़े पैमाने पर घटित होना अपना औचित्‍य स्‍वयं तलाश लेता है। समझ में नहीं आता करें क्‍या। यदि वे केवल अपनी पहुंच के भीतर के फूलों को तोड़ते तो उतनी तकलीफ न होती। वे अपनी पहुंच से बाहर के फूलों के लिए डालियों टहनियों को झुकाते और इस क्रम में उनके टूटने पर भी कोई मलाल नहीं, जल्‍दी जल्‍दी फूल तोड़ थैली के हवाले करते इससे पीड़ा होती।

चंपा की तो तो जैसा कहा, शामत थी। चंपा के दस पौधे परन्‍तु कोई ऐसा नहीं जिसका कई बार अंगभंग न हुआ हो और उसकी शक्‍ल न बिगड़ी हो।

पौधों की टहनियाँ झुकाने पर वे यदि टूटती नहीं भी थींं तो उनके झुकने से रास्‍ता भी रुकता जिसके लिए उन्‍हें काटना ही पड़ता।

इस समय तक दो तीन लोगों की रुचि भी पार्क के रख रखाव में हो गई थी और रोकने बरजने में उनका भी सहयोग मिलने लगा था। पर किसी के लिए एेसे प्रसून प्रेमियों को समझाना आसान नहीं था। फिर भी हमने अपना प्रयत्‍न आरंभ किया। उनमें से एक के पास पहुंचो तो उनका तर्क ‘आप दूसरे किसी को तो रोकते नहीं।’

”सबको एक साथ तो रोका नहीं जा सकता । आप भी चलिए, हम दोनों मिल कर उनको रोकते हैं।”

”मैं क्‍या रोकूंगा, मैं क्‍या आप की तरह नास्तिक हूँ। फूल तो होते ही पूजा के लिए हैं।”

”जिस चीज को आपने पैदा नहीं किया, जो सार्वजनिक है, जो पार्क की सुन्‍दरता और वातावरण को सुगन्धित बनाए रखने के लिए है, उसे इस तरह उतारना तो चोरी है।”

”भगवान तो खुद ही माखनचोर हैं।”

त‍र्क करने का असर नहीं पड़ता, उल्‍टे हठ बढ़ता । अब हमने कठोरता का रास्‍ता अपनाया। पर केवल उन मामलों में जिनमें फूलों से झोलियॉं भरने की सनक देखने में आती।” उनके पास जा कर खड़े हो जाते, उनको वितृष्‍णा से देखते और इस पर भी हा‍थ न रुकता तो, कठोर निर्णायक स्‍वर, ‘निकलो यहां से । भागो।’ उनके हाथ रुक जाते और वे खिसक लेते। मेरे पार्क में कहीं किसी कोने में रहते यदि किसी ने किसी फूल की डाल झुकाने की कोशिश की तो वहीं से ऊची आवाज में ‘छोडिए उसे। दूर। दूर हटो।’ ऊ़ॅची आवाज इसलिए जरूरी होती कि यदि वहॉं पहुंच कर रोकने बरजने का प्रयत्‍न करते तब तक डाल टूट चुकी होती।’ विरल अपवादों को छोड़ कर परिणाम आशा के अनुरूप होता, जहॉं नहीं होता वहॉं तेजी से चल कर वहां पहुँच जाता, और फटकार के साथ छोड़ो उसे, बेवकूफ । पूरे पार्क का सत्‍यानाश कर दिया।”

परन्‍तु यदि समझें कि हम पूरी तरह सफल हुए तो गलत होगा। माली को समझा कर उछाल की पहुँच में आने वाली डालियों टहनियों को कटवाना पड़ा और जो उछाल के भीतर थे उन पर कोई वश नहीं चला क्‍योंकि वे हमारे पार्क पहुंचने से पहले अंधेरे मुंह ही अपना काम कर जाते। फिर भी स्थिति सुधरी। सभी प्रयोग सफल नहीं होते। कुछ प्रश्‍न छोड़ जाते हैं । भावना से जुड़े सवालों का तार्किक समाधान हो तो सकता है पर यह आसान नहीं।